आज से 10 वर्ष बाद हमारे फार्मा उद्योग का बदला हुआ इनोवेशन भारतीय उद्योग को दिशा दिखा सकता है।
जनसंख्या के मान से भारत विश्व में नम्बर एक होने जा रहा है, उसी अनुपात में भारत को दवा भी लगेगी। आकार के मामले में भारत 10 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ दुनिया में तीसरे स्थान पर हैं लेकिन 42 अरब डॉलर की बिक्री के साथ मूल्य में भारत 14वें स्थान पर हैं और हिस्सेदारी केवल 1.5 प्रतिशत है। भारत में शोध एवं विकास में वैश्विक स्तर का निवेश हो सकता है।
यह टिप्पणी उन जानकारियों का नतीजा है जो फार्मा सेक्टर में शोध को लेकर बंद दरवाजों के पीछे हुई एक बैठक में निकलीं। इस बैठक में फार्मा उद्योग के कुछ सर्वाधिक जानकार लोग, विद्वान व सरकार के लोग आदि शामिल थे। इसका आयोजन सेंटर फॉर टेक्नॉलजी इनोवेशन ऐंड इकनॉमिक रिसर्च तथा अनंत सेंटर ने किया था।
50 वर्ष पहले जहां भारत विदेशी कंपनियों और ब्रांड पर निर्भर था, वहीं अब भारत ने एक बड़ा और जीवंत फार्मा सेक्टर तैयार किया है जहां उद्यमिता शक्ति से भरपूर भारतीय कारोबारी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मुकाबला कर रहे हैं।
फार्मा उद्योग की आकांक्षा 2030 तक अपना आकार तीन गुना करने की है। इसमें शोध का योगदान होगा, परंतु इसके लिए पूरी व्यवस्था बनानी होगी। शुरुआत शोध एवं विकास में निवेश से होगी। अमेरिका, जापान, जर्मनी, स्विट्जरलैंड और ब्रिटेन में बड़ी-बड़ी फार्मास्युटिकल कंपनियां हैं। इन सभी ने शोध एवं विकास में अरबों डॉलर का निवेश किया है।
इनमें स्विट्जरलैंड की रॉश और नोवार्टिस, अमेरिका की जेएंडजे, फाइजर, ब्रिस्टल-मायर्स, मर्क और इलाई लिली, ब्रिटेन की एस्ट्राजेनेका और जीएसके, जर्मनी की बेयर, बोरिंगर और मार्क डी, जापान की ताकेदा, दाइची, एस्टेल्लास, ओत्सुका और एईसाई शामिल हैं। सवाल यह है भारत को उनकी बराबरी के लिए क्या करना चाहिए? ये कंपनियां भारत टॉप पांच फार्मा कंपनियों के कुल टर्नओवर से अधिक राशि तो अपने शोध एवं विकास पर व्यय करती हैं।
भारतीय कंपनियों को कम से कम 10 वर्षों तक शोध एवं निवेश व्यय बढ़ाना होगा। शोध एवं विकास पर व्यय करने वाली टॉप कंपनियों से यह कहा जाना चाहिए कि वे इस सेक्टर में निवेश बढ़ाएं। अगले 10 वर्षों तक शोध एवं विकास व्यय में इजाफे के मामले में आयकर पर कर छूट दी जानी चाहिए।
इसे क्या कहें, कई वजहों से भारतीय औषधि निर्माताओं को पहले चरण के परीक्षण भारत के बजाय ऑस्ट्रेलिया में करने पड़ रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया में इसकी लागत 10 गुना तक अधिक होती है लेकिन वहां प्रक्रिया व्यवस्थित, पारदर्शी और सुनिश्चित है। अगर हम नियामकीय व्यवस्था में सुधार करें तो हमें औषधि निर्माण में प्रतिस्पर्धी बढ़त मिल सकती है।
भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का करीब 0.4 प्रतिशत सार्वजनिक फंडिंग वाले शोध एवं विकास में खर्च करता है जो वैश्विक औसत का 0.5 प्रतिशत है, परंतु इस निवेश का बहुत कम प्रतिफल मिलता है। समस्या यह नहीं है कि भारत कितना व्यय करता है बल्कि दिक्कत यह है कि देश कहां खर्च करता हैं।
राष्ट्रीय शोध एवं विकास व्यय का आधा से अधिक हिस्सा सरकार अपनी स्वचालित प्रयोगशालाओं में व्यय करती है। सबसे अधिक व्यय रक्षा पर उसके बाद परमाणु ऊर्जा, और कृषि पर व्यय होता है। स्वास्थ्य शोध छठे स्थान पर है और शोध एवं विकास पर होने वाले सरकारी व्यय का छह प्रतिशत उस पर खर्च किया जाता है।
अमेरिका में स्वास्थ्य क्षेत्र का शोध रक्षा के ठीक बाद आता है और सकार शोध विकास व्यय का 27 प्रतिशत हिस्सा उस पर खर्च करती है। ब्रिटेन में यह 20 प्रतिशत है। मजबूत आंतरिक व्यय से ही इस क्षेत्र में बात बन सकती है। सरकारी शोध एवं विकास व्यय का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करने से इसलिए भी लाभ होगा क्योंकि फार्मा उद्योग में गहन शोध एवं विकास होता है।
तमाम ऐतिहासिक कारणों से हमारे अधिकांश सार्वजनिक शोध स्वायत्त सरकारी प्रयोगशालाओं में होता है। जबकि तमाम अन्य देश सरकारी विश्वविद्यालयों में शोध करते हैं। अगर हम उच्च शिक्षा में सार्वजनिक शोध पर बल दें तो हम बेहतर प्रतिभाएं तैयार कर पाएंगे।
भारत के फार्मा उद्योग को इनोवेशन में अग्रणी बनाने का प्रयास होना चाहिए।नियामकीय ढांचे में बदलाव लाकर चिकित्सकीय परीक्षणों का मार्ग सहज किया जा सकता है और स्वास्थ्य से जुड़े शोध के क्षेत्र में सरकारी निवेश बढ़ाने से भी हालात में सुधार होगा। आज से 10 वर्ष बाद हमारे फार्मा उद्योग का बदला हुआ इनोवेशन भारतीय उद्योग को दिशा दिखा सकता है।
-राकेश दुबे