देश के सबसे स्वच्छ शहर इंदौर में मौत की बावड़ी 36 लोगों को लील गई. मौत नियति होती है लेकिन हादसे में मौतें बदनियति ही कहे जाएंगे. हादसे कब और कहां हो जाएंगे इसकी कल्पना और बचाव के बारे में सोचना वैयक्तिक ही हो सकता है इसके लिए सिस्टम पर निर्भरता हमेशा धोखा ही साबित होती रहा है.
इंदौर की इस हृदय विदारक घटना में भी ऐसा ही होना पाया गया है. जिन 36 लोगों की जीवन यात्रा बेलेश्वर महादेव मंदिर में 200 साल पुरानी बावड़ी की छत पर खत्म हो गई उन्हें शायद यह पता भी नहीं रहा होगा कि भविष्य के लिए आराधना के उद्देश्य से जिस छत पर वह खड़े हुए हैं उसके नीचे सैकड़ों फिट गहरी बावड़ी है. अगर मालूम होता तो शायद इतनी बड़ी संख्या में लोग उस पर खड़े नहीं होते कि वह धराशाई हो जाए और अच्छे भविष्य के लिए वर्तमान मौत के आगोश में समा जाए.
मौत सुनिश्चित होती है इसे कोई रोक नहीं सकता. कहा जाता है कि मौत कहीं नहीं जाती है, जिसका अंत आता है वह मौत के पास खुद चलकर जाता है. इस बावड़ी हादसे में भी ऐसा ही कहा जाएगा. जब भी कहीं हादसे होते हैं, वहां जांच होती है, राहत और मुआवजे बांटे जाते हैं और फिर धीरे-धीरे सब कुछ भुला दिया जाता है. भूलना मानव स्वभाव है. अस्तित्व ने इंसान को जो सबसे बड़ी ताकत दी है वह यही है कि हर अच्छी बुरी याद वक्त के साथ भूल जाती है. भूलने की यही क्षमता राज्य और सिस्टम के लिए बड़ी लाभकारी सिद्ध होती है.
इंदौर में बावड़ी की घटना पर मजिस्ट्रियल जांच घोषित हो गई है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह घायलों से मुलाकात कर संवेदना प्रदर्शित कर चुके हैं. मृतकों के परिवारजनों को मुआवजा घोषित किया जा चुका है. बेलेश्वर महादेव मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष और सेक्रेटरी पर आपराधिक प्रकरण की एफआईआर दर्ज हो चुकी है. यह सब उसी जैसा है जैसा हर दुर्घटना के बाद होता है. जिन 36 घरों में मातम पसरा है उनमें जो खालीपन और दर्द आया है उसे सिस्टम या समाज की कोई भी कोशिश कम नहीं कर सकती है.
इस पूरे मामले में जो बात उठाई जा रही है कि अतिक्रमण कर निर्माण किए गए थे. बावड़ी का इंदौर नगर निगम में कोई रिकॉर्ड नहीं होना बताया जा रहा है. बावड़ी के ऊपर छत बनी है. यह स्पष्टता के साथ वहां प्रदर्शित क्यों नहीं किया गया था? जो लोग भी छत पर चढ़े थे अगर वह इस बात से अवगत होते कि नीचे बावड़ी है तो फिर दुर्घटना के लिए उनकी लापरवाही जिम्मेदार मानी जाती. जो अनजाने में बावड़ी के ऊपर हुए उस निर्माण पर खड़ा था, उसकी मौत के लिए जिम्मेदार तो निर्माण करने वाले की लापरवाही ही मानी जायेगी. निर्माण व्यवस्थित हो इसकी जवाबदेही निभाने वाले सिस्टम पर निश्चित रूप से इस घटना की जिम्मेदारी डाली जाएगी.
हादसों के लिए सिस्टम, खास करके किसी भी सरकार को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराना न्याय संगत तो नहीं कहा जाएगा लेकिन जब पूरा समाज और राज्य, सरकारों के भरोसे ही चलता माना जाता है तो फिर दुर्घटना के लिए भी ऐसे ही आक्षेप लगाए जाते हैं. अभी गुजरात चुनाव के समय मोरबी में झूले के टूटने से सैकड़ों लोग काल कवलित हुए थे क्योंकि उस समय चुनाव था तो इस दुर्घटना के लिए सरकार को कटघरे में खड़ा करना राजनीतिक बाध्यता और अनिवार्यता हो सकती है.
हर घटना सबक जरूर होती है. हर घटना में जो भी लापरवाही दिखाई पड़ती है उसको दोहराया नहीं जाए ऐसा सामान्य रूप से अच्छे सिस्टम की निशानी मानी जाती है. दुर्घटनाओं में मौतें तो लगातार बढ़ती जा रही हैं. चाहे सड़क दुर्घटनाएं हों या दूसरी तरह की अप्राकृतिक दुर्घटनाएं हों, उनमें हो रही मौतें लगातार बढ़ रही हैं.
मध्यप्रदेश के संदर्भ में ही देखें तो कई बड़ी-बड़ी दुर्घटनाएं स्मरण में आती हैं. पेटलावद में विस्फोट के कारण 78 लोगों की मौत हुई थी. सीधी में हुई बस दुर्घटना मध्यप्रदेश के लिए काले दिन से कम नहीं कही जाएगी जब 54 यात्रियों से भरी बस नहर में समा गई थी. लगभग एक साल पहले ही खलघाट में यात्रियों से भरी महाराष्ट्र राज्य परिवहन कि बस नर्मदा नदी में गिरने से 12 यात्रियों की मौत हो गई थी. रीवा जिले के पास नेशनल हाई वे पर भीषण सड़क हादसे में 15 लोगों की मौत बीते अक्टूबर में हो गई थी.
दुर्घटनाओं के लिए किसी सरकार या प्रशासन को जिम्मेदार भले ही नहीं ठहराया जा सकता लेकिन दुर्घटनाओं से मिले सबक अमल में नहीं लाने को जरूर लापरवाही कहा जा सकता है. दुर्घटना के कारण कभी भी वास्तविकता के साथ सामने नहीं आते. कई बार तो न्यायिक प्रक्रिया में ऐसे फैसले सामने आते हैं जिसमें घटना के लिए किसी को जिम्मेदार तक साबित नहीं किया जा पाता.
अभी हाल ही में जयपुर ब्लास्ट के मामले में निचली अदालत के फैसले में आरोपियों को दी गई फांसी की सजा को उच्च न्यायालय ने पलट दिया है. इस मामले में आरोपियों को बरी कर दिया गया है. अदालतों में आरोपियों को बरी करने का इतिहास नई बात नहीं है लेकिन प्रश्न यह उठता है कि ब्लास्ट के लिए कोई दोषी नहीं है तो क्या ब्लास्ट हुआ भी था या नहीं हुआ था?
दोषमुक्त होने से यह प्रमाणित नहीं होता कि दुर्घटना ही नहीं हुई थी. चिंता की बात यही रहती है कि अक्सर मामलों में सिस्टम-प्रशासन को जांच प्रक्रिया में दोषमुक्त साबित कर दिया जाता है. तब यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि दुर्घटना और मौतों के लिए आखिर किस को जिम्मेदार माना जाए?
समाज और जीवन का कोई पहलू नहीं बचा है जहां शासन-प्रशासन का दखल ना हो. पॉवर के साथ जवाबदेही भी स्वमेव निर्मित हो जाती है. इंदौर की दुर्घटना में अपनी जीवन लीला समाप्त करने वालों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना के साथ ईश्वर से यही प्रार्थना की जा सकती है कि ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति ना हो. इस घटना के लिए जो भी जिम्मेदार हों वह दंडित हों और भविष्य में ऐसी लापरवाही ना हो जिससे कि मौत के हादसे बदनियत न साबित हो सकें.