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कहीं आप भी तो सीमा नहीं लांघ रहे ?

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Sun , 07 Dec

सार

इस रेखा का अक्षरश: पालन करने का दायित्व जिन पर है, वे ही अपनी सीमा लांघ लेते हैं। यह चिंता की नहीं खतरे की बात है।

janmat

विस्तार

प्रतिदिन  राकेश दुबे                                                                              
एक अरसे से देश में ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जो सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली हैं। सरकार कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म का समर्थन कर उस पाले में पहले ही जा चुकी हैं, जहाँ कम से कम एक सरकार को जाने से परहेज बरतना था |आज देश में जो दिख रहा है ,वो गुस्सा नहीं हैं|  बल्कि बहुत दिनों से  बन रहे सोच की परिणिति है | सोच समझ कर की गई प्रतिक्रिया कभी शुभ नहीं होती |  हम ७५ साल बाद भी हमारे  संविधान के प्रकाश में अपने-अपने धर्म के अनुसार आचरण करने जैसी आदत नहीं डाल सके  और अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने को आज़ादी मान बैठे |यह  आज़ादी  उस लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन  कर रही है जिसका अधिकार किसी को नहीं है |दुर्भाग्य  इस रेखा का अक्षरश:  पालन करने का दायित्व जिन पर है, वे ही अपनी सीमा लांघ लेते हैं। यह चिंता की नहीं खतरे की बात है।

जब हमारा संविधान बना तो उसमें सर्वसम्मति से यह कहना ज़रूरी समझा गया था कि भारत के हर नागरिक को अपने धर्म के अनुसार आचरण करने का अधिकार होगा, और  साथ ही यह भी कि सरकार के स्तर पर धर्म के संदर्भ में किसी के साथ भी किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जायेगा। भारत के हर नागरिक के अधिकार समान हैं, और कर्तव्य भी। पंथ-निरपेक्षता के इसी सिद्धांत के अनुसार हमने एक बहुधर्मी देश का सपना देखा और इस बात के प्रति सावधान रहे कि हमारा यह सपना खंडित न हो। लेकिन इस व्यवस्था और सावधानी के बावजूद ऐसे तत्वों को सिर उठाने के अवसर मिलते रहे हैं जो धार्मिक सौहार्द बिगाड़ने का कारण बनते हैं।

ऐसा ही अवसर भाजपा के प्रवक्ता का टीवी बहस में अनुत्तरदायी आचरण से बना । अक्सर हमारे टीवी कार्यक्रम में भाग लेने वाले, और एंकर भी, जानबूझकर ऐसे विवादों को हवा देते हैं, जो सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाने का काम करते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि ऐसी बहसों में भाग लेने वाले अक्सर ऐसा कुछ कर बैठते हैं,जिससे आम नागरिक व्यथित होता है । राजनीतिक दलों के प्रवक्ता और समर्थक अपने नाटकीय और दुर्भाग्यपूर्ण व्यवहार से टीवी के दर्शकों को लुभाने की कोशिश करते हैं। अक्सर यह आपराधिक कृत्य होता है और ऐसा करने वाले  राजनीतिक प्रभाव के कारण सज़ा से भी बच जाते हैं। वैसे, सज़ा सिर्फ ऐसा कुछ बोलने वालों को ही क्यों मिले? सज़ा की भागी तो उस एंकर की चुप्पी भी होती है, जो ऐसे आपराधिक व्यवहार को देखकर अनदेखा कर देता है। एंकर का कर्तव्य बनता है कि वह हस्तक्षेप करे, ग़लत करने या बोलने वाले को ऐसा करने से रोके| राजनीति और व्यवसाय के इस खेल में हार राष्ट्रीय और सामाजिक हितों की हो रही  है।दुर्भाग्य है,देश में जब-तब सांप्रदायिकता की आग फैलाने वालों को अपने स्वार्थ दिखते हैं, देशहित नहीं।

मंदिरों को ढहाकर मस्जिद बनवाना देश के इतिहास का एक नंगा सच है, पर क्या उस सच को अपना भविष्य बिगाड़ने का कारण तो नहीं बनाया जा सकता। पहले भी भारत में जन्म लेने वाले हर व्यक्ति को हिंदू मानने की नेक सलाह संघ के शीर्ष से दी जा चुकी है। कितनों ने समझा इस बात के महत्व को?  शायद सरकार तक ने भी नहीं |संघ अब कह रहा है  भारत के मुसलमानों के पूर्वज भी हिंदू ही थे। एक ही खून बहता है इस देश के हिंदुओं और मुसलमानों की धमनियों में। यह बात पहले क्यों नहीं कही गई | पहले कुछ और कहा सुना गया |  ऐसे फर्क नहीं होते और यह बात यदि समाज समझ लेता  ,तो फिर कुछ अप्रिय कहते समय सबकी ज़ुबान भी कांपती ।
भाजपा के प्रवक्ता ने भी अब अपनी ग़लती स्वीकारी है। ऐसे किसी स्वीकार में ‘यदि’ के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।  साथ हो खेद इसलिए नहीं होना चाहिए कि किसी को बात बुरी लगी है, बल्कि इसलिए होना चाहिए कि बात बुरी है, और इससे सब बचें । अब इस बात को समझना और स्वीकारना आसान नहीं है, वर्तमान में ज़रूरी है ।
सही अर्थों में सांप्रदायिकता मनुष्यता का विरोधाभासी शब्द और क्रिया  है। उस विचार को मन-मस्तिष्क से निकालने का है जो हमें बांटता है।