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कांग्रेस का प्रतिरोध, बढ़ाता संघ का जोश

सार

आरएसएस की ताकत बढ़ाने में कांग्रेस के प्रतिरोध की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता. पहले कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर संघ पर प्रतिबंध लगाती रही है. अब केंद्र में तो कांग्रेस के पास वह ताकत बची नहीं है तो राज्यों में अपनी जोर आजमाइश कर रही है..!!

janmat

विस्तार

     कर्नाटक सरकार ने स्कूलों, कॉलेजों और सार्वजनिक स्थलों पर संघ की गतिविधियों को प्रतिबंधित करने का फैसला किया है. कैबिनेट ने इस बारे में नियम बनाने का निर्णय लिया. संघ के पथसंचलन को कांग्रेस समाज के लिए घातक मानती है. जो संगठन बिना किसी सरकारी सहायता के जन सहयोग और सेवा के बल पर अपनी शताब्दी पूरा कर रहा है, उसकी गतिविधियों को प्रतिबंधित करने की सोच अभी भी कांग्रेस में मौजूद है.

    आरएसएस और उसकी विचारधारा से जुड़ते देश के जनमत से भी कांग्रेस की आंखें नहीं खुल सकी हैं. एक तरफ संघ अपना शताब्दी वर्ष बना रहा है. दूसरी तरफ कांग्रेस की राज्य सरकार उसकी गतिविधियां प्रतिबंधित करने का काम कर रही है. जिस संघ की गतिविधियों को कांग्रेस प्रतिबंधित करना चाहती है, उसी संघ के प्रतीक के रूप में भारत माता का चित्र भारतीय मुद्रा पर अंकित करने का इतिहास केंद्र सरकार ने रचा है.

    संघ की स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया गया है. उसमें कांग्रेस की केंद्र सरकार के समय गणतंत्र दिवस पर शामिल संघ के स्वयंसेवकों के चित्र को संयोजित किया गया है. संघ से वैचारिक असहमति रखने का कांग्रेस को पूरा अधिकार है. किसी से असहमति होने का यह मतलब तो नहीं हो सकता कि उसको प्रतिबंधित कर दिया जाएगा.   

    राहुल गांधी के कांग्रेस के नेतृत्व में आने के बाद एक फैशन सा हो गया है कि, संघ का विरोध करने वाले कांग्रेसजनों को प्राथमिकता मिलने लगती है. कर्नाटक सरकार ने जो निर्णय किया है उसका आधार कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड्गे के पुत्र राज्य में मंत्री हैं और उन्हीं के एक पत्र को आधार बनाया गया है. 

    इसके पीछे कांग्रेस की आंतरिक राजनीतिक भी काम कर रही है. कुछ दिनों पहले ही डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार ने विधानसभा के भीतर संघ के गीत को दोहराया था. इस पर विवाद भी उत्पन्न हुआ था. बाद में उन्होंने मातृभूमि की आराधना को आधार बनाते हुए अपनी सफाई पेश की थी.

    कर्नाटक में मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के बीच राजनीतिक संघर्ष सार्वजनिक हो चुका है. जब कांग्रेस सत्ता में आई थी, तब आलाकमान ने दोनों के बीच ढाई-ढाई साल तक मुख्यमंत्री का सौदा कर सरकार बनाई थी. पहला मौका सिद्धारमैया को दिया गया था. उनके ढाई साल पूरे हो चुके हैं. अब डिप्टी सीएम का मौका था लेकिन कांग्रेस अपने वायदे से मुकर गई. परिणाम स्वरुप कर्नाटक में सरकार चलने की बजाय केवल रेंग रही है.

    आरएसएस को लेकर सरकार ने जो फैसला किया है उसके पीछे भी कांग्रेस की अन्दरुनी राजनीति की भूमिका मानी जा सकती है.

    कांग्रेस और संघ का विरोध सार्वजनिक है. देश में दो ही संगठन हैं, जो सौ साल पूरे कर चुके हैं. कांग्रेस एक सौ चालीस वर्ष की हो गई है तो आरएसएस अपना शताब्दी वर्ष बना रहा है. संघ के सौ साल में लगभग साठ साल तो कांग्रेस की ही सरकारें देश में चलती रही है. कांग्रेस की सरकारों में भी संघ को रोकने के कम प्रयास नहीं किए गए. 

    कई बार गलत कारणों से संघ पर प्रतिबंध लगाया गया. एक बार भी संघ की गतिविधियों को अवैधानिक साबित नहीं किया जा सका. संघ की वैचारिक यात्रा तेजी से बढ़ती रही. वर्तमान हालात यह है कि, संघ के राजनीतिक फेस बीजेपी की केंद्र और अनेक राज्यों में सरकारें काम कर रही हैं. देश का प्रधानमंत्री संघ का प्रचारक होने पर गौरवान्वित होता है.

    केंद्र और राज्य में जहां-जहां बीजेपी की सरकार हैं, वहां भले ही संघ का सीधे राजनीति में कोई योगदान नहीं हो लेकिन बिना संघ की सहमति के कोई भी बड़े फैसले संभव भी नहीं है. प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्री संघ की वेशभूषा में अपने मातृ संगठन की सेवाओं की सराहना कर रहें हैं. 

    कर्नाटक सरकार अपने राज्य में नियम बना सकती है, लेकिन जिन राज्यों में बीजेपी की सरकार है, वहां कांग्रेस क्या करेगी? सरकारी कर्मचारियों को संघ की गतिविधियों में शामिल होने पर भी कांग्रेस ने पहले प्रतिबंध लगाए थे. बाद में बीजेपी की सरकारों ने इसे समाप्त कर दिया.  

    कर्नाटक में संघ के विरुद्ध जो भी निर्णय लिया जाएगा वह उसको राजनीतिक नुकसान ही पहुंचाएगा. संघ के सौ साल और कांग्रेस का पतन एक सिक्के के दो पहलू जैसे हो गए हैं. कर्नाटक सरकार को यह समझना चाहिए कि, जब उसकी आयरन लेडी इंदिरा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसे ताकतवर प्रधानमंत्री संघ को नहीं रोक सके तो उनकी राज्य सरकार की क्या विसात हो सकती है.

    राहुल गांधी संघ का खुला विरोध कर राजनीतिक ध्रुवीकरण का ही मार्ग प्रशस्त करते हैं. अनुभव यही बताते हैं कि इसका नुकसान कांग्रेस को ही हो रहा है. अब यह कांग्रेस की मजबूरी बन गई है कि, उसे हर कीमत पर संघ का विरोध करना ही पड़ेगा.

    जैसे-जैसे कांग्रेस वामपंथी विचारधारा से घिरती जा रही है, वैसे-वैसे भारतीयता से कटती जा रही है. संघ की विचारधारा भारतीयता की विचारधारा है. अब जो भी वोट बैंक कांग्रेस के पास बचा हुआ है, वह या तो तुष्टिकरण का है, या जाति विभाजन का. संघ का समरसता का अभियान जैसे-जैसे सफल होगा, कांग्रेस का जातीय एजेंडा अपने आप कमजोर होता जाएगा.

    कोई भी विरोध आरएसएस की सेवाओं को तो कमजोर नहीं कर सकता. इस संगठन ने सेवा के क्षेत्र में जितने प्रकल्प चलाएं हैं, उनका मुकाबला प्रतिबंध से नहीं बल्कि सेवा से ही हो सकता है. किसी राजनीतिक प्रतिबन्ध से सेवा भाव का मुकाबला नहीं हो सकता है.

    जब भी तुलना होती है तो कमजोर को हीनता का बोध होता है. संघ का कांग्रेस विरोध भी हीनता की ही उपज है. संघ पर तो कांग्रेस को शोध करना चाहिए कि,  एक संगठन कैसे अपने सेवा और विचार से देश का विश्वास जीत लेता है. उसका राजनीतिक फेस कांग्रेस को पराजित कर केंद्र में सत्ता हासिल कर लेता है.

    अभी तीन राज्यों में जिनमें हिमाचल, तेलंगाना और कर्नाटक में कांग्रेस की सरकारें हैं. संघ पर प्रतिबंध की उसकी कोशिशें इन राज्यों में कांग्रेस की पराजय के साथ ही समाप्त हो सकती हैं.