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डिप्लोमेसी में राहुल गांधी की ‘ऑटोक्रेसी’

सार

राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा पर दुनिया की नजर टिकी हैं, वही देश के एलओपी की नजर खुद पर ही है. मोदी-पुतिन की दोस्ती से विश्व में शांति की उम्मीद जग रही है..!!

janmat

विस्तार

    यह यात्रा भले ही द्विपक्षीय हो लेकिन चर्चा की शुरुआत यूक्रेन में शांति के प्रयासों से होना ही विश्व में भारत के महत्व को रेखांकित करता है. राष्ट्रपति पुतिन भारत को भविष्य की महाशक्ति बता रहे हैं. मोदी के व्यक्तित्व पर राष्ट्रपति कहते हैं, भारत खुशकिस्मत है, उसके पास मोदी है. वह दबाव में नहीं आते. विश्व की महाशक्ति जिस नेता को दबाव से ऊपर मानती है, उसे भारत के एलओपी असुरक्षा के भाव से देखते हैं.

    पुतिन की यात्रा के पहले राहुल ने भले ही देश में आने वाले विदेशी मेहमानों के एलओपी से मुलाकात की ट्रेडीशन की बात उठाई हो लेकिन यह राष्ट्र से ज्यादा उनकी राजनीति के लिए उपयोगी लगता है. राहुल कहते हैंकि पहले ऐसी परंपरा थी लेकिन अब सरकार विदेशी मेहमानों को देश में और देश से बाहर उनसे मिलने से रोकती है. 

    राहुल कहते हैं कि, मोदी में असुरक्षा की भावना है. राहुल गांधी की अगर ट्रेडीशन की बात सही भी मानी जाए तब भी राष्ट्रीय महत्व के मौके पर इसे उठाया जाना, ठेस लगाने की कोशिश ही कही जाएगी. उनका दृष्टिकोण राष्ट्रपति पुतिन से मिलने से ज्यादा पीएम नरेंद्र मोदी को कमतर दिखाने का लगता है.

    कोई दो राय नहीं है कि एलओपी भी लोकतंत्र और देश को रिप्रेजेंट करते हैं. जिसे वह रिप्रेजेंट कर रहे हैं, सबसे पहले उसमें विश्वास करना जरूरी है. अब तक देश में ऐसा कौन एलओपी रहा है, जिसने देश की लोकतांत्रिक प्रणाली चुनाव प्रक्रिया और संवैधानिक संस्थाओं पर हाइड्रोजन और एटमबम छोड़ा है.

    जिस प्रक्रिया से एलओपी चुने गए हैं, उसी प्रक्रिया से सरकार भी चुनी गई है. फिर अगर उनका दृष्टिकोण लोकतांत्रिक होता तो वोट चोर, गद्दी छोड़ का नारा देने में उन्हें शर्म महसूस होनी चाहिए थी.

    पद और प्रतिष्ठा अलग-अलग बातें हैं. पद स्थायी है लेकिन प्रतिष्ठा पदासीन व्यक्ति के आचरण पर निर्भर करती है. राहुल आरोपों को माना जाए तो इसका मतलब है कि, उन्होंने स्वयं पद की गरिमा को गिराया है. जब राहुल गांधी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा भारत को डेड इकोनामी कहने पर देश में उनकी बात को बढाने लगते हैं तो फिर यह उनकी निजी राय हो सकती है.

    देश का एलओपी तो इस बात के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति की आलोचना के लिए खड़ा हो जाता. यह विपक्ष की गरिमा गिराने जैसा कदम ही माना जाएगा.

    ऑपरेशन सिंदूर में भी राहुल गांधी ने ऐसा ही किया है. उन्होंने ना विदेश मंत्रालय की बात सुनी और ना सेना की. वह हमेशा यही कहते रहे कि ट्रंप, भारत पाकिस्तान का युद्ध रोकने का श्रेय ले रहे हैं.

    जब राहुल देश में विदेशी मेहमान से मुलाकात के ट्रेडीशन पर सवाल उठाते हैं तब उन्हें एलओपी के ट्रेडीशन पर भी जवाब देना पड़ेगा. स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस पर आमंत्रण के बाद भी शामिल नहीं होकर क्या वह संवैधानिक दायित्व निभा रहे हैं. मुख्य न्यायाधीश के शपथ समारोह में नेता प्रतिपक्ष का शामिल होना संवैधानिक जरूरत है, लेकिन राहुल इसका पालन नहीं करते हैं.

     राहुल गांधी जब विदेशों में जाते हैं तो भारत के लोकतंत्र पर सवाल खड़ा करते हैं. जब उन्हें लगता है कि देश में लोकतंत्र खतरे में है, वह चोरी हो रहा है. निर्वाचन आयोग चोरी का केंद्र बन गया है. जहां वह जीतते हैं वहां सब ठीक होता है और जहां हारते हैं, वहां वोट चोरी हो जाता  है. अगर लोकतंत्र, संविधान और संवैधानिक संस्थाओं के प्रति उनका यही दृष्टिकोण है तो इसको विस्तार देने के लिए कोई भी सरकार उन्हें अपनी तरफ से कोई मौका क्यों देना चाहेगी.

    आंतरिक राजनीति और कांग्रेस का घटता प्रभाव राहुल को परेशान कर रहा है. शायद इसीलिए राष्ट्रीय मुद्दों पर भी वह राजनीति को ही प्रमुखता देते हैं. पुतिन की यात्रा के समय भी कांग्रेस ऐसा ही कर रही है. कांग्रेस के सोशल मीडिया हैंडल पर एआई जेनरेटेड वीडियो पोस्ट किया गया है, जिसमें पीएम नरेंद्र मोदी को चाय बेचता हुआ दिखाया गया है. जिस नेता को दुनिया सुन रही है, भारत उस पर लगातार भरोसा जता रहा है, उसके प्रति कांग्रेस और राहुल गांधी का नजरिया न केवल नकारात्मक है बल्कि अपमानित करने वाला भी दिखाई पड़ता है.

     आंतरिक राजनीति में कांग्रेस, मोदी का मुकाबला नहीं कर पा रही है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गांधी परिवार की विरासत का अपना महत्व है. उसी कारण राहुल गांधी ऐसी अपेक्षा करते हैं कि उन्हें हर डिगनिट्री से मिलने का मौका दिया जाना चाहिए. अगर यह दिया भी जाता है तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है. उच्चता और तुच्छता आचरण से बनती है.

    राहुल स्वयं रशियन एंबेसी से पुतिन से मुलाकात की पहल कर सकते थे या भारतीय विदेश मंत्रालय से भी ऐसी इच्छा व्यक्त कर सकते थे. दो कार्यकाल में तो एलओपी ही नहीं रहा, अब राहुल गांधी बने हैं. उन्हें इस पद की गरिमा के अनुरूप आचरण करना ही होगा.

    कभी-कभी प्रतिष्ठित संवैधानिक पद भी पदासीन के आचरण के कारण अपनी गरिमा और महिमा खोने लगते हैं. भले ही राहुल गांधी ने राष्ट्रीय महत्व के इस मौके पर यह मुद्दा उठाया हो लेकिन एलओपी की गरिमा को बनाए रखना पदासीन नेता और सरकार दोनों की जिम्मेदारी है. व्यक्ति रहे ना रहे, संवैधानिक पद रहेगा और लोकतंत्र लगातार मजबूत होता रहेगा.