ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को कोरोना प्रोटोकॉल का उल्लंघन करने के लिए जांच में दोषी पाया गया है. भारत की ब्यूरोक्रेसी के लिए यह चौंकाने वाली खबर है. क्योंकि ब्रिटिश प्रधानमंत्री की जांच हमारे देश के कैबिनेट सचिव और दिल्ली पुलिस स्तर के ब्रिटिश समकक्षों द्वारा की गई और दोषी पाया गया. अब ब्रिटिश पुलिस प्रधानमंत्री सहित सभी 50 दोषियों को जुर्माने का नोटिस भेज रही है..!
भारत की ब्यूरोक्रेसी, आईएएस और आईपीएस के सिस्टम में ऐसा होना अकल्पनीय है| ब्यूरोक्रेसी का ब्रिटिश स्वरूप, सिस्टम के प्रति उनकी इंटीग्रिटी और पब्लिक में उनके सम्मान का अनुमान लगाइए| जब ब्रिटिश प्रधानमंत्री की कथित “पार्टी-गेट” की जांच वहां की ब्यूरोक्रेसी ने शुरू की थी, तब ब्रिटेन की संसद के एक भी सदस्य ने यहां तक की एक विपक्षी सांसद ने भी जांच की सत्यता पर कोई संदेह नहीं जताया|
ये है ब्रिटिश ब्यूरोक्रेसी का सम्मान| अब हम भारत की उच्च ब्यूरोक्रेसी “आईएएस” के हालात पर नजर डालते हैं| आज देश में यह चर्चा होने लगी है कि क्या आईएएस अफसरों ने देश को फेल किया है? क्या आईएएस अफसरों ने देश को मायूस किया है? देश के संघीय और राज्यों के शासन पर आईएएस अफसरों का ही कब्जा होता है|
गरीबों के कल्याण और विकास के नाम पर जो भी योजनाएं बनती और चलती हैं, उस सभी की जिम्मेदारी इन्हीं अफसरों पर होती है| आज योजनाओं की असफलता सर्वविदित है| आजादी के बाद से ही आज तक अनेक जन नेताओं ने यह दर्द उजागर किया है कि दिल्ली से चलने वाले एक रुपए का 15% ही जमीन पर पहुंचता है| प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संसद में देश में बढ़ती बाबू संस्कृति पर सवाल उठाया है|
अंग्रेजों के समय की आईसीएस सेवाओं के उत्तराधिकारी आईएएस सेवाओं की आज वह क्रेडिबिलिटी क्यों नहीं है? इस सेवा का जिक्र होते ही, लाल बत्ती और रूतबा जेहन में आता है| इस सेवा के अफसरों के प्रति अब वह धारणा नहीं रही है| एक वक्त था जब इस सेवा के अफसरों को बेहद सम्मान भरी नजरों से देखा जाता था| आज जो धारणा बनी है, वह एलिट क्लास के बड़े अफसर, सेवा से ज्यादा अपना हित चाहने वाले, यथास्थितिवादी, नौकरशाहों के समूह की है, जो वास्तविकता से दूर हैं और जो अपने विशेष अधिकारों के साथ सोशल स्टेटस में जीते हैं|
आईएएस अधिकारी रहे आरबीआई के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव ने टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित अपने आलेख में लिखा है कि जनता की नजरों में आईएएस ने सही के पक्ष में खड़े होने का साहस भी खो दिया है| पूर्व आईएएस अधिकारी कहते हैं कि पहले ऐसा नहीं था| 1970 के दशक के मध्य में जब वे नए-नए सेवा में आये थे उस वक्त जब किसी घोटाले या कांड पर विपक्ष की ओर से सरकार पर हमले होते थे, तब मुख्यमंत्री विधानसभा में खड़े होकर घोषणा करते थे कि वह आईएएस अधिकारी से मामले की जांच कराएंगे| सदन में हंगामेदार बहस को खामोश करने के लिए यह एक घोषणा काफी होती थी| लेकिन आज हालात बदल चुके हैं| सुब्बाराव लिखते हैं कि आज अगर कोई सीएम ऐसा कहता है तो उस पर और शोरगुल मच जाता है|
ब्रिटिश काल के आईसीएस के उत्तराधिकारी के तौर पर आईएएस अस्तित्व में आए तो इसे राष्ट्र निर्माण की दिशा में बड़ी पहल माना गया| वह भी ऐसे समय में जब लोग गरीब थे| समाज अशिक्षित था और देश लोकतंत्र की राह पर बढ़ रहा था| कृषि विकास, भूमि सुधार, सिंचाई परियोजनाओं का निर्माण, उद्योग विकास, स्वास्थ्य और शिक्षा में सुधार, सामाजिक न्याय और कानून का शासन लागू करने के लिए आईएएस को एक डिलीवरी के तौर पर देखा गया था|
शुरुआत में आईएएस अधिकारियों ने भी इस महा अभियान को फ्रंट पर रहकर लीड किया और ग्राउंड जीरो पर एक शानदार विकास प्रशासन का नेटवर्क खड़ा किया| इसकी बदौलत देश में आईएएस पद ने जनता के बीच अच्छी साख बनाई| बाद में धीरे-धीरे यह प्रतिष्ठा घटने लगी, आईएएस ने अपनी खासियत खो दी| कौशल की कमी, उदासीनता और भ्रष्टाचार ने इस पद की गरिमा को बहुत नुकसान पहुंचाया|
हालांकि यह नेगेटिव इमेज कुछ अधिकारियों के कारण बनी, लेकिन यह संख्या भी कम नहीं है| सुब्बाराव लिखते हैं,कि एक बार एक मुख्यमंत्री ने उनसे कहा था कि उनके अधीन काम करने वाले आईएएस अधिकारियों में करीब 25 फ़ीसदी असंवेदनशील, भ्रष्ट या अयोग्य हैं| 50% लोग खुशी-खुशी बिना काम “चैन” की नौकरी कर रहे हैं|
बाकी बचे सिर्फ 25% लोगों पर ही उन्हें काम के लिए निर्भर रहना पड़ता है| आईएएस को क्या यह बेचैन नहीं करता? भर्ती परीक्षा, इंडक्शन ट्रेनिंग, सर्विस में ट्रेनिंग, स्व सुधार के लिए सीमित अवसर, सख्त कैरियर प्रबंधन को आमतौर पर बलि का बकरा बनाया जाता है| निश्चित तौर पर इन क्षेत्रों में सुधार की गुंजाइश है|
सुब्बाराव के अनुसार आईएएस कैडर की सबसे बड़ी समस्या प्रोत्साहन और दंड की एक त्रुटिपूर्ण प्रणाली है| इस सेवा में आने वाले युवाओं में आज भी सपना होता है| पूर्व आईएएस अधिकारी कहते हैं कि सेवा में आज भी देश का सबसे बेस्ट टैलेंट आने की चाहत रखता है| यव भी एक चिंतनीय स्थिति है कि कई टेलेंटेड युवा सर्विस में आने के बाद हालात देखकर प्रायवेट सेक्टर में बड़े बड़े पदों पर क्यों चले जाते हैं? युवा और तेज दिमाग वाले नौजवान दुनिया को बदलने के जूनून के साथ आते हैं| लेकिन जल्द ही वह आत्म-तुष्टि, मौन स्वीकृति और आलसी बन कर रह जाते हैं| वे सही गलत आंकने की नैतिकता गवा देते हैं|
हमेशा एक सवाल उठाया जाता है कि आईएएस अधिकारियों के काम के रास्ते में नेता आड़े आते हैं| राजनीतिक हस्तक्षेप की चुनौती महत्वपूर्ण नहीं है| लोकतंत्र में ऐसा होता है लेकिन आईएएस के बौद्धिक और नैतिक पतन के लिए राजनेताओं को दोष देना, केवल उनके पक्ष को सही दिखाने का एक तरीका हो सकता है| राजनेता कुछ भी कहें लेकिन अधिकारियों को यह समझना है कि क्या सही होगा| नैतिक रूप से कमजोर कुछ अधिकारी प्रलोभन के आगे झुक जाते हैं, सर्विस में पुरस्कारों से आकर्षित होते हैं या केवल कैरियर बनाने के लिए ऐसा करते हैं|
हकीकत यह है कि कोई भी राजनीतिक व्यवस्था चाहे कितनी भी भ्रष्ट क्यों ना हो नौकरशाही को भ्रष्ट नहीं कर सकती| अगर वह एकजुट और अपने पेशे एवं लोकाचार, नैतिकता के उच्च मानकों के लिए प्रतिबद्ध है| सुब्बाराव का कहना है कि कैडर में प्रोत्साहन और दंडित करने की व्यवस्था नहीं होना समस्या है| दरअसल शुरू से आईएएस प्रमोट होते जाते हैं और उन पर प्रदर्शन और परिणाम का कोई प्रेशर नहीं होता है| सिस्टम में स्मार्ट, ऊर्जावान और योग्य लोगों के टॉप पर पहुंचने का आश्वासन नहीं होता है|
भ्रष्ट, आलसी और अयोग्य लोगों को बाहर नहीं किया जाता है| अधिकारियों के अपने ज्ञान और कौशल को बढ़ाने के लिए कोई मोटिवेशन नहीं है| उनका कहना है कि इस समूह में सुधार उनकी योग्यता के आधार पर किया जाना चाहिए और यह बेहद जरूरी है| प्रधानमंत्री मोदी भी आईएएस सेवा में सुधार और एक्सीलेंस के लिए अनेक कदम उठा रहे हैं| ऐसा माना जा सकता है कि इस सेवा का भविष्य अच्छा और देश हित में होगा|