• India
  • Sat , Jul , 27 , 2024
  • Last Update 04:50:PM
  • 29℃ Bhopal, India

स्थानीय निकायों में आरक्षण की राजनीति, चुनाव टालने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का अहम् फैसला..! सरकारों को दिखाया आईना, हर हाल में कराना होगा चुनाव- सरयूसुत मिश्र

सार

संविधान के मुताबिक, नगरीय निकायों, पंचायतों के चुनाव पांच साल में नहीं कराने को संविधान का उल्लंघन मानते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यप्रदेश में आगामी 15 दिवस के भीतर चुनाव प्रक्रिया जारी करने के निर्देश दिए हैं। महाराष्ट्र सरकार के संबंध में ऐसा ही निर्देश पहले ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया जा चुका है। मध्य प्रदेश से जुड़े मामले में फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इन संस्थाओं के निर्धारित समय में चुनाव कराने के लिए यह आदेश सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों पर लागू होगा..!

janmat

विस्तार

मध्यप्रदेश राज्य निर्वाचन आयोग ने न्यायालय के सामने यह तथ्य भी रखा कि हाई कोर्ट द्वारा कुछ ऐसे निर्देश दिए गए है जो चुनाव प्रक्रिया प्रारंभ करने में बाधा पहुंचा सकते है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत सख्त रुख लेते हुए कहा कि यह आदेश किसी भी न्यायालय द्वारा इस संबंध में दिए गए आदेशों को सुपरसीड करेगा। उच्च न्यायालय या किसी भी अदालत द्वारा इस संबंध में आगे भी कोई निर्देश दिए जाते है तो उन पर भी सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना अमल नहीं किया जाएगा। 

ओबीसी रिजर्वेशन के लिए विचारार्थ इस याचिका के फैसले में राजनीतिक दलों को भी आईना दिखाया गया है। न्यायालय का कहना है कि ओबीसी को आरक्षण के लिए ट्रिपल टेस्ट के बिना कार्रवाई नहीं की जा सकती। आर्थिक शैक्षणिक और राजनीतिक आधार पर टेस्ट के बिना आरक्षण नहीं दिया जा सकता। कई पंचायतों और नगरीय निकायों में पिछड़े वर्गों की जनसंख्या 50% तक होने को आरक्षण का आधार मानने से इनकार करते हुए न्यायालय ने कहा कि राजनीतिक दलों को किसने रोका है कि वह सामान्य सीटों पर जनसंख्या को देखते हुए ओबीसी को प्रतिनिधित्व के लिए अवसर नहीं दें। 

ओबीसी को इन संस्थाओं में अवसर देने के लिए यह कितनी महत्वपूर्ण बात है कि जब राजनीतिक दल यह मानते है कि इन वर्गों की उस क्षेत्र में पर्याप्त जनसंख्या है तो फिर उनको चुनाव में ओबीसी वर्ग से प्रत्याशी उतारने में क्या दिक्कत है।इसके लिए तो दलों को किसी आरक्षण की जरूरत नहीं है। जब उनकी जनसंख्या है तो निश्चित रूप से उस क्षेत्र में प्रतिनिधित्व का मौका उन्हें ही मिलेगा। 

आरक्षण के नाम पर कानूनी लड़ाई के कारण जहां एक और इन संस्थाओं के चुनाव तीन-चार सालों से नहीं हो रहे है वहीं सभी वर्गों के लोग इससे प्रभावित हो रहे है। 3-4 साल से पंचायतों और नगरीय निकायों में जो नया नेतृत्व आ सकता था वह नहीं आ पाया है। इसमें केवल सामान्य वर्ग का नुकसान नहीं हुआ है बल्कि पिछड़े वर्गों को भी इसका नुकसान हुआ है। 

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर प्रतिक्रिया में कहा है कि सरकार पंचायतों का चुनाव ओबीसी आरक्षण के साथ कराने के लिए न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका दायर करेगी। प्रश्न यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इन संस्थाओं में ओबीसी को आरक्षण देने से इनकार नहीं किया है। न्यायालय का कहना है कि इन वर्गों का आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक आधार पर ट्रिपल टेस्ट सरकार द्वारा कराया जाए। पंचायत वार उनकी स्थितियां स्पष्ट हो उसके बाद ही इस पर विचार हो सकेगा। ओबीसी को आरक्षण देने का कोई विरोध नहीं है। इसके नाम पर पंचायतों और नगरीय निकायों के चुनावों को रोका जाना कैसे न्याय संगत होगा?

मध्य प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग ने जो रिपोर्ट तैयार की थी उसे भी ट्रिपल टेस्ट के अनुरूप न्यायालय द्वारा नहीं माना गया।इसका मतलब है कि या तो राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा ट्रिपल टेस्ट के बारे में निर्धारित मापदंडों को सही ढंग से समझा नहीं या जल्दबाजी में पिछड़ा वर्ग आयोग से एक रिपोर्ट तैयार कर इन वर्गों में राजनीतिक स्कोर बढ़ाने का प्रयास किया गया। 

पंचायत राज संस्थाओं के चुनाव हो चुके होते तो 23263 नए जनप्रतिनिधि चुनकर अपना काम कर रहे होते। जिला और जनपद स्तर पर पंचायतें नए नेतृत्व के साथ काम को अंजाम दे रही होती। इसी प्रकार नगरीय निकायों में भी नए जनप्रतिनिधि पदासीन हो चुके होते। नयापन हमेशा बेहतरी के लिए अच्छा माना जाता है। चार साल का समय मतलब लगभग पूरा कार्यकाल ही समाप्त हो गया है। 

नगरीय निकायों और पंचायतों की भूमिका स्थानीय स्तर पर विकास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। पुराने जनप्रतिनिधियों को प्रभार देकर भले ही काम चलाया जा रहा हो लेकिन इससे वह गति नहीं मिल सकती जो संवैधानिक रूप से निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से संभव है। 

न्यायालय ने तो यहां तक कह दिया है कि नगरीय निकाय और पंचायतों का कार्यकाल 5 सालों के लिए निर्धारित है इनके चुनाव की प्रक्रिया कार्यकाल समाप्त होने के पहले ही प्रारंभ की जानी चाहिए ताकि तय समय में नए जनप्रतिनिधि इन संस्थाओं का कामकाज संभाल सके। सरकार द्वारा इन संस्थाओं में 6 महीने से अधिक एडमिनिस्ट्रेटर नहीं रखे जा सकते।  इन संस्थाओं के चुनाव को इतने लंबे समय तक नहीं कराना एक प्रकार से कानून और संविधान की मर्यादा के उल्लंघन जैसा है। 

मध्यप्रदेश में नगरीय निकायों और पंचायतों के चुनाव में विलंब की शुरुआत कांग्रेस की 15 महीने की सरकार में हुई थी।जब उन्होंने परिसीमन की प्रक्रिया प्रारंभ की थी, तत्कालीन सरकार के पतन के बाद भाजपा सरकार ने उस परिसीमन को अस्वीकार कर दिया। नए सिरे से परिसीमन की प्रक्रिया प्रारंभ की। इसी प्रक्रिया के विरुद्ध लड़ाई अदालत पहुचीं जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है। इस फैसले के बाद अब कोई भी राजनीतिक हथकंडा शायद इन संस्थाओं के चुनाव रोक नहीं पाएगा। अब मध्यप्रदेश में नगरीय निकायों और पंचायतों के चुनाव जल्दी संपन्न होंगे ऐसी उम्मीद है।