जम्मू कश्मीर के राज्यपाल रहते सतपाल मलिक ने पुलवामा के शहीदों पर जब फूल चढ़ाए थे तब सिस्टम की गलतियों के सत पर उनकी चुप्पी क्या पद की सुरक्षा के लिए जरूरी थी? जब राज्यपाल रहते सत के पाल नहीं बन पाए तो आज शहीदों की चिताओं पर ‘सत-असत’ की पुष्पांजलि का दांव घाव पर नमक छिड़कने से ज्यादा क्या कहा जा सकता है..!
सतपाल मलिक एक साक्षात्कार में कहते हैं कि पुलवामा की घटना सरकार की चूक के कारण हुई है. अगर जवानों को जाने के लिए गृह मंत्रालय द्वारा हवाईजहाज उपलब्ध करा दिया गया होता तो शायद यह घटना नहीं होती. उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि जवानों की यात्रा के समय रूट को सैनिटाइज भी नहीं किया गया था.
जब पुलवामा में सीआरपीएफ जवानों के काफिले पर आतंकवादी हमला हुआ था, तब सतपाल मलिक ही राज्य में गवर्नर थे. राज्य का प्रशासन उनके नाम से ही चलता था. उनके पास तो राज्य में लॉ एंड आर्डर की स्थिति की पूरी जानकारी रही होगी. उनके पास क्या ऐसा कोई इंटेलिजेंस इनपुट था कि जवानों के काफिले पर आतंकवादी हमला हो सकता है? हवाई जहाज नहीं मिलने की बात कब उनकी जानकारी में आई? उस जानकारी के बाद उन्होंने हवाई जहाज की व्यवस्था कराने के लिए क्या कोई प्रयास किया? इन सारे सवालों का जवाब जब तक नहीं दिया जाएगा, तब तक केवल सरकार की चूक बताकर सरकार पर ठीकरा फोड़ने की उनकी कोशिशों को सियासत से ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता.
'पाल' का शाब्दिक अर्थ ‘पालक’ या ‘प्रोटेक्टर’ होता है. राज्यपाल राज्य का प्रोटेक्टर होता है. लोकपाल लोक का प्रोटेक्टर होता है. लेखापाल लेख का प्रोटेक्टर होता है. इस शाब्दिक अर्थ में सतपाल का मतलब सत्य का प्रोटेक्टर निकाला जाएगा. पद और पदमुक्त होने पर एक ही सत अलग अलग नहीं हो सकता. पाल का एक मतलब यह भी होता है कि कच्चे फलों को पकाने के लिए घास फूस और पत्तों से ढक कर पाल डाला जाता है और फलों को पका कर उनके स्वाद का आनंद लिया जाता है.
सियासत में सत को घास फूस और पत्तों से ढककर पदों को पकाने की शैली पुरानी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विरोधी राजनीतिक दलों के लिए सतपाल मलिक आज एक राजनीतिक सत की रोशनी के रूप में दिखाई पड़ रहे हैं. सतपाल मलिक के इंटरव्यू के बहाने सरकार पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने एक चैनल के इंटरव्यू में बहुत ही जायज प्रश्न उठाया है कि सियासत में लोगों के रूप रंग बदलते रहते हैं. सत अगर समय पर नहीं बताया जाए तो फिर पद से हटने के बाद उसका कोई औचित्य नहीं रह जाता.
सवाल यह है कि सतपाल मलिक क्या किसी राजनीतिक दांव के तहत यह बयानबाजी कर रहे हैं? वैसे वे इस बात का खंडन कर चुके हैं कि उन्हें न तो किसी दल में जाना है और ना ही राजनीति में कोई पद ग्रहण करना है. राजनीति में खंडन नए द्वार का रास्ता बताने के लिए भी कई बार उपयोग में आता है.
आतंकवादी घटना देश में कहीं भी हो, निश्चित रूप से किसी न किसी गलती या चूक के कारण ही होती है. देश की सीमा में घुसकर आतंकवादी घटना होने के जो दृश्य भारत वासियों ने देखे हैं उन्हें गलती या चूक नहीं बल्कि महाभूल भी कहा जाए तो कम नहीं होगा.
मुंबई में जब आतंकवादी हमला हुआ था तब पाकिस्तान से आतंकवादी समुद्र के रास्ते मुंबई कैसे पहुंच गए थे? इसके पहले देश की संसद पर आतंकवादी हमला हो चुका है. जम्मू-कश्मीर में तो आतंकवादी घटनाएं कभी रोजमर्रा की घटनाएं हुआ करती थी. इन सारी घटनाओं के लिए क्या सरकार या सिस्टम की गलती की ख़ोज होना चाहिए? राष्ट्र की सुरक्षा, संप्रभुता और सैनिकों के बलिदान के विषयों पर सियासत की कोई गुंजाइश नहीं होना चाहिए.
सतपाल मलिक का बीजेपी और उनके नेताओं से राजनीतिक विरोध हो सकता है. लोकतांत्रिक तरीके से उन्हें इस बात का अधिकार है कि वे उन नेताओं का मुकाबला करें. इस मुकाबले में शहीदों और शहादत को सवालों के घेरे में लाकर सियासत की कोशिशों से हर किसी को बचना चाहिए.
अक्सर यह देखा गया है कि राजनीति और शासन प्रशासन में महत्वपूर्ण पदों पर रहने वाले व्यक्ति पदों से हटने के बाद या तो ऐसे साक्षात्कार में ऐसी कोई चीज उजागर करते हैं या पुस्तक लेखन के जरिए कोई न कोई रहस्य उद्घाटित करते हैं. राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए जब बोफोर्स का मामला उछला था तब उनकी कैबिनेट से विश्वनाथ प्रताप सिंह त्यागपत्र देकर अनकहे ही इस मामले को राजनीतिक तूल दे गए थे.
इसी को सियासत कहा जाता है. जब उन्होंने देखा कि भ्रष्टाचार का बड़ा मामला सामने आ गया है तब उन्होंने अपनी अलग राह पकड़ ली. बाद में तो इसका राजनीतिक लाभ लेते हुए वे प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे. जितने भी राजनेताओं अथवा ब्यूरोक्रेट ने रिटायरमेंट के बाद पुस्तकें लिखी हैं उन सबमें कोई ना कोई विवादास्पद तथ्य बताये गए हैं. कांग्रेस के कई नेताओं ने अपनी पुस्तकों में गांधी परिवार से जुड़े कई रहस्योद्घाटन किए हैं.
अभी हाल ही में गुलाम नबी आजाद की पुस्तक मार्केट में आई है. इस पुस्तक में भी गांधी परिवार और प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव से जुड़े कई ऐसे तथ्य उजागर किए गए हैं जो पहले सार्वजनिक नहीं थे. कई बार ऐसे रहस्योद्घाटन रिटायरमेंट की मनोदशा से उबरने के लिए भी किए जाते हैं. इससे जहां संबंधित व्यक्ति का महत्व प्रतिपादित होता है वहीं उसके महान होने का अहंकार भी पुष्ट होता है. पुस्तकों के मामलों में तो आर्थिक लाभ भी जुड़ा होता है. ऐसी पुस्तकों के लेखक को रॉयल्टी मिलती है. इंटरव्यू भी टीआरपी के नजरिए से ही देखे जाते हैं
लोकतांत्रिक व्यवस्था में जो भी व्यक्ति संवैधानिक पदों पर आसीन होता है उसे पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई जाती है. इस शपथ में कार्य के दौरान उसके संज्ञान में आए विषयों की गोपनीयता को बनाए रखने की शपथ होती है. यह विवाद का विषय हो सकता है कि इस शपथ के अंतर्गत कौन से विषय आएंगे और कौन से विषय नहीं आएंगे. लेकिन यह बात तो सुनिश्चित है कि पद की मर्यादा पद पर रहने के साथ ही और पदमुक्त होने के बाद भी लागू रहती है.
जहां तक सतपाल मलिक का सवाल है उन्होंने तो राज्यपाल रहते हुए किसान आंदोलन के समर्थन में भी वक्तव्य दिया था. लोकतंत्र में जनहित के मुद्दों पर राय व्यक्त करना निश्चित ही जरूरी है लेकिन संवैधानिक पदों की मर्यादा का ध्यान रखना भी उतना ही आवश्यक है. मर्यादा जीवन की धुरी होती है. मर्यादित आचरण कई बार अप्रत्याशित लाभ नहीं दिला पाता लेकिन अमर्यादित आचरण से हासिल उपलब्धियां जीवन को आनंदित करने से ज्यादा कष्ट देने वाली साबित होती हैं.
सत-असत की नूरा कुश्ती राजनीति की सामान्य बात है. जनसामान्य के सामने सत्य लाने की कसमें खाई जाती हैं लेकिन सारे सत्य सत्ता की परम दृष्टि में खो जाते हैं. सियासी आरोप-प्रत्यारोप को अगर ध्यान से देखा जाए तो सारी सियासत सत्य-असत्य पर एक दूसरे को कमजोर करने की नींव पर खड़ी है. चारों तरफ सत्य को पाल बनाकर पदों को पकाया जाता है और फिर उसका रस लेकर जीवन आनंद कमाने का अनुभव किया जाता है. जीवन का सत और असत तो अंत में ही सार तत्व के रूप में समझ में आता है लेकिन तब हाथ में कुछ नहीं रहता है.