राजा-महाराजा तो अब रहे नहीं, रियासत के जमाने में राजा-महाराजा के महलों का डंका जैसे बजता था वैसा ही डंका सरकारी बंगलों का बज रहा है. जनता के पैसे से बने सरकारी बंगलों तक जनता का ही पहुंचना दूभर हो गया है. सरकारी बंगलों की सियासत नई नहीं है. रियासत के आधुनिक सूबेदार, सरकारी बंगलों को महल बनाने के लिए जब जनधन उड़ाते हैं और जन दर्द से दूर, स्वहित में चूर दिखाई पड़ते हैं तब सवाल भी उठते हैं और मलाल भी होता है..!
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सरकारी बंगले के रिनोवेशन पर ₹45 करोड़ रुपए खर्च होने के सार्वजनिक होने के बाद बवाल मच गया है. जो अरविंद केजरीवाल कभी शपथ लेकर यह दावा कर रहे थे कि वह जन-धन का उपयोग निजी हित के लिए नहीं करेंगे उनके निवास के लिए सरकारी बंगले पर जिस ढंग से पैसे लुटाए गए हैं उससे राजनीति में कथनी और करनी की असलियत सामने आ गई है.
डेमोक्रेसी में पॉवर सेंटर सरकारी बंगले वह स्थान होते हैं जहां न्याय और अन्याय के इतिहास रचे जाते हैं. जहां जनहित के नाम पर स्वहित का सृजन किया जाता है. सरकारी बंगले सियासत के लिए खुलेआम उपयोग और दुरुपयोग किए जाते हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री को अपने सरकारी निवास के रिनोवेशन पर खर्च की गई इस भारी रकम का जवाब देना पड़ेगा. उन्होंने अभी तक जो राजनीतिक परसेप्शन बनाया था उसमें सादगी उनकी बड़ी ताकत के रूप में जनता को प्रभावित कर रही थी. सरकारी बंगले पर जन धन की बर्बादी के यह नजारे तो उनकी सादगी को भी सवालों के घेरे में खड़ा कर रहे हैं.
वैसे तो रिनोवेशन के नाम पर हर साल सभी राज्यों में पैसा खर्च किया जाता है. रिनोवेशन पर खर्च राशि को लेकर राजनीतिक विवाद भी अक्सर होते रहते हैं. मध्यप्रदेश में लगभग विधानसभा के हर सत्र में कैबिनेट के सदस्यों के सरकारी बंगलों पर रिनोवेशन पर किए गए खर्च से जुड़े सवाल आते हैं. पूछे गए सवालों का सरकार उत्तर देती है और फिर मीडिया में उस पर खबरें बनती हैं और राजनीतिक बयानबाजी की औपचारिकता पूरी की जाती है.
सरकारी बंगलों के रिनोवेशन पर सीमित और संतुलित व्यव ही स्वीकार्य होना चाहिए. सरकारों के पास उपलब्ध रिनोवेशन बजट का अधिकांश हिस्सा पॉवर सेंटर बने सरकारी बंगलों पर ही खर्च होता है. सरकारी आवास सामान्यतः सरकारी अधिकारी कर्मचारी और सरकारी पदों पर काम रखने वाले राजनीतिक लोगों के लिए बनाए गए थे. विधायकों और सांसदों के लिए अलग से विधायक और सांसद विश्रामगृह बनाए गए हैं.
सरकारी बंगलों की सियासत का लंबा सिलसिला है. आज तो ऐसी स्थिति दिखाई पड़ती है कि सरकारी लोगों से ज्यादा गैर सरकारी लोग सरकारी आवासों की सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं. कोई सामान्य सरकारी कर्मचारी-अधिकारी, सरकारी मकानों का रिनोवेशन कराने का तो सोच भी नहीं सकता. प्रक्रिया इतनी जटिल है कि रिनोवेशन कराना संभव नहीं हो पाता. रिनोवेशन का सारा बजट पॉवर सेंटर बने बंगलों पर ही उपयोग होना सामान्य बात है.
किसी भी राज्य में अगर रिनोवेशन पर खर्च राशि का विवरण निकाला जाएगा तो यही पता चलेगा कि अधिकांश राशि पॉवर सेंटर वाले बंगलो पर ही खर्च होती है. सरकारी बंगलों में रिनोवेशन का कार्य सत्ता में ताकत का पैमाना बन गया है. उन्ही बंगलो का रिनोवेशन होता हुआ दिखाई पड़ेगा जिनकी सत्ता में चलती है, चाहे वह राजनेता हों या ब्यूरोक्रेट हों.
सियासत में सरकारी बंगलो पर काबिज़ होना बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जाता है. हर राजनेता इस प्रयास में रहता है कि उसे सबसे महत्वपूर्ण बंगला आवंटित हो जाए. मध्यप्रदेश के नजरिए से देखा जाए तो पूर्व मुख्यमंत्रियों को न्यायालय के आदेश पर सरकारी बंगले रिक्त करने पड़े थे लेकिन बाद में फिर सरकारी बंगले आवंटित हो गए. ऐसे कई नेता देखे जा सकते हैं जो दिल्ली और भोपाल दोनों जगह पर सरकारी बंगलों में काबिज हैं.
ऐसे भी उदाहरण हैं जहां नेता दो बंगलों पर काबिज है. सांसदों को दिल्ली में आवास आवंटित होता है. भोपाल में कई सांसदों को सरकारी बंगले आवंटित हैं. सरकारी बंगले ताकत और प्रतिष्ठा के रूप में देने-लेने की प्रवृत्ति राजनीति में हावी हो गई है.
कमलनाथ की सरकार के समय ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ विवाद की शुरुआत के रूप में एक सरकारी बंगले को भी जोड़ा गया था. उस समय सिंधिया एक बंगला आवंटित कराना चाहते थे लेकिन वह बंगला बीजेपी सरकार के पूर्व मंत्री के पास था और वह बंगलाआवंटित नहीं हो सका. बाद में ज्योतिरादित्य सिंधिया को भोपाल में बंगला आवंटित किया गया. पद से हटने के बाद भी बंगले कब्जे में रखने की राजनीति सतत चलती रहती है.
सरकारी बंगले जनसेवा के केंद्र बनने चाहिए लेकिन वहां ना जनता की पहुंच होती है और ना सेवा का कोई मेवा दिखाई पड़ता है. सरकारी बंगलों की राजनीति का सबसे बड़ा उदाहरण अभी देश ने देखा है. संसद की सदस्यता गंवाने के बाद राहुल गांधी को अपना सरकारी बंगला छोड़ना पड़ा है. सरकारी बंगला छोड़ने को भी राजनीतिक नजरिए से न केवल देखा गया बल्कि उसका राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की गई.
सरकारी साधन सुविधाओं का उपयोग निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को कार्य संचालन के लिए जरूरी हो सकता है लेकिन भारत जैसे गरीब देश में सरकारी संसाधनों का तर्कसंगत उपयोग ही मान्य किया जा सकता है. रिनोवेशन के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च कर शहंशाही के साथ जीवन यापन की बढ़ती प्रवृत्ति लोकतांत्रिक दृष्टि से सही नहीं कही जा सकती. जीवन में दृष्टि ही सृष्टि है. जनहितेषी दृष्टि कभी भी जनधन के दुरुपयोग की दृष्टि नहीं हो सकती है.