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प्रतिनिधित्व का लक्ष्य हासिल, समानता दुर्लक्ष्य 

सार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक ने आरक्षण पर बड़ी बात कही है कि जब तक समाज में भेदभाव और असमानता रहेगी तब तक आरक्षण की व्यवस्था जारी रहेगी. इस पर कोई बहस भी नहीं है. वंचित वर्गों को लोकतंत्र और सेवाओं में समान प्रतिनिधित्व के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी. यह प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो रहा है और इसे आगे भी जारी रखने के विरोध में कोई सोच विचार भी नहीं हो सकता है..!

janmat

विस्तार

प्रश्न यह है कि आरक्षण से भेदभाव और असमानता कम हो रही है या आरक्षण की ‘आदिस्मृति’ के कारण इन्हीं आरक्षित वर्ग में ही भेदभाव और असमानता की नई प्रवृत्ति बढ़ रही है. आरक्षित वर्गों में आरक्षण का लाभ लेकर राजनीति या सेवाओं में प्रतिनिधित्व करने वालों का एक श्रेष्ठ वर्ग विकसित हो गया है. आरक्षित वर्गों का धनाढ्य और शिक्षित तबका ही आरक्षण का लाभ हासिल कर आगे बढ़ रहा है. आरक्षित वर्ग में भी बेरोजगारी है. आरक्षण का लाभ आरक्षित वर्ग के सभी लोगों में समानता के साथ वितरित हो रहा है इसकी पड़ताल और समीक्षा करना बहुत जरूरी है.

आरक्षण की समीक्षा की बात कई बार आती है लेकिन इसका पुरजोर विरोध पूरे समाज के नाम पर आरक्षण से लाभान्वित तबका करने लगता है. सतही दृष्टि से भी देखा जाए तो चाहे राजनीति हो चाहे अखिल भारतीय सेवाएं हों चाहे राज्य की प्रतिष्ठित सेवाएं हों, सब जगह कुछ चुने हुए परिवार और तबके के लोग आरक्षण का लाभ लेकर अग्रणी पंक्ति में पहुंच गए हैं. आरक्षित वर्ग से किसी का भी आगे बढ़ना प्रसन्नता की बात हो सकती है लेकिन आरक्षण का लाभ कुछ खास तबके को ही बार-बार मिलता रहे इससे तो आरक्षण के बुनियादी लक्ष्य को हासिल करना संभव नहीं लगता है.

राजनीतिक जगत में किसी भी राज्य में आरक्षित सीटों पर जो भी सफल राजनीतिक चेहरे दिखाई पड़ते हैं वह सब परिवारिक ढंग से पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण का लाभ उठाकर आगे खड़े हुए हैं. आरक्षित वर्ग से कभी सबसे बड़े नेता के रूप में जगजीवनराम को देखा जाता था. उनका परिवार आज भी राजनीति की मुख्य भूमिका में है. कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और कर्नाटक सरकार में उनके बेटे मंत्री के रूप में पहुंचे हैं तो आरक्षण का ही लाभ परिवार ने उठाया है. 

सबसे बड़ा सवाल यह है कि किसी भी व्यक्ति को आरक्षण का जब एक बार लाभ मिल गया है तो उसी व्यक्ति के परिवार के किसी अन्य व्यक्ति को दोबारा यह लाभ क्या दिया जाना चाहिए? आरक्षित वर्ग में जो लोग एक बार बराबरी के मौके हासिल करने के लिए आरक्षण का लाभ लेकर आगे पहुंच गए हैं उनकी ही क्षमता बार-बार उसी लाभ को लेकर आरक्षण का प्रतिनिधित्व तो पूरा कर सकता है लेकिन पूरे वर्ग में भेदभाव असमानता को दूर करने का नजरिया इस तरह कैसे पूरा होगा? भारत में आदिवासी आज भी सबसे वंचित तबके के रूप में देखे जाते हैं. कहने के लिए तो भारत की राष्ट्रपति भी आदिवासी महिला हैं. प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व से समाज में भेदभाव और असमानता कैसे दूर होगी?

 यह तो कुछ उदाहरण हैं. किसी भी राज्य में सरकारी तौर पर देखने पर पता चल जाएगा कि अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के निर्वाचित प्रतिनिधियों के जो चेहरे स्थापित और सरकार में दिखाई पड़ते हैं वह सब कुछ खास परिवार और तबके के ही हैं. जब आरक्षित समाज में इस प्रकार की व्यवस्था को अंजाम दिया जाएगा कि आरक्षण का लाभ एक बार ही मिलेगा तो फिर हर बार नए नए लोगों को आगे आने का अवसर मिलेगा. इससे भेदभाव दूर करने और समानता के लक्ष्य को हासिल करने में सुविधा होगी.

अखिल भारतीय और राज्य की सेवाओं में भी इसी प्रकार की परिस्थितियां विद्यमान हैं. ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जहां आरक्षित वर्ग के कुछ खास परिवार या तबके के लोग ही आरक्षण का लाभ लेकर उच्च पदों पर पहुंचे हैं. एक बार उच्च पदों पर बैठे आरक्षित वर्ग के लोगों के परिवार को सेवाओं में फिर से आरक्षण का लाभ देना क्या न्याय संगत माना जाएगा? ऐसे भी उदाहरण देखने को मिल जाएंगे जहां खास परिवार के दर्जनों लोग आरक्षण का लाभ उठाकर वरिष्ठ पदों पर पहुंचे हैं फिर भी उनके परिवार को आरक्षण का लाभ मिल रहा है.

राजनीति में तो आरक्षित वर्ग में अति पिछड़े और वंचित लोगों के समूह उभर रहे हैं लेकिन आरक्षण का लाभ एक ही बार देने की जब भी बात होती है तो आरक्षित वर्ग से लाभान्वित लोग ही इसका विरोध करने लगते हैं. जातिगत जनगणना आज सियासी विषय बन गया है. जब जातिगत जनगणना किया जाना जरूरी ही है तो फिर आरक्षित वर्ग में भी विभिन्न जातियों की भागीदारी का सर्वेक्षण भी किया जाना चाहिए. जिस तबके की भागीदारी कम हो उसे आरक्षण का लाभ सुनिश्चित किया जाना चाहिए. इसके साथ ही लाभ लेने वाले परिवार के किसी अन्य व्यक्ति को आरक्षण का लाभ दोबारा नहीं दिया जाना चाहिए. ऐसे लोगों को मेरिट में कम्पीट करने के लिए संसाधनों और सुविधाओं की प्राथमिकता के साथ प्रतियोगिता में सक्षम बनाने के लिए नीति निर्धारित करना चाहिए.

शास्त्र और स्मृतियों को गाली देकर समानता की कल्पना नहीं की जा सकती. गैर बराबरी दूर कर बराबरी के लिए दुनिया में जो भी क्रांतियां हुई हैं वह सब बाद में नए तरह के भेदभाव को जन्म देने वाली साबित हुई हैं. साम्यवाद इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. महाशक्ति रूस में जब साम्यवाद में धन-संपत्ति की समानता की क्रांति का सूत्रपात किया था तब क्या किसी ने सोचा था कि कालांतर में समानता कि यह नई स्थिति नई असमानता को जन्म देगी? नई असमानता शासक और शासित की पैदा हो गई और यह असमानता पहले की असमानता से ज्यादा गंभीर और खतरनाक रूप में सामने आई.

आरक्षण की संविधान द्वारा दी गई शक्ति अमृतकाल में पहुंच गई है. वंचितों और शोषितों को 75 साल में समानता का एहसास मिला या आरक्षित वर्ग में असमानता का नया वर्ग पैदा हो गया है? अभी तो ऐसा ही लग रहा है कि आरक्षण का लाभ उठाने वाले और आरक्षण के लाभ से वंचित लोगों के दो वर्ग आरक्षित समाज में ही बन गए हैं. यह विभाजन लगातार बढ़ता जा रहा है. दूसरे समाज का व्यक्ति करें तभी वह शोषण है और अपने समाज का ही व्यक्ति शोषण करें तो उसे पोषण तो नहीं कहा जा सकता?

आरक्षण है, आरक्षण रहेगा लेकिन आरक्षण का लाभ कितनी बार मिले? आरक्षित वर्ग के हर परिवार को कैसे इसका लाभ मिले?  भेदभाव और असमानता कैसे दूर हो? इस पर चिंतन सरकारों को तो करना ही चाहिए साथ ही आरक्षित वर्ग के उन लोगों पर ज्यादा जवाबदारी है जिन्हें समाज को मिले आरक्षण का लाभ उठाकर जीवन में आगे बढ़ने का मौका मिला है.

अस्तित्व का विधान है कि अस्तित्व से जो मिला है उससे जरूरत पूरी करें  और पुनर्जीवित करने की अस्तित्व की शक्ति का संवर्धन भी करते रहें. सबके लिए समानता का लक्ष्य और मिशन आरक्षण से नहीं आचरण से ही हर जीवन में उतारना संभव होगा.