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चुनावी अंदाज, बांटो समाज, करो राज

सार

 लोकसभा चुनाव भारत को जीतने के लिए हो रहे हैं या बांटने के लिए? राष्ट्र के एकीकरण को तोड़ने के मुद्दे चुनाव में छाए हुए हैं. चुनाव में ऐसी-ऐसी बातें  सामने आ रही हैं, जो राष्ट्र को ही चुनौती दे रही हैं. मुस्लिम आरक्षण की पनौती कांग्रेस को लाभ पहुंचाएगी या नहीं लेकिन ऐसी कोशिश भारत को जरूर नुकसान पहुंचाएगी? 

janmat

विस्तार

   
   सामाजिक भेदभाव और पिछड़ेपन को मिटाने के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था सियासी विभाजन कर वोट बैंक हथियाने का साधन बन गया है. संविधान, धर्म के आधार पर आरक्षण स्वीकार नहीं करता. लेकिन कांग्रेस और उसके गठबंधन के नेता धार्मिक आरक्षण देने की बात उठाते हैं.    कांग्रेस ने कर्नाटक में मुस्लिम आरक्षण का मॉडल रखा है. तो लालू प्रसाद यादव मुसलमानों को पूरा आरक्षण देने की वकालत करते हैं. मुस्लिम समाज की राजनीति करने वाले नेता तो ऐसी बातों को हवा देने के लिए हमेशा तैयार खड़े रहते हैं. 

    बीजेपी मुस्लिम आरक्षण का पुरजोर विरोध कर रही है,तो कांग्रेस और उसके सहयोगी, बीजेपी पर एससी एसटी ओबीसी का रिजर्वेशन समाप्त करने की साजिश का आरोप लगा रहें है. इसके लिए संविधान को बदलने तक की बात कही जा रही है. रिजर्वेशन के नाम पर हिंदू समाज को भारत में बांटने और डराने का काम किया जा रहा है. भले ही राजनीतिक लाभ के लिए, राजनीतिक कारणों से ही हिंदू समाज हिंदुत्व के नाम पर एकजुट हुआ है. हिंदुत्व की इस एकजुटता  ने भारतीय राजनीति की धारा बदल दी  है. दस साल पहले शुरू हुई हिंदुत्व की राजनीतिक धारा, उसके विरोधियों के लिए जीवन मरण का प्रश्न बनी हुयी हैं. 

  ऐसे राजनीतिक दलों में यह डर समा गया है,कि अगर हिंदुत्व की राजनीतिक मजबूती आगे भी कायम रही, तो उनका सियासी वजूद खतरे में पड़ जाएगा. इसलिए हिंदुत्व के एकीकरण को खत्म करने की काट लगातार ढूंढी जा रही है.

    कांग्रेस का विनिंग फार्मूला जातियों को बांटो और हिंदुत्व को कमजोर करो बना हुआ है. कांग्रेस एक तरफ अपने खोए   मुस्लिम वोट बैंक को फिर से वापस पाने के लिए सारे हथकंडे अपना रही है, तो दूसरी तरफ हिंदुत्व को कमजोर करने के लिए हिंदू समाज की आरक्षित जातियों को डराने के साथ ही,  जातिगत जनगणना के नाम पर हिंदुत्व को जातियों में विभाजित करने की पुरजोर कोशिश कर रही है. 

    संविधान के अंतर्गत सामाजिक रूप से पिछड़े समाजो  को आरक्षण देने की व्यवस्था को राजनीतिक हथियार के रूप में हिंदुत्व को कमजोर करने के लिए उपयोग किया जा रहा है. आरक्षण खत्म करने या कम करने के बारे में, ना तो बीजेपी की ओर से और ना ही किसी भी राजनीतिक दल की ओर से कभी भी कोई बात कही गई है. लेकिन बेसिर-पैर के आरोपों  के साथ आरक्षण खत्म करने की बातें की जा रही हैं.

   कांग्रेस अपने महत्वाकांक्षा के जहर से पूरी चुनावी व्यवस्था को जहरीला बना रही है. उसको, ऐसा लगता है,कि उसकी कोशिश अगर सफल हुई और हिंदू समाज में राजनीतिक विभाजन आकार ले सका? तभी उसका राजनीतिक अस्तित्व बच पाएगा.

   इस चुनाव में भारत-पाकिस्तान के विभाजन की सोच विभिन्न मुद्दों में दिखाई पड़ रही है. अंग्रेजों की डिवाइड और रुल की पॉलिसी भी चुनावी मुद्दों के रूप में हमारे सामने है. आरक्षण समाज को डिवाइड करने का सबसे बड़ा राजनीतिक हथियार बन गया है. जिन वर्गों को संविधान की इस सुविधा का  लाभ मिल रहा है, उनके बीच में भी विभाजन की वास्तविकता साफ- साफ़  देखी जा सकती है.

   प्रतिस्पर्धा की महत्वाकांक्षा को विभिन्न समाजों के बीच में बढाकर सियासी लोग अपना सियासी मकसद हासिल करना चाहते हैं. भारत को खंड-खंड और टुकड़े टुकड़े में विभाजित करने की सोच अगर सत्ता के पास भी पहुंच जातीहै, तो क्या ऐसी सत्ता का चलना संभव हो सकेगा? 

   आरक्षण की प्रतिस्पर्धा में ही पदोन्नतियों में आरक्षण का मामला ऐसा उलझ गया है, कि हजारों लोग बिना पदोन्नति पाए रिटायर हो गए हैं. कोई भी सियासी दल इसका समाधान निकालने में असमर्थ है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण के मामले में समय-समय पर बहुत सटीक और भेदभाव मिटाने के साथ योग्यता को भी संतुलित रखने का प्रयास किया गया है. 

   कांग्रेस तो यह कह रही है, कि वह आरक्षण की 50% की सीमा को ही समाप्त कर देगी. आरक्षण कि यह अधिकतम सीमा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित है. इसके बावजूद बिना किसी तार्किक कारण  के आरक्षण को राजनीतिक हथियार के रूप में कांग्रेस जिस तरह से उपयोग कर रही है, उससे  देश का एक तरफ जहां विभाजन बढेगा, तो  वहीं दूसरी तरफ देश की योग्यता भी दम तोड़ देगी.

   ओबीसी कोटा के अंतर्गत कई मुस्लिम जातियों को आरक्षण की सुविधा उपलब्ध है. यह आरक्षण सामाजिक पिछड़ेपन के कारण दिया जाता है. इसका धर्म से कोई संबंध नहीं होता. कर्नाटक में कांग्रेस द्वारा मुस्लिम समाज की सभी जातियों को ओबीसी कोटे के अंतर्गत शामिल कर लिया गया है. इसीलिए मुस्लिम आरक्षण का विवाद पैदा हुआ है. कांग्रेस के आरक्षण का हथियार अगर कारगर होता है, तो कांग्रेस क्या शत प्रतिशत आरक्षण आरक्षित जातियों और मुसलमानों के बीच वितरित करने की हिम्मत करेगी?

   राष्ट्र के संसाधनों पर मुस्लिम समाज के पहले अधिकार की डॉ मनमोहन सिंह की बात पहले ही विवाद का मुद्दा बनी हुई है. भाजपा जहां एससी-एसटी-ओबीसी को आरक्षण की गारंटी दे रही है. वहीं धर्म के आधार पर आरक्षण का पुरजोर विरोध कर रही है. आरक्षण पर हो रही चुनावी बातें देश में निगेटिविटी बढ़ा रही है. चुनाव पाॅजिटीविटी पर होने चाहिए थे. लेकिन पूरा चुनावी एजेंडा निगेटिविटी पर चला गया है. पश्चिम बंगाल के शिक्षा भर्ती घोटाले पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने बहुत गंभीर टिप्पणी की और कहा कि व्यवस्था से जनता का विश्वास उठ गया तो कुछ नहीं बचेगा. देश के साथ जिस तरह से सुनियोजित सियासी धोखाधड़ी हो रही है. उससे  व्यवस्था पर विश्वास कैसे बचेगा? 

   देश की व्यवस्था चलाने के लिए चुनाव में जब संविधान की भावनाओं के विपरीत विभाजनकारी मुद्दों को उभारा जाएगा? समाज को डिवाइड और रूल की रणनीति पर सियासत की जाएगी तो फिर इससे निर्मित व्यवस्था विश्वास योग्य कैसे बचेगी? आजादी के इतने वर्षों बाद भारतीय राजनीति की धारा में जो परिवर्तन आया है, अगर यह परिवर्तन नहीं आता? तो भारतीय शासन व्यवस्था में सुनियोजित ढंग से की गई धोखाधड़ी और बेईमानी का देश को पता ही नहीं चलता.

     कैसे-कैसे एक पक्षीय कानून बनाए गए हैं. समाज को विभाजित करने के लिए सरकारी व्यवस्थाओं का उपयोग किया गया है. राजनीतिक दलों को लाभान्वित करने के लिए सरकारी संसाधनों का वोट बैंक के नजरिए से उपयोग किया गया है. यह भारतीय लोकतंत्र की विडंबना नहीं तो क्या कही जाएगी, कि आजादी के 70 से अधिक सालों बाद भारत समान नागरिक संहिता की बाट जोह रहा है. आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक भेदभाव की व्यवस्था को और पिछडेपन को दूर करने के लिए किस सीमा तक सफल हुयी  है, इस पर कोई भी दल सोचने विचारने और काम करने के लिए तैयार नहीं है. देश की वास्तविकताएं राजनीतिक जरूरत और  हालातों  के हिसाब से तोड़ी मरोड़ी जा रही है.

  समाज को बांटों और राज करो का चुनावी अंदाज बंद होना चाहिए. भारत के सियासी रहनुमा विभाजन की जितनी गहरी रेखा खींच रहे हैं, उतनी गहरी रेखा तो अंग्रेज भी खड़ी नहीं कर पाए थे. आजादी के समय भारत के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण के बाद धर्म और जाति के नाम पर विभाजन समाप्त होना चाहिए था. लेकिन सियासी कारणों से यह विभाजन अभी उसी जगह पर खड़ा है, जिस जगह पर देश के बंटवारे के समय खड़ा था. हर राजनीतिक दल केअपने-अपने तर्क हैं अपना अपना एजेंडा है. और अपनी अपनी महत्वाकांक्षा है. भारत सियासी महत्वाकांक्षाओं का शिकार नहीं होना चाहिए.  किसी की जीत भारत के लिए महत्वपूर्ण नहीं है. बल्कि भारतीयों के लिए देश की जीत महत्वपूर्ण है.

   मुस्लिम आरक्षण की बात करने वाले तो शायद जीतने के लिए नहीं बल्कि हारने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं. धर्म के आधार पर आरक्षण का सियासी अंदाज न केवल संविधान को नजरअंदाज  कर रहा है बल्कि भारत को धर्म के आधार पर विभाजित करने की साजिश कर रहा है. मुस्लिम आरक्षण की पनौती राष्ट्र के लिए तो चुनौती है, लेकिन धर्म के आधार पर आरक्षण के समर्थक दलों के लिए यह सबसे बड़ी पनौती साबित होगी.