कुछ भी कह देने वालों के लिए ही, सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया है कि “वे घृणा फैलाने वालों के खिलाफ तत्काल प्रभाव से खुद मुकदमा दर्ज करें, चाहे इस बाबत कोई शिकायत दर्ज न भी करे।
कुछ भी कह देने वालों के लिए ही, सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया है कि “वे घृणा फैलाने वालों के खिलाफ तत्काल प्रभाव से खुद मुकदमा दर्ज करें, चाहे इस बाबत कोई शिकायत दर्ज न भी करे।“ वैसे यह पहली बार नहीं है कि शीर्ष अदालत ने देश की गंगा-जमुनी संस्कृति को ठेस पहुंचाने की कोशिशों को लेकर अप्रसन्नता जाहिर की हो। यहां तक कि पिछले माह इस तरह की अभद्र भाषा को एक ‘दुश्चक्र' बताया था।
देश के नागरिक लम्बे समय से राजनेताओं व कार्यकर्ताओं के अभद्र भाषा वाले बयान से परेशान होते आए हैं। देश का जनमानस यह देखकर परेशान तो था लेकिन कुछ करने की स्थिति में नजर नहीं आया। घृणा फैलाने वाले बयानों की लगातार हो रही आवृत्ति को देखकर चिंतित सुप्रीम कोर्ट को राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को उपर्युक्त निर्देश जारी करना पड़ा।
पिछले माह भी इस तरह की अभद्र भाषा को एक ‘दुश्चक्र' बताते हुए अचरज व्यक्त किया था कि अब तक देश के राज्य इस तरह की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए कोई कारगर तंत्र क्यों विकसित नहीं कर पाए?
निस्संदेह, किसी भी समृद्ध लोकतंत्र के लिये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपरिहार्य है। जो किसी समाज को जीवंत बनाये रखने तथा पुष्पित-पल्लवित करने के लिए जरूरी शर्त है। यह हमारा संवैधानिक अधिकार भी है। संविधान का अनुच्छेद 19(1)ए सभी नागरिकों को भाषण तथा अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी भी देता है, लेकिन यह आजादी स्वच्छंद व्यवहार की अनुमति नहीं देती।
दूसरी ओर संविधान का अनुच्छेद 19(2) राज्य को सात आधारों पर निरंकुश अभिव्यक्ति पर जरूरी अंकुश लगाने के लिये कानून का उपयोग करने के लिये अधिकृत भी करता है। यदि किसी की अभिव्यक्ति से देश की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के प्रति उकसाने की कोशिश होती है तो राज्य को दखल देने का अधिकार मिला है। कहने का अभिप्राय: यह है कि हमें अभिव्यक्ति की आजादी तो मिली है,लेकिन वह असीमित नहीं है। जरूरत पड़ने पर उसे नियंत्रित किया जा सकता है।
हाल के दिनों में मुख्य समस्या धर्म व राजनीति के घालमेल से उत्पन्न हुई है। यह भी तथ्य है कि अभद्र भाषा की कोई सटीक परिभाषा नहीं होती, यही वजह है कि राजनेता अपने बयानों की सुविधानुसार व्याख्या करके अपने बचाव के रास्ते तलाश लेते हैं।
मुसीबत यह भी है कि अकसर राज्य भारतीय दंड संहिता और अन्य कानूनी प्रावधानों को लागू करने के लिये राजनीतिक हितों के चलते पक्षपातपूर्ण तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। जिसके चलते नफरत फैलाने वाले बचाव के रास्ते निकाल लेते हैं।
दरअसल, सही अर्थों में अभिव्यक्ति की आजादी के मायने हैं उन विचारों की आजादी जो एक स्वस्थ बहस और बौद्धिक विमर्श का संवर्धन करते हैं। वैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करने पर किसी पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। लेकिन यदि द्वेषपूर्ण भाषण की प्रकृति समाज में अलगाव के बीज बोती नजर आती है, तो उसे दंडात्मक प्रावधानों के जरिये नियंत्रित किया जा सकता है।
इस तरह के बयान समाज में वैमनस्य और हिंसा को बढ़ावा देते हैं। संयुक्त राष्ट्र की अभद्र भाषा पर रणनीति और कार्य योजना के अनुसार, वह भाषण जो किसी व्यक्ति या समूह पर जातीय मूल, धर्म, नस्ल, विकलांगता, यौन स्वरूप पर हमला करता है तो वह अपराध की श्रेणी में माना जा सकता है। वहीं सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस बाबत दिया गया आदेश स्वागत योग्य है कि बिना शिकायत के प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए, लेकिन दूसरी ओर पुलिस को बिना शिकायत के अभद्र भाषा का प्रयोग करने वालों पर मुकदमा दर्ज करने का आदेश कई तरह की चिंताओं को भी बढ़ाता है।
आशंका जतायी जा रही हैं कि कहीं अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिये राज्य सरकारें इस छूट का दुरुपयोग न करने लगें। आशा की जानी चाहिए कि इस तरह की आशंकाओं को देखते हुए शीर्ष अदालत फैसले पर मंथन करेगी। विशेषकर इस साल होने वाले कुछ विधानसभा चुनावों और आम चुनाव से पहले ऐसी पहल होगी तो उसका सकारात्मक प्रतिसाद मिलेगा।