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गवर्नेंस में लाइलाज रोग, करना होगा पारस प्रयोग

सार

मध्यप्रदेश में अफसरों के सस्पेंशन की बयार चल रही है। सरकार की हर सभा में पतझड़ में टूटते पत्तों के जैसे अधिकारियों के सस्पेंशन के आदेश सामने आ रहे हैं। मीडिया में हर रोज अफसरों को ठिकाने लगाने की खबरें पढ़ने को मिल रही हैं। अब तो औचक निरीक्षण भी अधिकारियों के सस्पेंशन का कार्यक्रम बन गया है। पिछले एक सप्ताह में ही अगर सस्पेंशन के आदेशों को देखा जाए तो स्वास्थ्य, बिजली, सिंचाई, खाद्य और कई विभागों के अधिकारी निलंबित हो चुके हैं और यह क्रम लगातार जारी है।

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विस्तार

सस्पेंशन के आदेश यह बता रहे हैं कि प्रदेश के मुखिया प्रशासन की व्यवस्थाओं से संतुष्ट नहीं हैं। गवर्नेंस का सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा है। जनता को जो सुविधा मिलना चाहिए वह नहीं मिल रही है। सिस्टम में किसी भी अव्यवस्था और गड़बड़ी के लिए क्या एक व्यक्ति जिम्मेदार माना जा सकता है? सस्पेंशन को अनुशासनात्मक नियमों के अंतर्गत कोई दंड नहीं माना जाता। यह तो अफसर को जीवन निर्वाह भत्ते के साथ काम से रोकने की प्रक्रिया है। यदि कोई अव्यवस्था कर रहा है या गलत काम कर रहा है तो ऐसे अफसर को सस्पेंड नहीं बल्कि टर्मिनेट किया जाना चाहिए। 

भारत की न्याय व्यवस्था इस बुनियादी आधार पर टिकी हुई है कि कितने भी दोषी छूट जाएं लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं मिलना चाहिए। सभाओं में मंचों पर और अचानक मिली किसी शिकायत पर किसी भी अफसर को सार्वजनिक रूप से बेइज्जत कर सस्पेंड करने का ऐलान न्याय की बुनियाद के पक्ष में तो नहीं माना जा सकता। इस तथ्य पर विचार किया जाना चाहिए कि जो अफसर सस्पेंड हो रहे हैं वे एक दिन में तो उन पदों पर नहीं पहुंचे हैं। वर्तमान सिस्टम से गुजर कर पदोन्नति पाते हुए ही वे उन पदों पर पहुँचते हैं। जब अफसर अक्षम थे तो उनको इन पदों पर पहुंचने का मौका ही क्यों दिया गया?

गवर्नेंस में सुशासन के लिए औचक निरीक्षण, संपर्क अभियान परंपरागत रूप से होते रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा और दिग्विजय सिंह भी ग्राम संपर्क और नगर संपर्क अभियान पर अचानक निकलते थे। किसी भी गांव में हेलीकाप्टर से उतर जाते थे और उस समय भी वही सब तथ्य मिलते थे जो आज मिल रहे हैं। साल 2003 में दिग्विजय सरकार के जाने के 20 साल बाद भी क्या परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं आया है? गवर्नेंस जो 20 साल पहले था क्या वैसा ही है? 

अगर ऐसा है तो फिर इसके लिए कोई एक अफसर कैसे जिम्मेदार होगा? उन विभागों के वरिष्ठ अफ़सरों की क्या कोई ज़िम्मेदारी नहीं? यह उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश सरकार ने एक ऐसा भी अभियान चलाया था जिसमें गाँव गाँव तक अपर मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव और सचिव स्तर के अधिकारी भेजे गए थे, उनकी रिपोर्ट पर की गई कार्रवाई अज्ञात ही है। हर ज़िले में प्रभारी सचिव की भी व्यवस्था है। इन अधिकारियों ने भी औचक निरीक्षण किए होते तो मुख्यमंत्री के सामने इस तरह के हालात नहीं आते।

गंगा की सफाई के लिए किसी एक कोने की सफाई करने से काम कैसे चलेगा? इसके लिए तो गंगोत्री से गंगासागर तक गंगा को साफ करने का प्रयास करना होगा। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पब्लिक लीडर हैं। पब्लिक की समस्याओं पर उनका द्रवित होना स्वाभाविक है लेकिन सरकारी प्रक्रिया में तदर्थवाद से सुधार की कोशिश क्या कोई असर डाल पा रही है? प्रदेश में भर्ती और पदोन्नति वैसे ही लंबे समय से रुकी हुई है। अफसरों के स्तर पर तो  सेवानिवृत्ति के कारण बड़ी संख्या में पद रिक्त होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में सस्पेंशन के कारण अफसर घर बैठकर जनता की तनखा लेंगे तो इससे तो नुकसान अंततः जनता का ही होगा। ऐसे अफसरों को सेवा से हटाने के बारे में सरकार को सख्ती से कदम उठाना चाहिए। अधिकारियों पर कार्यवाही को सियासी नजरिए से करना और देखना सिस्टम में सुधार का आधार कैसे बन सकेगा?

बालिकाओं के साथ अपराध के मामले में बुलडोजर से आरोपी के घर ढहाने की प्रक्रिया भी पिछले दिनों बड़ी चर्चा में आई थी। उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ पिछले चुनाव में बुलडोजर के प्रतीक के रूप में स्थापित हुए थे। निश्चित रूप से उन्हें इसका राजनीतिक फायदा मिला। उसके बाद ही इस तरह के तात्कालिक फैसलों और पब्लिक के सामने उनके प्रदर्शन की प्रवृत्ति बढ़ी है। अपराधी को सजा मिलना चाहिए इसमें तो कोई दो राय हो नहीं सकती लेकिन यह सजा कानून प्रक्रिया के अनुरूप मिलना ही न्याय के शासन का आधार है। कई राज्यों की उच्च अदालतों ने इस तरह की कार्रवाई पर गंभीर सवाल भी उठाए हैं। 

लोकतांत्रिक सरकारों में जब भी मुख्यमंत्री या मंत्री शपथ लेते हैं उनके शपथ का महत्वपूर्ण वाक्य होता है कि हम सभी पक्षों और सभी वर्गों के साथ न्याय करेंगे।  किसी के साथ भेदभाव नहीं करेंगे। बिना जांच प्रक्रिया पूरी किए तात्कालिक फैसले क्या भेदभाव के रूप में सामने नहीं आ सकते। शिकायतें भी क्या प्रायोजित नहीं हो सकती? 

भारत में अदालतों के निर्णयों का अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट रूप से पता चलता है कि ऊपरी अदालतों में बहुत बड़ी संख्या में मामले आरोपियों के पक्ष में ही चले जाते हैं। आरोपी दोषमुक्त हो जाते हैं। अगर इन मामलों में भी बुलडोजर और सस्पेंशन जैसे तात्कालिक फैसले लिए गए होते तो उन्हें दोषमुक्ति का अवसर कैसे मिलता?

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान संवेदनशील व्यक्ति हैं। उनकी यूएसपी सहज, स्वाभाविक और आम गरीब लोगों की भावनाओं का सम्मान करने वाले नेता के रूप में है। मध्यप्रदेश में उनकी लोकप्रियता का आज जो चरम है वह भी उनके इसी गुणों के आधार पर है। एक और बात ध्यान आकर्षित करती है कि जब चुनाव करीब होते हैं, तब ही इस तरह की गतिविधियां तेजी से बढ़ जाती हैं। ब्रांडिंग और पैकेजिंग के लिए ऐसे हथकंडे अपनाने की सलाह अफसर देने लगते हैं। 2003 के बाद अव्यवस्था और अनियमितताओं के कारण जितने अफसरों को निलंबित किया गया है अगर उनका संकलन किया जाए तो मध्यप्रदेश में भारतीय प्रशासनिक सेवा के कैडर की जितनी संख्या है, सस्पेंडेड अधिकारियों की संख्या उससे ज्यादा ही हो जाएगी।  

सस्पेंशन के आदेश की खबरें तो देखने को मिलती हैं लेकिन जब उन अफसरों की बहाली हो जाती है वे फिर महत्वपूर्ण मलाईदार पदों पर पहुंच जाते हैं। तब ऐसी ख़बरें जनता के सामने नहीं आती हैं। इससे भी जनता के मन मस्तिष्क में भ्रम की स्थिति बनती है। गवर्नेंस में सुधार के लिए दीर्घकालीन सुनियोजित रणनीति के साथ इमानदारी से काम करने पर ही कोई सफलता मिल सकती है। इसके लिए पूरे सिस्टम की मानसिकता बदलनी पड़ेगी। लोक सेवक केवल कहने के लिए नहीं वास्तविक रूप से लोक सेवा की भावना विकसित करनी पड़ेगी। पूरे सिस्टम में नियमों और प्रक्रिया पर काम करना होगा। पदस्थापना के लिए निश्चित समय तय करना होगा। हर काम की जिम्मेदारी तय करना होगी। 

निर्धारित प्रक्रिया से किसी को भी छूट नहीं मिलना चाहिए। आजकल राजनीतिक रूप से सक्षम लोगों को सरकार में सभी तरह की सुविधाएं मिलती हुई दिखाई पड़ती हैं। इसके कारण जब एक बार नियम प्रक्रिया का बांध टूटता है तो फिर सिस्टम में हर स्तर पर उसी तरीके का वातावरण बनता जाता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा शासन में सुधार के लिए प्रयास को निश्चित रूप से सराहा जाना चाहिए लेकिन इसके वास्तविक परिणाम का बहुत गहराई से अध्ययन और मनन भी जरूरी है। सख्त और तात्कालिक निर्णय, ‘ना खाऊंगा ना खाने दूंगा’ के डायलॉग केवल ब्रांडिंग और इमेज बिल्डिंग के लिए नहीं बल्कि सिस्टम की बिल्डिंग के लिए होना चाहिए।