मध्यप्रदेश कांग्रेस कार्यालय में इतिहास ने जो नहीं देखा था उसे देखने का नया इतिहास लिख दिया गया है. विधानसभा चुनाव के पहले कांग्रेस के दफ्तर में भगवा मेला लगाकर धर्मनिरपेक्ष पार्टी ने नया खेला शुरू किया है. कांग्रेस की हिंदुत्व कथा में सेकुलर मतदाताओं की व्यथा को अनसुना कर दिया गया है...!!
प्रदेश कांग्रेस के इस सियासी बदलाव ने यह साबित कर दिया है कि हिंदुत्व सत्ता की राजनीति का प्राणनाथ बना हुआ है. प्रदेश में सत्ता के दावेदार कमल और कमलनाथ में मुकाबला बाकी मुद्दों के अलावा हिंदुत्व की राजनीतिक पहचान पर होने वाला है. प्रदेश में अगला चुनावी मैच हिंदुत्व की बॉलिंग और बैटिंग से ही जीतने की रणनीति पर काम शुरू हो गया है. कमल तो हिंदुत्व की राजनीति का प्रतीक माना ही जाता है लेकिन पहली बार इस प्रतीक को चुनौती कमलनाथ के हाथों कितनी मिल पाएगी, यह देखने की बात होगी.
कमलनाथ ने जब से मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कमान संभाली है तब से ही सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रति उनका नजरिया कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व से अलग दिखाई पड़ता रहा है. यहां तक कि प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और कमलनाथ के हिंदुत्व पर राजनीतिक विचार अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं. कांग्रेस और कांग्रेस के नेता हमेशा से ही चीख-चीख कर यह कहते रहे हैं कि धर्म आस्था का विषय है. धार्मिक प्रतीकों का राजनीति में उपयोग कांग्रेस की परंपरा नहीं रही है. भारतीय राजनीति में बीजेपी के तेजी से उभरने के बाद हिंदुत्व को जीत का मंत्र माना जाने लगा. सत्ता की चुनावी राजनीति में जब कांग्रेस लगातार पिछड़ती गई तो इसके लिए पार्टी की हिंदुत्व से दूरी को शायद कारण माना गया.
कमलनाथ की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने खुलेआम हिंदुत्व और भगवा राजनीति को चुनावी मंत्र के रूप में उपयोग करना शुरू किया है. किसी भी प्रतियोगिता में जब अस्त्र एक होगा तभी तो जीत हार का आधार निर्धारित हो पाएगा. रिवाल्वर और तलवार की लड़ाई को समान प्रतियोगिता कैसे माना जाए? अगर हिंदुत्व राजनीति का हथियार है तो फिर दोनों प्रतिद्वंदी का एक ही हथियार से चुनावी युद्ध में उतरना न्याय संगत ही कहा जाएगा. प्रश्न केवल इस बात का है तो फिर कांग्रेस राजनीति में धर्म के उपयोग पर अपने आप को सती सावित्री साबित करने का प्रयास अब कैसे कर सकती है?
देश में अभी कुछ राज्य बचे हैं जहां बीजेपी और कांग्रेस के बीच में सीधा मुकाबला है. मध्यप्रदेश उन्हीं राज्यों में शामिल है. जिन राज्यों में तीसरे दल मजबूती के साथ उभरें हैं वहां कांग्रेस अपने राजनीतिक अस्तित्व के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. उत्तरप्रदेश इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. उत्तरप्रदेश में अल्पसंख्यकों को कांग्रेस के विकल्प के रूप में क्षेत्रीय दल उपलब्ध हैं. यूपी में अल्पसंख्यकों के बीच कांग्रेस का जनाधार सिमट गया है. अल्पसंख्यकों में कांग्रेस के लिए जो कट्टर भरोसा था वह अब डगमगा गया है.हाल ही में पूर्वोत्तर के चुनावों में कांग्रेस को ईसाई वोटरों का अपेक्षित समर्थन नहीं मिला है.
मध्यप्रदेश सहित जिन राज्यों में कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला है वहां आज भी अल्पसंख्यकों की पहली पसंद कांग्रेस ही मानी जाती है. जब कमलनाथ और राज्य की कांग्रेस बीजेपी की पिच पर चुनावी मैदान में उतरेगी तो हिंदुत्व समर्थकों में मतों के विभाजन का कांग्रेस को कितना लाभ मिलेगा यह तो सटीक रूप से नहीं कहा जा सकता लेकिन अल्पसंख्यकों में कांग्रेस के इस नीतिगत बदलाव के कारण जो निराशा बढ़ेगी वह निश्चित रूप से कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगी.
चुनावी राजनीति में विपक्षी दल हमेशा उसी हालात में फायदे में रहते हैं जब जनता से जुड़े मुद्दों महंगाई, बेरोजगारी भ्रष्टाचार,सत्ता विरोधी रुझान पर प्रचार को केंद्रित रखा जाता है. हिमाचल प्रदेश में अभी कांग्रेस ने सत्ता हासिल की है. निश्चित रूप से वहां स्थानीय मुद्दों पर ही पार्टी ने अपना प्रचार अभियान केंद्रित किया था.
कमलनाथ ने 2018 के चुनाव में भी सॉफ्ट हिंदुत्व को अपनी चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया था. तकनीकी रूप से कांग्रेस को सत्ता हासिल हो गई थी यद्यपि अगर मतों के प्रतिशत और कुल मतों को देखा जाए तो बीजेपी को कांग्रेस से ज्यादा मत मिले थे लेकिन सरकार कांग्रेस ही बना पाई थी. इसका मतलब स्पष्ट है कि सॉफ्ट हिंदुत्व ने कांग्रेस को बहुत अधिक लाभ नहीं पहुंचाया था. अब तो 15 महीने की कांग्रेस सरकार की एंटीइनकम्बेंसी भी अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सामने चुनौती के रूप में रहेगी.
प्रदेश कांग्रेस और कमलनाथ का हिंदुत्व प्रेम बिल्कुल नाजायज नहीं है. राजनीति में उन्हें इस बात का पूरा अधिकार है कि विपक्ष से मुकाबले के लिए उसके हथियार को ही अपना हथियार बनाएं. कांग्रेस शायद हिंदुत्व की राजनीति पर इसी सोच के साथ आगे बढ़ रही है. कांग्रेस का सबसे बड़ा संकट विश्वसनीयता की कमी है. कांग्रेस के चाल चरित्र और चेहरे पर इतने लंबे समय तक भारत के लोगों ने न केवल विश्वास किया बल्कि कांग्रेस की सरकारों को कई दशकों तक सत्ता का संचालन सौंपा गया. मध्यप्रदेश के संदर्भ में भी देखा जाए तो मध्यप्रदेश के गठन के बाद अगर बीजेपी और कांग्रेस के बीच सरकार के संचालन का आकलन किया जाएगा तो अभी भी कांग्रेस की सत्ता का पलड़ा भारी पड़ेगा.
कांग्रेस यह कहने की स्थिति में नहीं है कि उन्हें राज्य में विकास और कल्याण के लिए मौका नहीं मिला है. कांग्रेस की सोच और आचरण उनकी सरकारों में स्पष्ट रूप से लोगों ने देखा है. अब पब्लिक को कांग्रेस का नाम आते ही उनके तौर-तरीके उनकी सोच और आचरण सामने आ जाते हैं. यहां तक की कांग्रेस के अधिकांश चेहरे वही पुराने हैं जो सत्ता में रहकर अपनी सारी सियासी पूंजी को खर्च कर चुके हैं. अब उनके राजनीतिक व्यक्तित्व में कोई भी नयापन पब्लिक के सामने बेचने के लिए नहीं है. शायद इसीलिए कांग्रेस ने अब हिंदुत्व की दुकान सजाई है.