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ऐतिहासिक दिन, अब पूरे मनोयोग से हो सकल जनजातीय समाज का उत्थान

सार

​भारतीय लोकतंत्र के लिए आज ऐतिहासिक दिन है। देश में पहली बार एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर आसीन होने का अवसर मिला है। आजादी के अमृत महोत्सव काल में जनजातीय समाज की महिला का सर्वोच्च पद तक पहुंचना देश के असली नायकों का बहुत बड़ा सम्मान माना जाएगा। राजनीति में तो आदिवासी हमेशा बड़ा मुद्दा बना करते हैं लेकिन संविधान के शीर्ष पद पर आज तक किसी आदिवासी को मौका नहीं मिला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज में यह इतिहास रचा गया है कि आदिवासी महिला राष्ट्रपति बन सकी है। 

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विस्तार

प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली हमेशा से चौंकाने वाली रही है। राष्ट्रपति के निर्वाचन में भी मोदी ने देश को गुदगुदाया है तो विपक्ष को छकाया है। राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचन में राजनीति नहीं होनी चाहिए थी लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि भारतीय राजनीति में राजनीतिक असहिष्णुता अब इस स्तर पर पहुंच गई है कि यह जानते हुए भी विपक्ष अपना प्रत्याशी राष्ट्रपति के पद पर जिताने में सफल नहीं हो सकेगा, उसके बाद भी आम सहमति बनाने की कोशिश में भागीदारी नहीं की गई। जनजातीय राजनीति के लिए आज निर्णायक दिन माना जाएगा। संवैधानिक प्रमुख होने के नाते देश के सर्वोच्च पद पर इस समाज को नेतृत्व करने का मौका मिला है। ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि अब जनजातीय समाज के गौरव और सम्मान की पुनर्स्थापना हो सकेगी। 

राष्ट्रपति निर्वाचन को राजनीतिक नजरिए से देखा जाए तो भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एनडीए ने बड़ी राजनीतिक सफलता हासिल की है और विपक्ष को बड़ा झटका लगा है। प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ विपक्ष की एकजुटता के प्रयासों का भविष्य भी अंधकार में दिखाई पड़ रहा है। ममता बनर्जी ने विपक्षी उम्मीदवार उतारने में सक्रिय रूप से भूमिका निभाई थी लेकिन जिस तरह एनडीए के सहयोगियों के अतिरिक्त विपक्ष के कई दलों ने एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का समर्थन किया, उसके कारण ममता बनर्जी को भी झटका लगा है। मोदी के विरोध में विपक्षी एकता की कोशिशें भी इसके साथ ही असफल होती दिखाई पड़ रही हैं।

आदिवासी समाज सामान्यतः परिश्रमी ईमानदार होता है। आदिवासियों के नाम पर राजनीति तो हमेशा होती रही है लेकिन आज भी देश में जनजातीय समाज के हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। उनके बुनियादी मुद्दे अभी भी बने हुए हैं। चाहे जंगलों का मुद्दा हो, चाहे खेती किसानी का मुद्दा हो, आज भी आदिवासी समाज न्याय की राह देख रहा है। आदिवासी समाज राजनीतिक भागीदारी में भले ही आगे बढ़ा हो लेकिन सामाजिक और आर्थिक भागीदारी में अभी उसे काफी लंबा रास्ता तय करना है। देश का जनजातीय क्षेत्र संसाधनों और संपदा के रूप में हमेशा समृद्ध रहा है लेकिन इन क्षेत्रों के सामर्थ्य के सही इस्तेमाल की नीति अभी भी प्रतीक्षित है। अब आजादी की लड़ाई में जनजातीय नायक-नायिकाओं की वीर गाथाओं को आगे लाने का वक्त है। 

प्रधानमंत्री मोदी ने देश में पहली बार जनजातीय गौरव दिवस का आयोजन प्रारंभ किया था। वे जब भोपाल में इस समारोह में हुए शामिल हुए थे तब किसी ने नहीं सोचा था कि उनके मन मस्तिष्क में इस समाज के लिए भविष्य में क्या योजना है। राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मु का निर्वाचन शायद जनजातीय गौरव की स्थापना ही मानी जाएगी। अभी तक जनजातीय समाज की कला और संस्कृति केवल दिखाने और उपयोग करने की वस्तु के रूप में देखी जा रही है जबकि यह समाज राष्ट्र निर्माण में अपना अतुलनीय योगदान दे रहा है। अब द्रौपदी मुर्मु के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के साथ ही यह वक्त आ गया है कि जनजातीय समाज के उत्थान के लिए पूरे मनोयोग से प्रयास भी हों। 

भाजपा जहां पहली बार आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनाने के लिए श्रेय ले रही है वहीं विपक्षी दलों को कटघरे में भी खड़ा कर रही है। ऐसा लगता है कि राजनीतिक रूप से विपक्ष खासकर कांग्रेस ने चूक कर दी है। आदिवासी और महिला राष्ट्रपति को कांग्रेस की ओर से समर्थन किया जाना चाहिए था। भाजपा का राजनीतिक विरोध अलग बात है लेकिन राष्ट्रपति के मामले में यदि कांग्रेस द्रौपदी मुर्मू का समर्थन करती तो निश्चित रूप से इसका राजनीतिक लाभ भी कांग्रेस को मिलता। परंपरागत रूप से आदिवासी कांग्रेस के समर्थक माने जाते रहे हैं। इंदिरा गांधी को तो आदिवासी बहुत सम्मान देते थे। अब कांग्रेस आदिवासियों से क्यों दूर जा रही है? देश में कांग्रेस को जो चुनावी राजनीति में नुकसान हो रहा है उसका एक कारण यह भी माना जाता है कि जनजातीय समाज पार्टी से छिटक रहा है। इसके बावजूद भी कांग्रेस ने राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू का समर्थन न कर अपनी आदिवासी विरोधी छवि बनने दी। 
 
राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को यह जो ऐतिहासिक अवसर मिला है। इसे उन्हें केवल शोभा की सुपारी के रूप में नहीं बनाना चाहिए। जनजातीय समाज के साथ ही देश के विकास और संविधान की रक्षा के लिए उनकी भूमिका ऐसी निष्पक्ष ईमानदार और मजबूत होना चाहिए कि मिसाल बन सके। विपक्ष उन पर प्रचार के दौरान आरोप लगाती रही है कि वह एक खामोश राष्ट्रपति बनकर रह जाएंगी। खामोशी बुरी बात नहीं है, मजबूती के साथ जिम्मेदारी निभाना बड़ी बात है। आदिवासी इस मामले में कभी पीछे नहीं रहते। अतुल्य भारत के अतुलनीय उपलब्धि के लिए सभी भारतीय बधाई के पात्र हैं।