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ट्रांसफर से एटीट्यूड कैसे बदलेगा?

सार

    पुलिस अफसरों का आपसी व्यवहार इतना खेदजनक है तो फिर पब्लिक से उनके व्यवहार की कल्पना करके सोचिए? पावर ही सरकार है और फील्ड पर असली पावर पुलिस के हाथों होती है. बाकी सारे पावर तो फाइलों में होते होंगे लेकिन तुरंत दंड देने का पावर तो पुलिस ही आजमा सकती है..!!

janmat

विस्तार

    चार सीनियर पुलिस अफसर को सीएम मोहन यादव ने इसलिए उनके पदों से हटाया कि, उनका व्यवहार लोक सेवा की दृष्टि से अत्यंत खेदजनक था. इन अफसरों के ट्रांसफर के बाद सीएम ने ऐसा ट्वीट किया और उनके  के व्यवहार पर टिप्पणी की. सीएम ने तुरंत एक्शन लिया यह तो निश्चित रूप से अच्छा संकेत है लेकिन ट्रांसफर से उनका एटीट्यूड कैसे बदलेगा?

     चंबल के आईजी और डीआईजी, दतिया और कटनी के एसपी इन चारों को ही पुलिस मुख्यालय में ट्रांसफर करके पदस्थ कर दिया गया हैं. जो अफसर फील्ड में खेदजनक व्यवहार के दोषी हैं. उन पर क्या भोपाल में अच्छे व्यवहार की कोई गारंटी दे सकता है? ऐसे अफसर का एटीट्यूड बदलने के लिए क्या प्रयास किये गए हैं. 

     यह कोई पहली घटना नहीं है. इसके पहले भी कई अफसरों को इसी तरह के दुर्व्यवहार पर उनके पदों से हटाया गया है. जब ऐसा एक्शन लिया जाता है तब ऐसे डिसीजन के लिए सीएम को नायक के रूप में पेश किया जाता है. धीरे-धीरे जब ऐसी घटनाएं स्मृतियों से उतर जाती है, तब फिर यही अफसर फील्ड में कमान संभालते हुए दिखते हैं.  

      ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने है जब पुलिस और सिविल अफसर को ऐसे व्यवहार के कारण तत्काल हटाया गया था और थोड़े दिनों के बाद उन्हें फिर से जिलों की  कमान सौंप दी गई. जब ऐसे उदाहरण आते हैं तो फिर ऐसे फैसलों पर सवाल खड़े होते हैं. 

    जब दोनों सीनियर अफसर आपस में ही ऐसा व्यवहार करते हैं तो फिर पब्लिक से वह कैसा व्यवहार करते होंगे? किसी भी बड़े ब्यूरोक्रेट से आम पब्लिक का मिलना तो लगभग असंभव है. वैसे अब कोई मिलना भी नहीं चाहता. जनसुनवाई तक में लोगों के साथ शिष्टाचार का पालन नहीं किया जाता. ना अफसरों का कोई मिलने का समय फिक्स होता है और ना ही उनकी पब्लिक से मिलने में कोई रुचि होती है. 

    कहने को तो यह लोक सेवा है लेकिन इसमें लोक तो गायब ही रहता है, केवल सेवा ही बचती है. अब यह सेवा कौन किसके लिए और क्यों कर रहा है यह तो सेवा लेने वाला और देने वाला ही समझ सकता है.

   अक्सर ऐसे मामले सामने आते हैं, जब निर्वाचित जनप्रतिनिधि इस बात के आरोप लगाते हैं कि, बड़े ब्यूरोक्रेट और जिलों की कमान संभालने वाले अफसर उनकी बात तक नहीं सुनते, उनके फोन तक नहीं उठाते. मुख्य सचिवों को बार-बार ऐसे निर्देश जारी करने पड़ते हैं कि,  निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को पर्याप्त सम्मान दिया जाए लेकिन ब्यूरोक्रेसी का एटीट्यूड ऐसा हो गया है कि हर निर्देश उनकी इच्छा के अनुसार महत्व पाता है.

     मंत्रियों और उनके विभाग के सीनियर अफसरों के बीच में विवाद भी आम बात है. इसके राजनीतिक एंगल भी होते हैं. कई बार सीएम अधिकारियों के माध्यम से मंत्रियों और उनके विभागों में अपना दखल रखते हैं. अपने विभाग के अफसर को हटाने के लिए मंत्रियों के दबाव एक सतत प्रक्रिया के रूप में चलते रहते हैं. कभी कोई सफल हो जाता है और कभी कोई असफल. 

     ट्रांसफर भी जनसेवा की दृष्टि से शायद ही किए जाते हैं. इसके पीछे तरह-तरह के दृष्टिकोण होते हैं. पूरे सिस्टम में सीनियरिटी-जूनियरटी के सम्मान की भावना तो लुप्त सी हो गई है. इसके पीछे भी सिस्टम में उपजी बुराइयां ही कारण है. पूरा सिस्टम जनसेवा के बदले स्व-सेवा में लगने की प्रवृत्ति पर जब आगे बढ़ता है, तो फिर सीनियरिटी जूनियरटी गड़बड़ाने लगती है. रिजर्व बैंक आफ इंडिया के नोट तो हाथ देखतें हैं, उन्हें सीनियरिटी-जूनियरटी से कोई मतलब नही. 

     लोक सेवा में  खेदजनक व्यवहार एक बड़ी समस्या है. उच्च स्तर के पुलिस अफसरों के पास तो सारे पावर और साधन होते हैं. निचले स्तर के अफसर तो कई बार खेदजनक व्यवहार के कारण दुर्घटना का भी शिकार हो जाते हैं. पुलिस पर हमले की घटनाएं अक्सर सामने आती है. पुलिस का राजनीतिकरण आम बात हो गई है. पुलिस तो किसी भी लीडर के पावर का झूमर होता है. आसपास झूमर ना हो तो पावर भी डिफ्यूज ही दिखाई पड़ता है.     

    सिस्टम में आपसी व्यवहार और सिस्टम का लोक के साथ व्यवहार सबसे महत्वपूर्ण विषय है. यह एटीट्यूड का मामला है. यह ट्रांसफर से हल नहीं हो सकता. इसके लिए ट्रेनिंग, मानसिकता में बदलाव, सिस्टम में सुधार की जरूरत है. चाहे वरिष्ठ हो या कनिष्ठ हो, जब वह अपनी सीमाओं से आगे जाएगा तो फिर ऐसे हालात निर्मित होते हैं, चाहे वह निर्वाचित सरकार का प्रतिनिधि हो या ब्यूरोक्रेटिक सिस्टम का पार्ट,  सबको अपनी सीमाओं का पालन करना चाहिए.

      शासन में तो सारी सीमाएं लिखी हुई है. हर पद के व्यक्ति के अधिकार और कर्तव्य डिफाइन है. विवाद तभी खड़े होते हैं जब इस सीमा का अतिक्रमण होता है.

     प्रशासनिक सुधार तो हमेशा अपेक्षित होते हैं लेकिन यह विषय ही सबसे ज्यादा नजरअंदाज किया जाता है. सिस्टम में सब कुछ तदर्थ ढंग से चलता रहता है. आजकल तो पूरा सिस्टम सीएम ओरिएंटेड हो गया है. सामूहिक जिम्मेदारी नजरअंदाज होती है. यही दृष्टिकोण पुलिस और सिविल एडमिनिस्ट्रेशन में भी बढ़ा है. सुशासन सीमाओं के अनुपालन से ही हो सकता है. 

    जब तक पद है, तभी तक उसके पावर का प्रकाश है. प्रकाश चाहे पांच वॉट का हो या फिर सौ वॉट का, फ्यूज होने के बाद दोनों का प्रकाश शून्य हो जाता है. सिस्टम में भी यही लागू होता है. चाहे वह डीजीपी, आईजी, डीआईजी, चीफ सेक्रेटरी, सेकेट्री, कमिश्नर, कलेक्टर हो या फिर  बाबू, चपरासी, रिटायरमेंट के बाद सबके पावर फ्यूज हो जाते हैं.

       जब तक पावर है, तब तक अच्छा व्यवहार रखा है, तभी बाद में सुख का अनुभव होगा. लोक सेवा में बेहतर व्यवहार का प्रबंधन किसी भी सरकार की सबसे बड़ी सफलता है.