सरकारी अस्पताल क्या चूहों के विश्रामालय बन गए हैं. मरीज सरकारी अस्पताल के इलाज से बचेगा या नहीं बचेगा, लेकिन चूहों के कुतरने से मर जाएगा इससे बड़ी दिल दहलाने वाली दूसरी घटना नहीं हो सकती..!!
एक कवि ने अपने व्यंग्य में कहा “चूहा कहीं भी और अफसर कहीं का भी बिल बना सकता है.” बिलों का ही बोलबाला है. इंदौर का एमवाय हॉस्पिटल कभी प्रतिष्ठित माना जाता था. अब वह चूहे और अफसर के लिए बिल बनकर रह गया लगता है.
इस अस्पताल में चूहों के कारण ऐसी घटना पहली बार नहीं हुई है, इसके पहले भी ऐसी घटनाएं इतिहास में दर्ज हैं. अफसरों ने इसमें सुधार के लिए बहुत वाह-वाही लूटी थी. हेल्थ सेक्टर में सुधार के लिए अभिनव प्रयासों का ढ़िंढौरा पीटा गया था. रोगी कल्याण समितियों की अवधारणा लाई गई थी. राज्य के सरकारी अस्पतालों से चूहों की सफाई की गई थी, लेकिन जहां अफसर के लिए बिल बुक होगी वहां चूहों के बिल हो ही जाएंगे.
चूहों के कुतरने से दो मासूमों की जान चली गई. जो भी जिम्मेदार है, कोई अवकाश पर है कोई घटना के बाद अवकाश पर चले गए हैं. सरकार ने जांच के आदेश दे दिए हैं. चार सदस्य समिति बनाई जा चुकी है. सीएम ने भी अपनी संवेदना व्यक्त कर दी है. यह सब औपचारिकता घटना के बाद ही पूरी कर ली जाती हैं.
घटना चाहे बड़ी हो चाहे छोटी हो. उसकी कोई भी जांच रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं होती. सिस्टम में लापरवाही की कोई जवाबदेही तय नहीं होती. चूहे तो प्राकृतिक प्रतीक हैं. सिस्टम को तो भ्रष्टाचार का चूहा पहले ही कुतर चुका है. जो कुछ जिम्मेदारी-जवाबदारी सिस्टम में बची है, उसको कुतरने की प्रक्रिया सतत चल रही है.
सरकारों में स्वास्थ्य सेवाएं लापरवाही की चपेट में हैं. सरकार के जिम्मेदार लोग सरकारी अस्पतालों में इलाज से परहेज करते हैं. प्राइवेट मेडिकल कॉलेज और अस्पताल दिन-दूनी रात चौगुनी गति से प्रगति कर रहे हैं, तो इसके पीछे भी सिस्टम के ही हाथ शामिल हैं. गरीबों के इलाज के लिए आयुष्मान योजना में भी घोटाले आए दिन सार्वजनिक होते हैं.
मुख्यमंत्री सहायता कोष से गरीबों को इलाज के लिए मदद मिलती है. इसमें भी लेन-देन की शिकायतें आम बात हैं. अब तो सरकारी सिस्टम में वह जगह खोजना मुश्किल होगी जहां भ्रष्ट व्यवस्था शासन को संचालित नहीं कर रही हो.
कर्म और पाप पुण्य का सिद्धांत सरकारी सिस्टम में काम नहीं करता है. वहां केवल वर्तमान का बोलबाला है. गिव एंड टेक एकमात्र नीति है. चूहा और अफसर हर क्षेत्र में बिल बना रहे हैं. ना धर्म का क्षेत्र बचा है, ना किसान का क्षेत्र बचा है. शिक्षा स्वास्थ्य में भी बिलों का बोलबाला है. पद की कीमत है. व्यक्तित्व की कोई अहमियत नहीं है. सिस्टम का चेहरा दिखाने का कुछ और होता है और असली चेहरा बीच-बीच में कुतरते चूहे ही उजागर करते हैं. बड़े-बड़े धार्मिक आयोजन भी अफसर के बिल का जरिया बन जाते हैं.
हजारों करोड़ों का खर्च कर चाहे महाकुंभ हो, सिंहस्थ हो या कोई दूसरे धार्मिक आयोजन हों, सब में सिस्टम वही कर रहा है. जैसे कोई पूजा-पाठ बिना दक्षिणा के पूर्ण नहीं माना जाता, वैसे ही सिस्टम बिना भ्रष्टाचार के किसी भी काम को पूरा नहीं करता है.
सिस्टम के कागज का घोड़ा अफसर के बिल का आधार बनता है. इन्वेस्टमेंट के लिए इवेंट हो, तो यह गारंटी नहीं है कि राज्य में इन्वेस्टमेंट कितना आएगा, लेकिन इवेंट के नाम पर अफसर की चूहागिरी पूरी हो जाती है. मुख्यमंत्री निवास पर विक्रमादित्य वैदिक घड़ी के गौरव की स्थापना की गई है. हर व्यक्तित्व और सरकार की घड़ी निश्चित होती है. चाहे घड़ी वैदिक हो चाहे सामान्य हो, लेकिन हर कर्म उस पर दर्ज हो जाता है. घड़ी का स्वरूप बदलने से कर्म नहीं बदलता. व्यक्तित्व कीअसली पहचान आचरण और कर्म से होती है.
पीआर एक्सरसाइज से पब्लिक तो भ्रमित नहीं होती लेकिन लीडर जरूर खुद के बारे में भ्रमित हो जाता है. केवल नकारात्मक बातें करने से भी कुछ नहीं होगा. चूहा और अफसर तो अपना काम करते ही रहेंगे.
सिस्टम में तो यह न्यू नॉर्मल बन गया है. अजब-गजब घटनाक्रम मध्य प्रदेश की पहचान बनते जा रहे हैं. एक विधायक हाई कोर्ट के न्यायाधीश को अपने केस में ही राहत देने के लिए फोन कर देते हैं. यह तो इसलिए पब्लिक को पता लग गई, क्योंकि न्यायाधीश महोदय की अंतरात्मा को यह पसंद नहीं आया. अदालत पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, लेकिन अदालत जाने वाले के अनुभवों को तो नहीं नकारा जा सकता.
एक डीएफओ ऑफिशियल पत्र लिख देते हैं, कि स्थानीय विधायक उनसे दो लाख की रिश्वत मांग रहे हैं. सिस्टम के चूहों का यह नमूना है जो सिस्टम को कुतरने में लगे हुए हैं. स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार तो बहुत हो रहा है, लेकिन उसकी गुणवत्ता पर सवाल खड़े होते हैं.
पानी, बिजली, सड़क जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर पर जितना ईमानदारी से काम करने की जरूरत है, उससे ज्यादा शिक्षा और स्वास्थ्य पर सरकारों को ध्यान देना ज़रूरी है. आयुष्मान योजना में गरीबों को इलाज के लिए अप्रत्याशित ढंग से सुविधा उपलब्ध कराई गई है, लेकिन अस्पतालों में अव्यवस्थाओं पर तो जवाबदेही तय होना जरूरी है.
सरकारों की नजर में स्वास्थ्य क्षेत्र नेगलेक्टेड ही रहता है. यह विषय कभी भी चुनाव में मुद्दा नहीं बनता. इसीलिए राजनीतिक प्रणाली इस पर उतनी सतर्क नहीं होती, जितनी सड़क-बिजली पर सतर्क रहती है. मेडिकल कॉलेज हर जिले में खुल रहे हैं, लेकिन मेडिकल एजुकेशन की क्वालिटी पर प्रश्न चिन्ह है. सरकारी मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल तो कुप्रबंधन की प्रयोगशाला बन गए हैं. जब भी कोई हेल्थ इमरजेंसी का माहौल बनता है, तब सरकारी अस्पतालों की वास्तविकता उजागर होती है. पूरे सिस्टम की संवेदनाएं जैसे मर गई हैं.
सरकार का दिल चुनावी राजनीति के लिए धड़कता है. इस दिल की भावनाएं जनता समझ नहीं पाती. सरकार की जिन शिराओं से उसका वास्ता पड़ता है, उनमें तो उसे करप्शन ही प्रवाहित होता दिखता है.
सरकार के दिल, चूहा और अफसर के बिल में पब्लिक को तो कोई अंतर समझ नहीं आता है. इस सबके बावजूद जीना भी है, स्थितियों को सुधारना भी है, चूहों और अफसरों के साथ निभाना भी है और भ्रष्टाचार को मिटाना भी है.