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बिना लाभ कौन-कब तक चला पाएगा कोई भी दुकान?

सार

नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान के सेल्समैन राहुल गांधी मोहब्बत बेचने अटल समाधि पर पहुंच गए। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की जयंती पर देश के सभी रहनुमा श्रद्धांजलि देने पहुंच रहे थे तो नफरत के बीच मोहब्बत की दुकान के मालिक को मोहब्बत का असर तो दिखाना ही था। पहले तो कभी नहीं गए थे अटल जी की समाधि पर। अब जब मोहब्बत की दुकान चला रहे हैं तो दुकान का माल बेचने के लिए नई तरकीब तो दिखाना ही था..!

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विस्तार

राहुल गांधी का पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की समाधि पर जाना बिल्कुल सामान्य और स्वाभाविक है। देश के पूर्व प्रधानमंत्रियों के प्रति देश की आस्था विश्वास और कृतज्ञता व्यक्त करने में दलीय सोच देश ने कभी स्वीकार नहीं की। यह सामान्य शिष्टाचार हर नेता को निभाना चाहिए। इसको दुकान की सफलता और लाभ या नुकसान के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए।  

दुकान कोई भी हो साफ-सुथरे ढंग से और ईमानदारी से लाभ में चलाना बहुत कठिन काम होता है। कोई भी दुकान खोलता है तो उसका बुनियादी लक्ष्य दुकान से लाभ कमा कर रोजी रोटी चलाना और जीवन यापन करना होता है। भले ही वह दुकान सामान बेचने की हो, विचारधारा बेचने की हो, धर्म बेचने की हो, नफरत बेचने की हो  या मोहब्बत बेचने की हो। राहुल गांधी जो कहते हैं कि छोटा दुकानदार सरकार की नीतियों से परेशान है। जीएसटी से परेशान है। नफरत और मोहब्बत की दुकान पर तो कोई जीएसटी नहीं लगती। बिना किसी लागत के अगर जनता में बिक गई तो लाभ ही लाभ है। 

नफरत और मोहब्बत की दुकान की बात करना ही बेमानी है। केवल इतना कहना पर्याप्त है कि राजनीति की दुकान हम चला रहे हैं। इस दुकान में कुछ भी बेचा जा सकता है। आज राजनीति में ऐसे ही हालात बने हुए हैं। नफरत का बाजार भी लाभ के लिए फैलाया जाता है और मोहब्बत की दुकान भी राजनीतिक लाभ के लिए सजाई जाती है। 

राहुल गांधी और कांग्रेस परिवार अपने नेताओं की शहादत पर गर्व करते हैं। निश्चित ही करना भी चाहिए लेकिन मोहब्बत के दुकानदारों को उन नफरतों को ध्यान से देखना चाहिए जिन्होंने हमारे महान नेताओं की शहादत ली है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की शहादत के लिए कौन जिम्मेदार है? उस समय जो नफरत का माहौल था उसके लिए किस को जिम्मेदार माना जाएगा?

वर्तमान हालातों में नफरत के लिए संघ और बीजेपी को जिम्मेदार बताया जाता है तो उस समय जो नफरत का माहौल था। उसके लिए किसको जिम्मेदार कहा जाए? उस समय क्या कांग्रेस परिवार मोहब्बत की दुकान नहीं चला रहा था जबकि केंद्र सरकार और राज्य की अधिकांश सरकारों पर नियंत्रण कांग्रेस का ही था।  

दिल्ली में सिख दंगे में जो हजारों सिख भाई-बहन मारे गए थे, उसके लिए नफरत कहां से आई थी? नफरत का बाजार भी क्या अलग-अलग हो सकता है? उसको भी राजनीतिक नजरिए से बाँट कर देखा जा सकता है? केवल डायलॉग देकर राजनीतिक मायाजाल बनाने के लिए नफरत का बाजार और मोहब्बत की दुकान जरूरी हो सकती है लेकिन इससे जमीनी वास्तविकता में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। 

राहुल गांधी का मनोभाव सत्य का चिंतन करना चाहता है लेकिन जो राजनीतिक व्यवसाय उन्होंने अपनाया है, उसके कारण राजनीति की व्यवहारिक जरूरतें उन्हें समय-समय पर रास्ता भटकाती रहती हैं। लोकसभा में राहुल गांधी द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनकी सीट पर जाकर गले लगाने का अप्रत्याशित दृश्य लोगों की स्मृति में आज भी कायम है। उसकी बहुत आलोचना भी हुई।  राहुल गांधी को ऐसा करने की जरूरत क्यों पड़ी यह बात अभी तक लोगों को समझ नहीं आई है। 

राहुल गांधी ने मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में भू अधिग्रहण के संबंध में लाए गए विधेयकों को फाड़ने का अप्रत्याशित काम भी किया था। अटल जी की समाधि पर जाकर उन्होंने अपनी वही अप्रत्याशित मनोवृति उजागर की है। इसमें बहुत अधिक राजनीतिक दृष्टिकोण और राजनीतिक समझ की कल्पना बेमानी ही होगी। 

वर्तमान हालात पाखंड और दिखावे पर टिके हुए हैं। प्रगट विचार साधु के जैसे होते हैं और भाव शैतान के। जनादेश को प्रभावित करने के लिए विचारों और दिखावे के बीज जहरीली चासनी में डुबाकर भ्रमजाल पैदा किया जाता है। आज तो दो लोगों की मोहब्बत ही सवालों के घेरे में खड़ी होती है फिर राजनीतिक मोहब्बत की तो बात ही करना बेकार है।  

राजनीतिक मोहब्बत पर भी महंगाई हावी दिखाई पड़ती है। वहां भी नफरत सस्ती बिकती दिखाई पड़ती है। राजनीति में मोहब्बत की दुकान, मोहब्बत महंगी होने के कारण घाटे में जाना लगभग सुनिश्चित ही होता है। नफरत के बाजार की बात करने वाले लोग मोहब्बत की नई दुनिया कहां से लाएंगे? असफल व्यवसाय और धंधे के लिए प्रसिद्ध कहावत है- गंजों की नगरी में कंघे कैसे बेचे जा सकते हैं? नफरत के बीच मोहब्बत की दुकान का सपना भी गंजों की नगरी में कंघी बेचना जैसा ही लगता है।