प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी के 44वे स्थापना दिवस पर पार्टी कैडर को अति आत्मविश्वास से बचने की नसीहत दी है. घर घर-हर हर व्यक्ति, विश्वास, अविश्वास आत्मविश्वास, अति आत्मविश्वास और अंधविश्वास से जूझ रहा है. राजनीति तो जैसे अति आत्मविश्वास की सबसे उपजाऊ भूमि है. पॉवर हमेशा विश्वास बढ़ाता है. पता ही नहीं चलता और यही विश्वास कब अति आत्मविश्वास में बदल जाता है.
पीएम मोदी का नाम बीजेपी की चुनावी सफलता का प्रतीक बन गया है. यह सब ऐसे ही नहीं हो सकता. अनुभवों की कठोर चट्टान पर जीवन निर्मित करने से जो अंतर्दृष्टि मिलती है उससे ही सत्य को देखा और महसूस किया जा सकता है. राजनीति में अति आत्मविश्वास जहर जैसा है. बीजेपी के शिखर पुरुष की नसीहत निश्चित ही हकीकत के करीब होगी. सबसे पहली बात तो यह कि उच्च स्तर पर जमीन की राजनीतिक सच्चाई की अनुभूति निश्चित ही सुधार का अवसर और प्रेरणा बनती है. बिना विश्वास के कोई सृजन संभव नहीं है. स्वयं के अतिरिक्त, स्वयं के सृजन का कोई और द्वार नहीं है. संतुलित और वास्तविक आत्मविश्वास जहां महान गुण होता है वहीं अति आत्मविश्वास जीवन में बड़ी अयोग्यता साबित होता है. नरेंद्र मोदी की नसीहत की भावनाओं को पार्टी कैडर द्वारा समझ कर अपने कदमों को साधना बीजेपी के लंबे राजनीतिक भविष्य के लिए सेतु बन सकता है.
मोदी के पहले और मोदी के बाद की बीजेपी का आकलन किया जाए तो बहुत साफ़ दिखाई पड़ता है कि मोदी नाम और मोदी काम से बीजेपी राजनीति के हिमालय पर पहुंच गई है. राजनीति की यह यात्रा जारी रखने के लिए जरूरी है कि पार्टी कैडर का राजनीतिक आचरण, व्यवहार संतुलित, मर्यादित होने के साथ ही अतिवाद से दूर रहे. प्रधानमंत्री मोदी शायद ऐसा ही संदेश बीजेपी के स्थापना दिवस पर कार्यकर्ताओं को देना चाह रहे हैं. राजनीति की जो भी बुराइयां हैं उससे बीजेपी भी अछूती नहीं कही जा सकती. तुलना करने पर यह जरूर दिखाई पड़ेगा कि प्रतिद्वंदियों की तुलना में बीजेपी बेहतर की हकदार है.
राजनीति में चुनावी सफलता और सत्ता के जरिए जनसेवा लोकतंत्र का मकसद होता है. केंद्रीय स्तर पर बीजेपी में अंतर्विरोध और टकराहट भले ही कम दिखाई पड़ती हो लेकिन राज्यों की राजनीति में बीजेपी में भी कमोबेश वैसे ही हालात हैं जैसे दूसरे दलों में होते रहे हैं. पॉवर में बैठा कार्यकर्ता ना मालूम क्यों सामान्य नहीं रह पाता. अहम की टकराहट अक्सर दिखाई पड़ती है. यहां तक कि मंत्रिमंडल में भी अलग-अलग सुर सुनाई पड़ते हैं. संगठन के लिए समर्पित होने की बजाय कार्यकर्ता नेता के प्रति अधिक समर्पण को तरक्की का जरिया मानते हैं. सत्ता की राजनीति में बीजेपी आज उत्कर्ष पर है लेकिन इसके पहले कांग्रेस भी सत्ता की राजनीति में उत्कर्ष पर रही है. अति आत्मविश्वास ही धीरे-धीरे राजनीतिक ताकत को कमजोर करता जाता है और फिर पता ही नहीं चलता कि जय कब पराजय में बदल जाती है.
कर्नाटक में चुनाव की घोषणा हो चुकी है. छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में चुनाव इसी साल होने हैं. कर्नाटक में बीजेपी के भीतर जिस तरह के अंतर्विरोध और गतिरोध दिखाई पड़ रहे हैं उससे पार्टी के सामने सत्ता में दोबारा वापसी की बड़ी चुनौती है. छत्तीसगढ़, राजस्थान में बीजेपी सत्ता में नहीं है. इसके बावजूद वहां राज्य के नेतृत्व और नेताओं के बीच सामंजस्य में कमी साफ साफ देखी जा रही है. दोनों राज्यों में तो अभी तक यह भी संदेश नहीं दिया जा सका है कि राज्य में चुनाव का नेतृत्व किसके हाथ में रहेगा. जहां तक मध्यप्रदेश का सवाल है शिवराज सिंह चौहान की पापुलैरिटी असंदिग्ध है. इसके बाद भी पार्टी अलर्ट मोड पर है . पिछले दिनों ही राज्य बीजेपी के नए कार्यालय के शिलान्यास के दौरान बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भी समन्वय और एकता को मजबूत करने का आह्वान किया था.
राजनीति सेवा का सबसे बड़ा माध्यम है. सेवा का यह माध्यम क्यों धीरे-धीरे निराशा और अविश्वास का कारण बनता जा रहा है? आज राजनीति पर आम लोगों को भरोसा कम होता जा रहा है. राजनीतिक दल एक दूसरे को भ्रष्ट साबित करने की होड़ में पूरी राजनीतिक प्रक्रिया को सवालों के घेरों में खड़ा कर रहे हैं. भ्रष्टाचार तो लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा कैंसर है. प्रधानमंत्री ने कार्यकर्ताओं को ये भी संदेश दिया है कि परिवारवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ बीजेपी की लड़ाई जारी रहेगी.
इतने बड़े देश में राजनीति और समाज की छोटी बड़ी सच्चाई प्रधानमंत्री तक पहुंचना और उस पर प्रतिक्रिया आना निश्चित रूप से लोकहित में ही कही जाएगी. सोशल मीडिया सूचनाओं के आदान-प्रदान में कारगर माध्यम के रूप में स्थापित हो गया है. प्रधानमंत्री के स्तर पर शायद सोशल मीडिया की बड़ी गंभीरता से मोनिटरिंग की जाती होगी इसीलिए सोशल मीडिया में तैरती जमीन की सच्चाई उनके चिंतन मनन में शामिल हो जाती है. लोकतंत्र में मजबूत नेता, मजबूत शासन व्यवस्था और शासन में स्थायित्व विकास की दीर्घकालीन रणनीति को कारगर ढंग से पूरा करती है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक और बहुत महत्वपूर्ण बात कही है कि चुनाव जीतना एक बात है लेकिन बीजेपी का लक्ष्य देश के नागरिकों का दिल जीतना होना चाहिए. चुनाव तो हमेशा दिल तोड़ते हैं. जब भी कहीं चुनाव की बात आती है तो एक को चुना जाता है दूसरे को नकारा जाता है. चुनने और नकारने का द्वंद दिल जोड़ता नहीं बल्कि दिल तोड़ता है. सत्ता की राजनीति भले बहुमत मांगती हो लेकिन देश दिल का जुड़ाव ही मांगता है.
भारतीय राजनीति में आज अनावश्यक मुद्दों पर न केवल समय खराब किया जाता है बल्कि जन-धन भी बर्बाद हो रहा है. देश की संसद ठप पड़ी रहती है. संसद पर करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद केवल 34 प्रतिशत समय का ही उपयोग हो पाता है. देश के राजनीतिक दिलों में दल से ज्यादा देश रहेगा तो ऐसी अप्रिय परिस्थितियां बनने से रोकी जा सकती हैं. आजकल तो राजनीति में घृणा का खुला स्वरूप साफ देखा जा सकता है. जिसको घृणा की जा रही है उसको कितना नुकसान होता है यह तो समय पर पता चलता है लेकिन जिसने घृणा की है उसे तुरंत नुकसान हो जाता है. घृणा व्यक्ति में अशांति पैदा करती है और अशांति किसी भी व्यक्तित्व को नकारात्मक एवं अनप्रॉडक्टिव बना देती है. लोकतंत्र में किसी का भी अनप्रॉडक्टिव होना देश के लिए लाभदायक कभी नहीं कहा जा सकता है.