राजनीतिक लाभ के लिए रेवड़ी बांटने या चुनाव जीतने के लिए लुभावने वादे करने पर सवाल पिछले कई वर्षो से खड़े किये जाते रहे हैं, अब सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर विचार के लिए विशेषज्ञ समूह बना दिया है..!
प्रतिदिन-राकेश दुबे
17/08/2022
यूँ तो देश के समाज , विशेष कर करदाता समाज में मुफ्त रेवड़ियां बांटने का मामला सालों से चर्चा का विषय बना हुआ है। राजनीतिक लाभ के लिए रेवड़ी बांटने या चुनाव जीतने के लिए लुभावने वादे करने पर सवाल पिछले कई वर्षो से खड़े किये जाते रहे हैं। अब सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर विचार के लिए विशेषज्ञ समूह बना दिया है। समूह में चुनाव आयोग, नीति आयोग, वित्त आयोग, रिजर्व बैंक और राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल होंगे। इस समूह को यह जिम्मेदारी सौंपी जाएगी कि राजनीतिक दल चुनाव से पहले मुफ्त बांटने के जो वादे करते हैं, उनके लागू होने का करदाताओं व अर्थव्यवस्था पर क्या असर होता है? इसका अध्ययन और इन पर नियंत्रण पर सुझाव दे ।
यह मामला गंभीर भी है और चिंताजनक भी, पर साथ ही पिछली और वर्तमान सरकारों की कुशलता पर प्रश्न चिन्ह भी |
वास्तव में जो सवाल इस विशेषज्ञ समूह के सामने रखे गए हैं, उन पर पूरे देश को सोचना चाहिए और उसका जवाब भी किसी ऐसे समूह, अदालत या आयोग के बजाय समाज के बीच से ही आना चाहिए। इस विषय पर सिद्धांत रूप में चर्चा और विमर्श बहुत जरूरी है। सबसे पहले यह तय होना जरूरी है कि फ्रीबीज या रेवड़ियां क्या-क्या हैं? मुफ्तखोरी की परिभाषा क्या है? समाज में तो अभी तक यह परिभाषा तय नहीं की है कि समाज के गरीब वर्ग को मुफ्त भोजन देना रेवड़ी बांटना है या नहीं ? क्या उज्ज्वला योजना में मिले रसोई गैस के सिलेंडर रेवड़ी कहलायेगा या समाजोत्थान ?
आजादी के समय देश की आबादी करीब ३४ करोड़ थी। इनमें से अस्सी प्रतिशत लोगों की जिंदगी खेती के भरोसे चलती थी, पर देश में कुल साठ लाख टन गेहूं पैदा हो पाता था। अब पंजाब, मध्य प्रदेश और हरियाणा ही मिलकर इससे पांच गुना गेहूं सरकारी खरीद में देते हैं। अगर आजादी के फौरन बाद सरकार ने सिंचाई पर खर्च बढ़ाकर किसानों को सहारा न दिया होता, तो यह नहीं हो सकता था।
याद कीजये १९५१ में तत्तकालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को रेडियो पर जनता से अपील करनी पड़ी थी कि हफ्ते में एक दिन उपवास रखें और अनाज बचाएं। आजादी से पहले ही भारत में राशन और कंट्रोल की व्यवस्था लागू हो चुकी थी और यह काम शुरू करने वाले अंग्रेज अफसर का दावा था कि राशनिंग और कंट्रोल भारत में कभी खत्म नहीं होंगे, क्योंकि हालात सुधर ही नहीं सकते हैं। हालात सुधरे ही नहीं, बल्कि ७५ साल में यहां तक पहुंच चुके हैं कि भारत अब लाखों टन गेहूं निर्यात करने की स्थिति में भी है।
कुछ राजनीतिक दलों को यह समझ में आया कि जनता को कुछ फ्री देने का वादा उन्हें वोट मिल सकता है। शुरुआत आंध्र प्रदेश में एन टी रामाराव ने की, दो रुपये किलो चावल देने के वादे के साथ। उसके बाद तो जैसे सिलसिला चल निकला। तमिलनाडु में तो दोनों बडे़ दलों में होड़ ही लग गई। सस्ते अनाज, धोती, साड़ी वगैरह से शुरू हुआ सिलसिला प्रेशर कुकर, मिक्सी, सौ यूनिट बिजली फ्री, मंगलसूत्र, रंगीन टेलीविजन और स्कूटी खरीदने के लिए सब्सिडी तक पहुंच गया। कुछ ही समय की बात थी कि उत्तर भारत के राज्यों में भी साइकिल, स्कूटी, टैबलेट और लैपटॉप तक के वादे होने लगे। फिर दिल्ली की सरकार ने पानी और बिजली के बिलों में फ्री यूनिट का एलान करके एक नया मॉडल खड़ा कर दिया।
यह बात गौर करने की है कि भारत की या किसी राज्य की अर्थव्यवस्था सिर्फ इसलिए तो नहीं चलती कि उसे किसी पार्टी को चुनाव जिताना है।बल्कि जो पार्टी जीतती है, उसकी जिम्मेदारी होती है कि वह राज्य को और उसकी अर्थव्यवस्था को बेहतर तरीके से चलाए। यही वजह है कि चुनाव के पहले इस तरह के वादों पर सवाल उठाया जाता है, जिनका बोझ बाद में सरकारी खजाने को झेलना पड़ता है। आखिर चुनाव आयोग और उसके पर्यवेक्षक बनने वाले आला अफसर ऐसी घोषणाओं पर रोक क्यों नहीं लगाते ?
याद कीजिये, टी एन शेषन के कार्यकाल में और उसके बाद भी, जब चुनाव आयोग ने राजनीतिक पार्टियों के वादों पर ही नहीं, बल्कि सरकार के फैसलों तक पर रोक लगाई, लेकिन वर्ष २०१३ में तमिलनाडु के ऐसे चुनावी वादों के खिलाफ एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की तब सर्वोच्च न्यायलय ने इसे भ्रष्ट आचरण नहीं माना था |अब पंजाब पर तीन लाख करोड़ शायद रुपये का कर्ज होते हुए भी आम आदमी पार्टी ने मुफ्त बिजली का वादा किया और सरकार बना ली। यह पैसा कहां से आएगा, यह सवाल अब पूछना लाजिमी है।
सब्सिडी या सरकारी मदद दो तरह की होती है। जरूरी और गैर-जरूरी या वाजिब और गैर-वाजिब। जो जीवन के लिए जरूरी है, वह वाजिब सब्सिडी है। जिनसे केवल शौक पूरे होते हों, उन्हें गैर-वाजिब सब्सिडी कहना चाहिए। सिर्फ चुनाव जीतने के अगर पार्टियां आपको लॉलीपॉप दिखा रही हैं, तो उसकी कीमत अंतत: आपकी ही जेब से निकलने वाली है। समाज को इस पर गंभीरता से सोचना होगा और ऐसा रास्ता निकालना होगा , जिससे गरीबी और पिछड़ेपन को पार्टियां वोट बैंक के नाम पर भुनाती न रहें।