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मील के पत्थरों की गणना से कैसे मिलेगी मंजिल?

सार

जातीय जनगणना उन जातियों का भविष्य तय करेगी या राहुल गांधी का राजनीतिक भविष्य तय करेगी यह समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है. सत्ता की लहर के लिए जाति के जहर पर सवार कांग्रेस की मंडल-2 राजनीति का एजेंडा दोधारी तलवार जैसा है. जातीय जनगणना को रामबाण मानकर आगे बढ़ रहे राहुल गांधी ने जातिवाद के ढांचे का ताला खोल दिया है. अब इसका अंत कहां जाकर रुकेगा, यह राहुल गांधी के नियंत्रण में भी नहीं होगा.

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विस्तार

इसका दुष्परिणाम वैसा ही निकलेगा जैसे राम जन्मभूमि का ताला राजीव गांधी ने खुलवाया था लेकिन इसका अंतिम सियासी लाभ नरेंद्र मोदी की सरकार के रूप में सामने आया. जातीय जनगणना अब लोकसभा चुनाव के बाद ही होगी. इसलिए जाति जनगणना पर मोदी सरकार का रुख भी उसी समय साफ होगा. चुनावी राज्यों में राहुल गांधी जाति जनगणना को सबसे बड़े राजनीतिक मुद्दे के रूप में उभार रहे हैं तो चुनाव परिणाम तक इसके असर की प्रतीक्षा करना जरूरी है.

अभी तक देश में बिहार सरकार ने जातीय सर्वेक्षण कर आंकड़े जारी किए हैं. बिहार के जातीय सर्वेक्षण का निर्णय नीतीश कुमार के नेतृत्व में बीजेपी गठबंधन सरकार के दौरान लिया गया था उसके नतीजे अब सामने आए हैं. इसका मतलब है कि बिहार का जातिगत सर्वेक्षण बीजेपी का ही ब्रेन चाइल्ड है. राहुल गांधी बीजेपी के ब्रेन चाइल्ड को गोद में लेकर चुनावी राज्यों में उतर गए हैं. राहुल गांधी की सबसे बड़ी विडंबना यही रही है कि वह जिस भी मुद्दे को पकड़ते हैं उसकी लाभ-हानि देश, समाज, अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव का आकलन किए बिना थोड़े समय तक सरपट दौड़ते हैं, फिर थक हार कर नए मुद्दे पकड़ लेते हैं.

आजादी के बाद से ही जातिगत जनगणना के खिलाफ स्टैंड लेने वाली कांग्रेस को मंडल-2 की जातिवादी राजनीति उभारने की जरूरत क्यों पड़ी? मंडल-1 के संघर्ष में सर्वाधिक राजनीतिक फायदा कमंडल की राजनीति को ही मिला है. देश की ओबीसी जातियां बीजेपी के पक्ष में अगर लामबंद हुई हैं तो इसका कारण जातीय राजनीति नहीं है बल्कि जाति राजनीति में हाशिये पर डाली गई जातियों को विकास की मुख्य धारा में स्थान और महत्व मिलना बड़ा कारण है.

शासकीय योजनाओं के लाभार्थी वर्ग के रूप में मजबूत समूह तैयार कर बीजेपी ने जातीय राजनीति करने वालों को बड़ा झटका दिया है. जहां तक हिंदुत्व का प्रश्न है तो कोई कितना भी प्रयास कर ले जातियों का विभाजन हिंदुत्व की आत्मा को कमजोर नहीं कर सकेगा. हिंदू समाज में आस्था रखने रखने वाले अपनी आत्मा से तो राजनीतिक कारणों से दूर नहीं जा सकेंगे. मंडल-1 के जातीय संघर्ष की राजनीति का लाभ भाजपा को ही मिला है और भले ही मंडल-2 का राजनीतिक एजेंडा राहुल गांधी सेट करने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन इसका अंतिम परिणाम भाजपा ने अपने पक्ष में करने के लिए अति पिछड़ी जातियों पर फोकस पहले से ही कर रही है. अति पिछड़े गरीब जो विकास की प्रक्रिया में बीजेपी की नीतियों के कारण पहली बार कोई भी लाभ हासिल करने में सफल हुए हैं, वह किसी भी जाति राजनीति में विकास के अपने निजी लाभ को कभी तिलांजलि नहीं दे सकेंगे.

गरीबी पिछड़ेपन और असमानता को दूर करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था को राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग करने की कोशिश अब बहुत अधिक लाभकारी साबित नहीं हो सकती. कर्नाटक में कांग्रेस द्वारा मुसलमानों को दिये गए 4% आरक्षण को समाप्त कर दो प्रमुख ओबीसी जातियों लिंगायत और वोक्कालिंगा को बांटने का काम बीजेपी सरकार ने किया था लेकिन उसका परिणाम चुनाव में बीजेपी के पक्ष में दिखाई नहीं पड़ा. मणिपुर में दो आदिवासी समुदायों में चल रहे बर्बर संघर्ष के पीछे आरक्षण ही सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है. आरक्षण की व्यवस्था को राजनीतिक लाभ के लिए उपयोग करने की कांग्रेस की कोशिश मुसलमानों के अलावा आदिवासी और दलितों में भी आक्रोश बढ़ा सकती है. आरक्षण पर चल रहे राजनीतिक विवादों के चलते ही पदोन्नति में आरक्षण का मामला अदालत में अटक गया है.

जातिगत जनगणना का आंकड़ा भले ही आजादी के पहले का हो लेकिन अभी भी आंकड़ा तो मौजूद है. वर्तमान गणना के बाद भी क्या ओबीसी जातियों को विकास की मुख्य धारा में लाने में कोई सफलता मिलेगी? सरकारी सेक्टर में केवल दो प्रतिशत जनसंख्या के लिए ही रोजगार के अवसर हैं. सरकारी सेक्टर में आरक्षण के नाम पर राजनीतिकरण भले ही हो लेकिन इससे किसी भी जाति या समुदाय की विकास में भागीदारी में समानता आना बहुत कठिन है. निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है इसके बावजूद सभी जातियों और समुदायों के लोग प्रतिस्पर्धा में योग्यता के आधार पर बराबरी के साथ कंधे से कंधे मिलाकर आगे बढ़ रहे हैं. 

विकास योजनाओं के संबंध में किसी भी जाति या समुदाय के लिए कोई भी विशेष योजना लागू करना किसी भी राज्य सरकार के लिए बहुत आसान नहीं रह गया है. राज्य सरकारें कर्जों के जाल में फंस गई हैं. जब सरकारों के पास नई योजनाओं के लिए धनराशि ही नहीं है तो फिर जनगणना के बाद भी किसी भी जाति या समुदाय को विकास के नए आयाम से कैसे जोड़ा जाएगा? मील के पत्थर की गणना करने से मंजिल पर तो नहीं पहुंचा जा सकता. आज जब हर नागरिक को विकास की इकाई मानकर डेवलपमेंट प्लान तय किए जा रहे हैं तो फिर किसी भी गणना से ज़्यादा हर व्यक्ति की यूनिक डेवलपमेंट आईडी बनाने की ज़रूरत है. मंजिल पर पहुंचने के लिए तो कठिन राहों पर चलना होगा. 

जो कांग्रेस पार्टी आजादी के इतने साल बाद भी चुनावी लाभ के लिए जातिगत राजनीति का सहारा ले रही है उसकी राजनीतिक विश्वसनीयता इन वर्गों में पहले से ही कम से कमतर होती जा रही है. बीजेपी के हिंदुत्व को कमजोर करने के लिए जातिगत जनगणना की राजनीति अब नए दौर में राजनीतिक सफलता का रामबाण फार्मूला नहीं है. 

भाजपा पहले से ही अति पिछड़ों को अपने साथ जोड़ने में लगी हुई है. ओबीसी कोटे के अंदर कोटे की परिकल्पना का स्वरूप कभी भी सामने आ सकता है. भारत सरकार द्वारा इस संबंध में बनाए गए रोहिणी कमीशन का प्रतिवेदन राष्ट्रपति को दिया जा चुका है. इस कमीशन की अनुशंसाओं पर अगर ओबीसी आरक्षण के कोटे में कोटे का प्रावधान लागू कर दिया गया तो देश में ओबीसी की पॉलिटिक्स का स्वरूप ही बदल जाएगा.

जातियां तो रहेंगी. जातियां हिंदुत्व को कमजोर नहीं कर सकतीं. जातियों में डिवाइड और रूल की रणनीति राष्ट्रवाद को कभी भी प्रभावित नहीं कर सकेगी. राहुल गांधी का जातिगत जनगणना का एजेंडा तो सामने आ गया है. इसके जवाब में बीजेपी की रणनीति की लोगों को प्रतीक्षा है.