मध्यप्रदेश में कांग्रेस भावी सीएम के चेहरे के लिए लड़ रही है. अब तो प्रभावी और भावी से आगे बढ़कर अवश्यंभावी सीएम का एलान भी कांग्रेस में कर दिया गया है. बहुत प्रसिद्ध कहावत है. ‘सूत ना कपास जुलाहों में लठम लट्ठा’. भविष्य में क्या नतीजा आएगा उसके लिए ईमानदारी से प्रयास करने के बजाए कांग्रेस भावी का सपना बुन रही है. पोस्टर लगाए जा रहे हैं. ट्वीट किए जा रहे हैं. मध्यप्रदेश में कांग्रेस बगावत की सर्वसुलभ और सुविधाजनक संस्था के रूप में स्थापित हो गई है.
ना वरिष्ठता, ना कनिष्ठता की परवाह है. हर तरफ से एक दूसरे की टोपी उछाली जा रही है. पिछले 20 सालों से मध्यप्रदेश में कांग्रेस सत्ता के लिए छटपटा रही है. कमलनाथ की लीडरशिप में 15 महीने की सरकार बन गई थी जो बगावत के कारण चल ना सकी. मध्यप्रदेश के वरिष्ठतम राजनेता कमलनाथ राज्य के पहले ऐसे लीडर हैं, जो सीएम बनने के बाद भी सरकार नहीं चला सके और उन्हें अपने लोगों की बगावत के कारण ही कुर्सी गंवानी पड़ी.
जिस दिन से उनकी कुर्सी गई है उस दिन से ही कमलनाथ रिटर्न और भावी मुख्यमंत्री का प्लान प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है. इसको लेकर कांग्रेस के अंदर जिस तरह की गुटबाजी उभरकर सामने आई है उससे भावी मुख्यमंत्री का प्लान तो चौपट हो ही गया है, कांग्रेस की संभावनाओं पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता अब दिखाई पड़ रहा है.
किसी कवि ने कहा है- 'जब अपने ही शामिल हों विरोधी की चाल में, तब शेर भी फंस जाता है मकड़ी के जाल में’ मध्यप्रदेश कांग्रेस के लिए यह पंक्तियां बिल्कुल सटीक सिद्ध हो रही हैं. कमलनाथ जैसे वरिष्ठ नेता के खिलाफ भी कांग्रेस में अंदर से आवाज खुलकर आ रही हैं. यह आवाजें कोई आम कार्यकर्ता नहीं उठा रहा है बल्कि ऐसे नेता उठा रहे हैं जो मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं और वर्तमान में पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हैं.
अरुण यादव, अजय सिंह और जीतू पटवारी जैसे नेता भावी मुख्यमंत्री के अभियान की खिलाफत कर रहे हैं. इन नेताओं का कहना है कि पार्टी ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की है. पार्टी की प्रक्रिया के मुताबिक निर्वाचित विधायक ही नेता का चयन करेंगे. राजनीति में जो सामने दिखता है उतना ही नहीं होता. राजनीति तो उसके पीछे होती है.
कमलनाथ जब से मुख्यमंत्री पद से हटे हैं तभी से यह आम धारणा रही है कि अगले चुनाव में कांग्रेस का चेहरा वही होंगे. सरकार में आने पर नेतृत्व भी उन्हें ही मिलने की पूरी उम्मीद मानी जा रही है. इसके बावजूद कमलनाथ के चाहने वाले और समर्थक इस बात को फोकस क्यों करना चाहते हैं कि भावी मुख्यमंत्री का चेहरा वही रहेंगे? यद्यपि कमलनाथ ने यह कह दिया है कि वे किसी पद के प्रत्याशी नहीं हैं. पहले चुनाव जीतना है. उसके बाद सब चीजें होंगी.
ऐसा लगता है कि बगावत कांग्रेस के डीएनए में शामिल है. बगावत के कारण कांग्रेस ने अपनी सरकार गंवाई और अब कांग्रेस बगावत के कारण अपनी संभावनाओं को स्वयं पलीता लगा रही है. कमलनाथ जब से मध्यप्रदेश की राजनीति में आए हैं तब से बगावत की गति कुछ ज्यादा तेज हो गई है.
जब कमलनाथ राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय थे तब उनकी भूमिका मध्यप्रदेश में आलाकमान जैसी थी. मुख्यमंत्री और मंत्री बनाना उनके निर्णय पर निर्भर करता था. कांग्रेस की सरकारों में शासन के कई विभाग उनके निर्देश पर ही चलते थे. उन विभागों में मुख्यमंत्री का हस्तक्षेप कमलनाथ की अनुमति से ही होता था. मध्यप्रदेश में आम जनता के बीच धारणा बनी हुई थी.
कमलनाथ में सोच, समझ और चिंतन की कमी नहीं है. वह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को भी कारपोरेट और औद्योगिक मानसिकता पर चलाने में सिद्धहस्त हैं. यह ऐसी मानसिकता होती है जहां लागत और लाभ उपयोगिता और अनउपयोगिता का सिद्धांत सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है. इसी सोच के आधार पर कमलनाथ मध्यप्रदेश में कांग्रेस की राजनीति को भी आगे बढ़ा रहे हैं.
जब वह मुख्यमंत्री थे तब भी उन पर इसी तरीके के आरोप लगते रहे कि नेताओं और कार्यकर्ताओं से उनका संवाद नहीं है. संवाद की कमी के कारण ही विधायकों में विद्रोह की स्थिति निर्मित हुई. ऐसा माना जा रहा था कि सरकार के कटु अनुभव के बाद शायद विपक्ष की राजनीति में पार्टी और पब्लिक की आवाज को महत्व दिया जाएगा लेकिन जिस तरह के घटनाक्रम दिखाई पड़ रहे हैं उससे ऐसा ही लगता है कि कटु अनुभवों से भी कोई सुधार नहीं हो सका है.
कांग्रेस का मुकाबला मध्यप्रदेश में एक ऐसे नेता से है जो परिश्रमी के साथ-साथ डेमोक्रेटिक बिहेवियर का चैंपियन माना जाता है. पब्लिक कनेक्ट उसकी सबसे बड़ी पूंजी के रूप में देखा जा सकता है. जब मुकाबला इतना कडा और करीबी हो तो फिर कोई भी चूक सपनों को चकनाचूर कर सकती है. भारत जोड़ो यात्रा के साथ ऐसा महसूस किया जा रहा था कि कांग्रेस में शायद एकता मजबूत होगी. मुकाबले के लिए पार्टी एकजुटता के साथ मैदान में उतरेगी. यह सारे सपने अब बिखरते हुए दिखाई पड़ रहे हैं. कांग्रेस के आंतरिक संघर्ष हर रोज किसी न किसी रूप में उभर रहे हैं. ऐसे हालात पार्टी को नुकसानदेह साबित हो सकते हैं.
मध्यप्रदेश की पॉलिटिक्स आज दलित-आदिवासी और पिछड़े वर्गों की ओर शिफ्ट कर गई है. इन्हीं वर्गों का समर्थन सरकार बनाने का निर्णय कर रहा है. राजनीतिक दलों को पब्लिक कनेक्ट और बिहेवियर के मामले में आम लोगों के सामने अपनी इमेज को डेमोक्रेटिक ही रखना पड़ेगा.
कमलनाथ के साथ ऐसा हो रहा है कि वह स्पष्टता के साथ चीजों को कह देते हैं, भले ही उसका कोई भी असर हो. आम कार्यकर्ता और कमलनाथ बीच अनुभव और वरिष्ठता का इतना बड़ा अंतर है कि यह दूरी बहुत अधिक दिखाई पड़ती है. नेता पर ही निर्भर करेगा कि वह इस दूरी को अपने आचरण से कितना कम कर सकता है.
राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस में पिछले दिनों निर्मित हो रहे बगावती माहौल को पार्टी के लिए वाटर लू मान रहे हैं. भविष्य का सपना समाप्त करने के लिए वर्तमान ही पर्याप्त दिखाई पड़ रहा है. मध्यप्रदेश की राजनीतिक तासीर बदल चुकी है. अब बदलना नेताओं को है. प्रदेश का भविष्य सुरक्षित है और सुरक्षित रहेगा. उसको सुरक्षित करने के नाम पर मुगालता पालने वाले राजनेताओं को ही सुधारना पड़ेगा.