कर्नाटक को कांग्रेस की भव्य जीत के बाद फिलहाल सीएम और डिप्टी सीएम मिल गया है. अभी तो ना नुकुर और थोड़ी बहुत नाराजगी के बाद शांति का फॉर्मूला भले ही मिल गया हो लेकिन इसमें जो ढाई-ढाई साल के सीएम की बात निकलकर आ रही है वह फॉर्मूला आज तक कहीं भी चल नहीं पाया है.
यह राजनीति में ही संभव होता है कि सीएम की कुर्सी के प्यार की टकराहट को भी आधा-आधा बांटकर एक ही चीज के लिए दो दीवानों को संतुष्ट करने का आभास किया जाता है और दिया जाता है. पॉवर और प्यार में बाँटने का फॉर्मूला आया तो कई बार है लेकिन चलता हुआ कभी भी दिखाई नहीं पड़ा. फॉर्मूले से आई राजनीतिक शांति एक दिन राजनीतिक अशांति का कारण निश्चित रूप से बनती है. कांग्रेस अगर सीएम और डिप्टी सीएम के अपने फॉर्मूले के इतिहास को खंगालेगी तो सब कुछ साफ-साफ दिखाई पड़ जाएगा.
सियासत संविधान से चलती है लेकिन कई बार सियासत ऐसे काम करती है जो संविधान में ही नहीं है. डिप्टी सीएम का पद सियासत में राजनीतिक सौदेबाजी का पद बन गया है. पॉवर शेयरिंग के लिए सभी राजनीतिक दल डिप्टी सीएम के पद का उपयोग करते देखे जाते हैं. पब्लिक को ऐसा मैसेज दिया जाता है कि सीएम के बाद डिप्टी सीएम पॉवर में दूसरे नंबर पर आता है जबकि संविधान में डिप्टी सीएम का कोई पद नहीं होता है.
संविधान के अनुसार मुख्यमंत्री की अगुवाई में कैबिनेट होती है. मुख्यमंत्री के अलावा कैबिनेट के सभी सदस्य समान होते हैं. उनकी शक्तियां और दायित्व भी समान ही होते हैं. यहां तक कि उपमुख्यमंत्री की शपथ भी नहीं दिलाई जानी चाहिए लेकिन संविधान को दरकिनार करते हुए राजनीतिक हिस्सेदारी के लिए इस असंवैधानिक पद के नाम का उपयोग खुलेआम किया जा रहा है.
यह केवल कांग्रेस का सवाल नहीं है. एक रिपोर्ट के अनुसार 16 राज्यों में डिप्टी सीएम के पद पर राजनेता क़ाबिज़ हैं. आंध्र प्रदेश में तो अलग-अलग जातियों के 5 डिप्टी सीएम बनाए गए हैं. बिहार में जेडीयू और राजद के बीच समझौते में डिप्टी सीएम का पद राजद को मिला है. उत्तरप्रदेश में बीजेपी सरकार में भी ओबीसी और ब्राह्मण समुदाय से दो डिप्टी सीएम काम कर रहे हैं. महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की सरकार में पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को डिप्टी सीएम के पद से संतोष करना पड़ा है.
कर्नाटक में सीएम और डिप्टी सीएम के फैसले के बारे में ऐलान करते हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस में कांग्रेस के नेताओं द्वारा स्पष्ट संदेश दिया गया कि सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार में बराबरी के साथ पॉवर शेयरिंग की गई है. ऐलान में यह भी कहा गया कि डीके शिवकुमार डिप्टी सीएम बनेंगे साथ ही लोकसभा चुनाव तक कर्नाटक राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष का पद भी संभालेंगे. इससे यह संकेत स्पष्ट हो रहे हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद ढाई साल के शेयरिंग फार्मूले में डीके शिवकुमार को मुख्यमंत्री बनाने का संदेश दिया गया है.
डीके शिवकुमार की प्रतिक्रिया भी इतनी जोश भरी नहीं दिखाई पड़ी जितना उम्मीद की जानी चाहिए. यहां तक कि उनके सांसद भाई ने तो इस फॉर्मूले पर नाराजगी तक व्यक्त की है. उम्मीद की जानी चाहिए कि कांग्रेस कर्नाटक की अपनी प्रचंड जीत को पचा पाएगी. जन भावनाओं के अनुरूप राज्य में पारदर्शी और ईमानदार सरकार दे पाएगी. जिन भी राज्यों में कांग्रेस में ढाई-ढाई साल का फार्मूला रखा और सीएम और डिप्टी सीएम बनाए सभी राज्यों में बाद में सीएम और डिप्टी सीएम के बीच राजनीतिक विवादों ने पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाया है.
राजस्थान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. कहा जाता है कि अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच में भी ढाई-ढाई साल के फार्मूले पर 2018 में सीएम और डिप्टी सीएम की शपथ दिलाई गई थी. उस समय भी सचिन पायलट को कांग्रेस अध्यक्ष बनाए रखने का वायदा किया गया था. राजस्थान में आज जो हालात बने हुए हैं उसमें अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच विवाद सड़क पर देखे जा रहे हैं.
सोशल मीडिया में कर्नाटक में सीएम डिप्टी सीएम के फॉर्मूले पर टिप्पणियों को अगर देखा जाए तो ऐसा कहा जा रहा है कि सचिन पायलट को कर्नाटक में दूसरा राजनीतिक भाई जल्दी ही मिल जाएगा. राजनीतिक विश्लेषक तो ऐसा मान रहे हैं कि इस बात की संभावना शायद कम ही है कि सचिन पायलट और अशोक गहलोत साथ-साथ अगला विधानसभा चुनाव लड़ पाएंगे.
जब भी पॉलीटिकल पार्टी इस तरीके का राजनीतिक फॉर्मूला अपनाकर राजनीतिक शांति लागू करने का प्रयास करती हैं तब पहले दिन से ही विवाद की शुरुआत हो जाती है. राजनीतिक अनुभवों को देखा जाए तो ऐसे मामलों में सीएम और राज्य के विपक्षी दल के बीच में अघोषित रूप से राजनीतिक तालमेल हो जाता है और डिप्टी सीएम को राजनीतिक नुकसान पहुंचाने के लिए चालें चलना शुरू हो जाती हैं.
राजस्थान में बीजेपी नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच शायद नहीं हो सकी लेकिन सचिन पायलट के खिलाफ राज्य सरकार की जांच एजेंसी द्वारा कार्यवाही प्रारंभ कर दी गई थी. इस बात को कांग्रेस आलाकमान के हस्तक्षेप से टाला गया था. शायद इसी बात की कसक में सचिन पायलट ने बीजेपी नेताओं का नाम लेकर भ्रष्टाचार की जांच पर अशोक गहलोत को घेरने के लिए अनशन और जन संघर्ष यात्रा निकालना शुरू किया है.
राजस्थान में जब ढाई-ढाई साल का फॉर्मूला लगाया गया था तब कांग्रेस आलाकमान मजबूत माना जा रहा था. अब तो आलाकमान की स्थिति मजबूत ही नहीं रही है. कर्नाटक में सीएम और डिप्टी सीएम के बीच राजनीतिक विवादों को रोके रखना कांग्रेस के राजनीतिक भविष्य के लिए जरूरी है.
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव के बीच में भी ढाई-ढाई साल के फॉर्मूले की बात सामने आई थी लेकिन वह परवान नहीं चढ़ सकी। सिंहदेव राजनीतिक रूप से विधायकों के समर्थन में शायद कमजोर साबित हो रहे हैं लेकिन राजनीतिक असंतोष तो छत्तीसगढ़ में पैदा हो ही रहा है.
डिप्टी सीएम का पद संविधान के अंतर्गत निर्धारित नहीं है. राजनीतिक दलों की सियासत में नेताओं और जातियों को संतुष्ट करने के लिए इस पद का उपयोग लंबे समय से किया जा रहा है. मध्यप्रदेश में तो दिग्विजय सरकार के कार्यकाल में ही 2-2 उपमुख्यमंत्री बनाए गए थे. राजनीतिक विवाद को थामने के लिए बनाए गए डिप्टी सीएम के सियासी पद से विवाद रुकने की बजाय बढ़ते हुए दिखाई पड़ते हैं.
कर्नाटक में भी दलित वर्ग के नेता यह मांग कर रहे हैं कि उन्हें कम से कम उपमुख्यमंत्री तो बनाया ही जाना चाहिए. इसके पहले जब कांग्रेस की सरकार कर्नाटक में थी तब वह नेता डिप्टी सीएम रह चुके हैं. डीके शिवकुमार एक से अधिक डिप्टी सीएम बनाए जाने के खिलाफ हैं. इसलिए दूसरी जातियों के जो नेता डिप्टी सीएम बनने का सपना देख रहे थे उनमें भी असंतोष पनपना स्वाभाविक है.
डिप्टी सीएम का जो पद ही संविधान के अंतर्गत नहीं है उस पद का सियासी संतुलन के लिए उपयोग संवैधानिक प्रावधानों को असंतुलित कर रहा है. सत्ता के मद और बराबर पॉवर शेयरिंग के विवाद सरकारों की जनहितैषी भूमिका को ही प्रभावित करने लगे हैं. सत्ता के स्टेक होल्डर सत्ता के मोह में जनभावनाओं से दृष्टि हटाकर पॉवर के आनंद को लेने में मस्त हो जाते हैं. सीएम और डिप्टी सीएम तथा ढाई-ढाई साल सीएम का फॉर्मूला सियासत के सत्ता मोह को ही दिखाता है. संविधान से ऊपर सियासत को महत्व देना लोकतंत्र की भावनाओं का सम्मान नहीं कहा जाएगा.