सिंहस्थ के आयोजन के समय बीजेपी की सरकार होने का इतिहास है. यह पहला अवसर है जब उज्जैन के प्रतिनिधि मुख्यमंत्री के रूप में इस आयोजन की तैयारी को अंजाम दे रहे हैं..!!
सिंहस्थ के दौरान किसानों की जमीन स्थायी निर्माण के लिए लैंड पूलिंग एक्ट के तहत लेने के सरकारी फैसले का व्यापक विरोध हुआ. आरएसएस से जुड़े किसान संघ ने इसके लिए बाकायदा आंदोलन किया. यह पहला मामला है जिसके लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली में मुख्यमंत्री और इसके लिए जिम्मेदार हर स्तर के अफसर के साथ मीटिंग की.
लंबी कवायद के बाद सीएम मोहन यादव ने सिंहस्थ लैंड पूलिंग एक्ट वापस लेने का ऐलान किया है. इस ऐलान के बाद दिल्ली जाकर उन्होंने गृह मंत्री से मिलकर इस विषय के तथ्यों से अवगत कराया है.
लैंड पूलिंग एक्ट के तहत स्थायी निर्माण के लिए किसानों की जमीन ली जा रहीं थी. इसके अंतर्गत किसानों को आधी जमीन वापस दी जाती. आधी जमीन पर स्थायी निर्माण किए जाते. इसके लिए स्प्रेयुचियल सिटी का सपना दिखाया गया.अभी तक आयोजन में किसानों की जमीन सिंहस्थ एक्ट के तहत अधिग्रहित की जाती थी. उन्हें नियम अनुसार मुआवजा मिलता था.
जब मुख्यमंत्री उज्जैन से बने तब यह उम्मीद करना स्वाभाविक है कि, संत समाज और किसानों को जहां सुविधा मिलेगी वहीं उनके हितों का पहले से अधिक ध्यान रखा जाएगा. जमीन किसानों का जीवन होती है. सरकारों द्वारा जमीनें लेकर फिर उसका उपयोग और दुरुपयोग कोई नई बात नहीं है.
आस्था का महापर्व किसी प्रकार के विवाद से जुड़े यह ना सरकार की मंशा होगी और ना ही आस्थावान मध्य प्रदेश के लोगों की. नीति भले ही विचार के स्तर पर मुख्यमंत्री ने या किसी और ने सोची हो लेकिन उसका क्रियान्वयन तो ब्यूरोक्रेटिक स्तर पर ही किया जाता है. लैंड पूलिंग मामले में भी जब सोचा गया था, तब क्या किसानों के हितों की अनदेखी की गई.
महाकाल ज्योतिर्लिंग की नगरी में लैंड पूलिंग का संकट छाया हुआ था तो ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग की नगरी में ममलेश्वर लोक निर्माण की योजना के कारण नगर आंदोलनरत था. सरकार द्वारा अड़तालीस घंटे में वापस लिया यह बताता है कि, जन भावनाओं के प्रति सरकार सजग दिखती है लेकिन इसका दूसरा पहलू ज्यादा खतरनाक है.
ऐसी योजनाएं बनाई ही क्यों जाती हैं, जिनका जनमानस विरोध करती है. सरकार की सोच विचार और चिंतन में जहां जनहित सबसे ऊपर होना चाहिए, वहां ऐसा देखा जा रहा है कि, योजनाओं के पीछे कुछ स्वार्थ काम करते हैं.
लैंड पुलिंग और ममलेश्वर लोक से जुड़े सरकार के फैसले का तो खुलकर विरोध हो रहा था. धार्मिक नगरी उज्जैन तो मुख्यमंत्री का गृहक्षेत्र है. कोई भी जनप्रतिनिधि अपने गृहक्षेत्र में जन असंतोष बढ़ाने वाली नीतियों, योजनाओं और बातों पर हमेशा सतर्क रहता है. तो क्या यह माना जा सकता है कि यह दोनों निर्णय ब्यूरोक्रेटिक प्रक्रिया की उपज हैं.
सरकारों द्वारा फैसला अगर गंभीर विचार विमर्श और जनहित के आधार पर लिए जाते हैं तो फिर उनके विरोध की गुंजाइश कम ही रहती है. इन दोनों मामलों में विरोध के पीछे राजनीति भी दिखाई नहीं पड़ती है. इनका विरोध तो स्थानीय लोग और संत समाज कर रहा था. सिंहस्थ के दिव्य और भव्य आयोजन के लिए सरकार के साथ ही राज्य के लोग भी न केवल उत्सुक हैं बल्कि समर्पित भी हैं.
आस्था का यह आयोजन विश्व में मध्यप्रदेश की छवि गढ़ता है. सिद्धांत के तहत तो राजनीतिक और प्रशासकीय सत्ता जन-सेवा के लिए है. लेकिन व्यवहार रूप में इसका प्रकटीकरण कम ही अवसरों पर होता है. राजनीतिक तंत्र तो भले ही जनता के प्रति सचेत हो क्योंकि उसे हर पांच साल में जनादेश के लिए जाना पड़ता है लेकिन प्रशासकीय तंत्र तो जन-अपेक्षाओं को प्रायोरिटी में नहीं रखता.
कमजोर ब्यूरोक्रेसी लोक सेवा के मापदंडों को प्रभावित कर रही है. अधकचरा और कमजोर फैसला गहन विचार विमर्श के बगैर लिए जाते हैं. जब विरोध बढ़ता है, तब ऐसे फैसले वापस ले लिए जाते हैं.
ऐसे फैसले तो वापस लिए जा सकते थे लेकिन ब्यूरोक्रेसी के उन प्रयोगों का क्या होगा जहां 90 डिग्री का ओवर ब्रिज बन गया है. राजधानी में ही मेट्रो रूट को इतना नीचे बना दिया गया है कि, बड़ी गाड़ियों का निकलना मुश्किल हो गया है. अब सड़क को गड्ढ़ा कर इस गलती को ठीक करने की कोशिश हो रही है.
प्रशासकीय तंत्र ना अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीर दिखता है और ना ही अकाउंटीबिलिटी लेने के लिए तैयार. ऐसी हालत में फैसला वापस लेने की ऐसी ही गति दिखाई पड़ेगी.
मीडिया रिपोर्ट्स में जो मैसेज आ रहे हैं, उससे तो यही लग रहा है कि, लैंड पूलिंग एक्ट की वापसी का फैसला केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के हस्तक्षेप के बाद लिया गया है. अगर ऐसा है तो फिर यह प्रसन्नता का विषय है कि राष्ट्रीय नेतृत्व जनहित के मुद्दों पर गंभीरता से सोचता विचारता और सुनता है. राज्य सरकार के कार्य संचालन नियमों के अनुसार सिंहस्थ का आयोजन नगरीय प्रशासन विभाग के अंतर्गत आता है.
पॉलिटिक्स और ब्यूरोक्रेसी में लैंड पूलिंग जैसा लेग पुलिंग भी एक बड़ी समस्या है. तथ्यों को अपने-अपने हिसाब से पेश किया जाता है. सिंहस्थ में लैंड पूलिंग तो वापस हो गई है लेकिन लेग पुलिंग ऑपरेशनल है. यह ऐसा ऑपरेशन है जो सतत चलता है. ना यह वापस होता है और ना ही रूकता है.
इन फैसलों की वापसी प्रशासकीय तंत्र के लिए एक सबक है कि, निर्णय लेने के पहले जनहित के साथ ही सभी पहलुओं को गहराई से सोच लिया जाए. फैसलों का वापस लेना सरकारों की इमेज खराब करता है.