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सहिष्णुता का असम्मान, फिर भी बंद आंख-कान

सार

भरी अदालत में शिक्षित वकील द्वारा सीजेआई की अवमानना की जितनी निंदा की जाए, कम है. सीजेआई ने उदारता दिखाई, वकील के खिलाफ केस नहीं किया. बार काउंसिल ने वकील को निलंबित कर दिया..!!

janmat

विस्तार

     देश के किसी भी अदालत में उसके प्रैक्टिस पर रोक लगा दी गई. प्रधानमंत्री ने इस घटना की निंदा की. यह सब अपनी जगह है, जो बुनियादी प्रश्न है, वह हर नागरिक की मर्यादा का है. उसके मान का है, स्वाभिमान का है. इसमें ना कोई बड़ा होता है, ना छोटा. चाहे कोई बड़े से बड़े पद पर बैठा व्यक्ति हो या आम नागरिक हो उसके शब्द, भाषा,आचरण और कर्म किसी दूसरे को ठेस पहुंचाने वाले नहीं हो सकते.

    केवल इसी घटना में नहीं हर घटना में एक्शन और रिएक्शन सिक्के के दो पहलू होते हैं. रिएक्शन का असहिष्णु होना बताता है, कि इसकी क्रिया भी इसी श्रेणी में है. सबसे बड़ा सवाल कि बढ़ती असहिष्णुता की असली वजह क्या है और इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? 

    भीड़ तंत्र न्याय करने लगा है. देश का न्याय तंत्र एडजस्टमेंट में व्यस्त है. संविधान के मुताबिक सबके लिए एक जैसा कानून नहीं है. सियासी फायदे के लिए संविधान को ही असहिष्णु बना दिया गया है. जाति, धर्म, संप्रदाय पर विभाजन सियासी सफलता का आधार बन गया है. न्यायिक व्यवस्था सुगम और सरल होने की बजाए विकास में बाधक के रूप में खड़ी हो जाती है. कानून अमीर-गरीब के हिसाब से काम करता देखा जा सकता है. 

    चाहे वैचारिक असहिष्णुता हो या कोई भी सामाजिक बुराई हो सबके पीछे सियासत का हाथ होता है. देश में अकर्मण्यता  को बढ़ाया जा रहा है. मुफ्तखोरी एजेंडा बन गया है. सारे राजनीतिक दल वोट बैंक के लिए धर्म और जाति का खुलेआम उपयोग कर रहे हैं. संविधान के तहत जो कानून बनाए जाते हैं, उसे भी लागू नहीं होने दिया जाता. विभिन्न दलों की सरकारें अपनी सुविधा के हिसाब से कानून पर अमल करती हैं. सियासत में संवाद समाप्त हो गया है. राजनीति अब शत्रुता में बदल गई है.

    सियासत की भाषा और संवाद वोट चोरी, एटम बम और हाइड्रोजन बम में बदल गए हैं. व्यक्ति विरोध सियासत का एजेंडा बन गया है. नीतियों का जनहित की दृष्टि से आंकलन नहीं करके दल के हिसाब से उसका विरोध किया जाता है. किसी एक टिप्पणी पर ऐसी प्रतिक्रिया डराती जरूर है, लेकिन जिनके हाथ में शक्तियां हैं उनसे और अधिक सजगता और सतर्कता की अपेक्षा भी करती है.

     ऐसा लगता है, कि सारी परिस्थितियां नियंत्रण से बाहर होती जा रही हैं. सरकारों के पास वेतन बांटने के पैसे नहीं हैं. लेकिन चुनाव में वादों से कोई पीछे नहीं रहता. सनातन तो जैसे पंचिंग बैग बन गया है. वामपंथी विचार तो इस पर भड़ास निकालने से कभी पीछे नहीं रहता. तमिलनाडु में जब सनातन को डेंगू और क्या-क्या कहा गया था, तब वैचारिक असहिष्णुता का सवाल नहीं उठाया गया था. 

     गिद्ध जैसा सियासत उन घटनाओं पर नजर गड़ाए रखती है, जिससे समाज को बांटकर अपने साथ कुछ नया जोड़ा जा सकता है. भीड़ द्वारा किसी की हत्या किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं हो सकती. लेकिन ऐसी घटनाओं पर सियासत भी स्वीकार नहीं होना चाहिए. कई बार तो ऐसा लगने लगता है, कि सियासत के लिए ऐसी घटनाओं को होने दिया जाता है. पूरा देश सियासत की चपेट में है.

    कोई उद्योगपति ईमानदारी से अपना काम कर रहा है, उस पर भी सियासत सवाल खड़े करती है. जिससे सब चीज जुड़ी है, अगर वही ईमानदारी से अपना दायित्व पूरा नहीं कर रहा है, तो फिर सबसे पहले तो उस पर ही आक्रमण होना चाहिए. अदालत की अवमनाना से कोई बदलाव नहीं हो सकता. सुर्खियां हो सकती हैं, लेकिन बदलाव के लिए तो सियासत को ही बदलना पड़ेगा.

    कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका का पूरा तंत्र जनधन से पालित, पोषित होता है. देश का पूरा तंत्र सहिष्णुता का सम्मान करता नहीं दिखाई पड़ता. जहां कट्टरता होती है, जहां भीड़ तंत्र होता है, वहां जल्दी ध्यान जाता है. सामान्य नागरिक की पीड़ा ना हीं सियासत समझ पाती है और ना ही संविधान के दूसरे अंग.

    देश की विडंबना है कि कानून पर ही सियासत चालू हो जाती है. न्यायिक व्यवस्था भी सीधे सियासत से प्रभावित नहीं होती तो कम से कम उसकी हवा से तो प्रभावित ही होती है.

    सोशल मीडिया के कारण किसी क्रिया का छिपा रहना असंभव हो गया है. इस पर ट्रॉलिंग एक संस्थागत सियासी हथियार बन गया है. सोशल मीडिया व्यवस्था को परेशान करने लगा है. अब तो बड़े पद पर बैठे हर व्यक्ति को अपना एक-एक शब्द तोल-मोलकर बोलने का समय है. किस बात को किस ढंग से एनालाइज किया जाएगा, इस पर किसी का नियंत्रण नहीं बचा है.

    देश का GEN-Z सोशल मीडिया जीवी हो गया है. सियासत और जनधन से एंजॉय करने वाली ताकतों के लिए ख़तरे का समय आ गया है. खासकर न्यायिक व्यवस्था को आंख, कान खुले रखने का वक्त है. कानून की निष्पक्षता ना केवल होना चाहिए, बल्कि दिखना चाहिए. 

    देश ने हर दौर देखा है. असहिष्णुता से ज्यादा आतंकवाद और जिहाद का दंश झेला है. इंटरनेट, मीडिया से डरने का नहीं अंतर्मन को शुद्ध और पवित्र करने का वक्त है.