बड़े-बड़े बुद्धिजीवी राजनेता कई बार बुद्धिहीनता की सीमाएं पार कर देते हैं. नॉनवेज बनाने और खाने के वीडियो सोशल मीडिया पर बनाकर ऐसे डाले जाते हैं, कि जैसे एवरेस्ट फतह कर लिया गया हो. ऐसा कोई मानसिक दिव्यांग करे तब तो समझ में आता है. लेकिन जो नेता देश और प्रदेश चलाने का दम भरते हैं, उनके ऐसे वीडियो डालने के पीछे मंशा और नीयत राजनीतिक ही होती होगी..!!
सनातन धर्म में सावन का महीना रमजान जैसा पवित्र महीना माना जाता है. हर सनातनी सावन माह में अपनी धार्मिक आस्था का निर्वहन करता है. इसी प्रकार से नवरात्रि भी शक्ति की आराधना का सनातन धर्म का सबसे बड़ा पर्व है. इन पर्वों पर सनातन धर्मियों का चित्त पवित्र होता है. भाव निर्मल होता है. ऐसे में अगर कोई उसके भाव से खेलने की कोशिश करे तो फिर इसे राजनीतिक चातुर्य नहीं बल्कि राजनीतिक सुसाइड कहा जाएगा.
दो राजनेताओं के ईटिंग वीडियो पूरे भारत में चर्चा में हैं. राहुल गांधी और लालू यादव के मटन बनाते और उसका स्वाद लेते वीडियो पर पीएम नरेंद्र मोदी ने चुनावी सभा में कटाक्ष किया है. सावन के महीने में यह वीडियो बनाया गया था. सबसे पहला सवाल यह, कि भारत में खानपान की पूरी स्वतंत्रता है. कानून किसी को भी कुछ भी खाने से बाधित नहीं करता है. हर व्यक्ति अपनी इच्छा से वेज-नॉनवेज कुछ भी खाने के लिए स्वतंत्र है. कोई नॉनवेज खाने का शौकीन है, तो इसमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन अगर नॉनवेज को वीडियो पोस्ट कर धार्मिक शत्रुता पैदा कर, वोट बैंक साधने की राजनीति की जाती है, तो इससे बड़ी राजनीतिक बुद्धिहीनता, कुछ भी नहीं कही जाएगी.
विविधतापूर्ण भारत में धर्म, संप्रदाय और समुदाय के हिसाब से भाषा, बोली, वेशभूषा और खान-पान की परंपरा है. सनातन धर्म में शाकाहार पर ही आस्था है. यह अनिवार्यता नहीं है, लेकिन निजी विषय है. इसी प्रकार दूसरे धर्म के लोगों में नॉनवेज खानपान का चलन है. चुनाव के समय ऐसे वीडियो शायद इसीलिए डाले जाते हैं, कि नॉनवेज खान-पान वाले समुदायों से स्वयं को जोड़ा जा सके और यह साबित किया जा सके कि सनातनधर्मी होने के बावजूद हम अपनी धार्मिक भावनाओं से ज्यादा, वोट बैंक की धार्मिक भावनाओं को वरीयता देते हैं. राजनीतिक तुष्टिकरण का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा?
राजनीति में मित्रता नहीं होती और धर्म में शत्रुता नहीं होती. धर्म सबके लिए समान है, लेकिन राजनीति में पद के लिए संघर्ष है. जहां संघर्ष है, वहां प्रतिस्पर्धा है और जहां प्रतिस्पर्धा है वहां मित्रता दिखावटी ही हो सकती है, भीतर तो प्रतिस्पर्धा ही होगी. अलग-अलग धर्म में भी धर्म के रास्ते पर परमसत्ता तक पहुंचने के मार्ग में कोई संघर्ष नहीं है. परमात्मा सबको मिल सकता है, लेकिन राजनीति में पद तो कुछ को ही मिल सकता है. राजनीतिक पद के लिए धर्म की भावनाओं का मिसयूज़ क्षम्य नहीं हो सकता.
तेजस्वी यादव नवरात्रि में मछली खाने का वीडियो डालते हैं. सफाई में कहते हैं, कि वीडियो एक दिन पुराना है. मछली खाने से किसने, किसको रोका है? भारत में तो यह संस्कृति है, कि खाना एकांत में ही खाया जाता है. किसी को दिखाकर खाना, अच्छा संस्कार नहीं माना जाता. किसी के पास खाने के लिए मछली है. हो सकता है दूसरे के पास, केवल प्याज रोटी हो. मछली का वीडियो देखकर उसको अपनी कमी का दु:ख हो सकता है. खाने-पीने का वीडियो डालकर कोई भी वोट बैंक को तो साध सकता है, लेकिन उसकी “इंसानियत का बैंक खाली हो जाएगा”.
राजनेता विशेषकर राहुल गांधी कभी कुली बन जाते हैं. कभी धान के खेत में जाकर धान रोपने लगते हैं. कभी मैकेनिक के पास जाकर मैकेनिक बनने का प्रयास करते हैं. कभी लालू यादव के घर जाकर मटन बनाने लगते हैं. कभी जनेऊ धारण कर लेते हैं और कभी सनातनी बन जाते हैं. स्वाद गूंगे का अनुभव होता है. उसको केवल महसूस किया जा सकता है.
भारत में ईडियोटिक पॉलिटिक्स बंद होने का समय आ गया है. चुनाव के समय जनता के जीवन से जुड़े हुए मुद्दे तो भटक जाते हैं. ऐसे ही मुद्दे जानबूझकर उभारे जाते हैं, कभी हिजाब पर पूरा चुनाव सिमट जाता है, तो कभी मछली और मटन चुनावी चर्चा के केंद्र में आ जाते हैं. जो नेता ऐसे वीडियो डालते हैं, उनके खिलाफ भावनाएं आहत करने की मंशा पर सवाल उठाना चाहिए. राहुल गांधी तो जैसे भावनाओं को आहत करने के लिए अभ्यस्त हैं. कभी वह कह देते हैं, कि हिंदू धर्म में शक्ति के खिलाफ उनकी लड़ाई है. हिंदू धर्म में शक्ति देवियों का प्रतीक है.
भारत के मतदाताओं की राजनीतिक जागरूकता को प्रणाम किया जाना चाहिए. जो राजनीतिक बुद्धहीनता को कभी भी फलने-फूलने नहीं देते. अगर एकाध बार मौका मिल भी जाता है, तो फिर जल्दी ही ऐसे दिव्यांग राजनीतिक चरित्रों को पदों से उतार देती है. बुद्धहीनता भी वैसे ही निजी विषय है जैसे खान-पान. इसका परिवारवाद से कोई संबंध नहीं है. परिवारवादी बुद्धिहीन ही होगा ऐसा तो नहीं कहा जा सकता. लेकिन अक्सर ऐसा देखा गया है, कि परिवारवादी राजनीति के वारिस लोकतंत्र की विकलांगता के कारण ही बनते हैं.