भारत इमोशनली आगे बढ़ने की बजाय पिछड़ता जा रहा है. विभाजन का जो इमोशनल दर्द भारत ने भोगा है, वह दर्द आज भी उसी ताकत के साथ उपस्थित है. धार्मिक मान्यताओं पर सहमति-असहमति को कानून से ऊपर वरीयता दी जा रही है. धार्मिक सोच कानून के राज को प्रभावित कर रहा है..!!
धर्म के आधार पर बंटवारे की सोच का जो ज्वार आजादी के समय था क्या उसमें कोई कमी नहीं आई है. विभाजन की जिन्ना लेगेसी क्या अभी भी अपने मंसूबे पर आगे बढ़ रही है. अनेकता में एकता सर्वोच्चता के आगे बौनी साबित हो रही है. देश का माहौल नफरत और सांप्रदायिक सोच को बढ़ा रहा है. संवैधानिक और कानूनी लड़ाइयां संवैधानिक ढंग से लड़ी जाएंगी या धार्मिक भावनाओं को कानून के रास्ते ऊपर महत्व दिया जाएगा.
देश में वक्फ़ संशोधन विधेयक पर संवैधानिक प्रक्रिया विचाराधीन है. इस संशोधन बिल पर मुस्लिम समाज के कुछ लोगों को आपत्ति है. ऑल इंडिया मुस्लिम लॉ पर्सनल बोर्ड द्वारा जंतर-मंतर पर बिल के खिलाफ प्रदर्शन किया गया है. बिल पर जो आपत्तियां दर्ज की जा रही है उनमें मुख्य रूप से वक्फ़ ट्रिब्यूनल के फैसले के खिलाफ विवाद होने पर हाईकोर्ट जाने के संशोधित प्रावधान के खिलाफ हैं. वक्फ़ संपत्ति के दान की प्रक्रिया को रेगुलेट करने पर एतराज़ किया जा रहा है.
वक्फ़ बोर्ड में महिला और अन्य धर्म के दो सदस्य शामिल करने के संशोधन प्रस्तावों पर भी मुस्लिम लॉ पर्सनल बोर्ड को आपत्ति है. वक्फ़ की संपत्ति के सर्वेक्षण और उसके निर्धारण के लिए कलेक्टर या उनसे उच्च स्तर के अधिकारी को अधिकार देने के संशोधन प्रावधानों पर भी आपत्ति व्यक्त की जा रही है.
सरकार का मानना है कि संशोधन बिल से वक्फ़ संपत्तियों को रेगुलेट करने और ऐसी संपत्तियो से संबंधित विवादों को निपटाने का अधिकार मिलेगा. नए प्रावधानों से वक्फ़ संपत्तियों का बेहतर इस्तेमाल होगा और मुस्लिम महिलाओं को भी मदद मिलेगी. नए प्रावधानों से अवैध कब्जे हट सकेंगे. वक्फ़ संपत्तियों से आय बढ़ेगी, जो समाज के हित में उपयोग हो सकेगी.
संशोधन बिल से मुस्लिम संगठनों से लेकर विपक्षी दल नाराज है. उनका आरोप है कि, सरकार बिल के जरिए वक्फ़ संपत्तियों पर कब्जा करना चाहती है.
किसी भी कानून में संशोधन का प्रस्ताव करना निर्वाचित सरकार का दायित्व है. केंद्र सरकार ने वक्फ़ संशोधन विधेयक आठ अगस्त वर्ष 2024 को प्रस्तुत किया. संशोधन विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया. जेपीसी ने इस पर व्यापक विचार मंथन किया. समिति में सभी दलों के सांसद शामिल हैं. जेपीसी ने सभी मुस्लिम संगठन, यहां तक कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की भी आपत्तियों को सुना और अध्ययन किया. जेपीसी द्वारा की गयी सिफारिशों को फिलहाल स्वीकार कर संशोधन बिल को लोकसभा में प्रस्तुत करने की तैयारी की जा रही है.
किसी भी कानून के निर्माण, संशोधन की प्रक्रिया या प्रावधानों के प्रभाव पर किसी को भी आपत्ति हो सकती है. सरकार को ऐसी आपत्तियों पर गौर भी करना जरूरी है. लोकतंत्र में संसद में बहुमत के बिना कोई भी संशोधन पारित नहीं हो सकता. वक्फ़ बिल संशोधन की पूरी प्रक्रिया संविधान सम्मत चल रही है.अगर मान लिया जाए कि, इस प्रक्रिया के अंतर्गत संशोधनों को पारित कर दिया जाएगा तो विधेयक पारित होने के बाद भी कानून में लड़ाई के दरवाजे बंद हो जाएंगे ऐसा तो नहीं कहा जा सकता.
कितने कानून और संशोधन के संबंध में ऐसे उदाहरण हैं, जिनको सर्वोच्च न्यायालय ने रोका है या फिर बदला है. संवैधानिक प्रक्रिया तो यही है कि, कानून को संसद की परीक्षा पार करने दिया जाए. उसके बाद किसी भी प्रस्तावित प्रावधानों की अवैधानिकता को आधार बनाकर सर्वोच्च न्यायालय में लड़ाई लड़ी जाए. अगर संशोधन कानून समाज के हित के विरुद्ध होगा तो निश्चित रूप से अदालत इस पर रोक लगाएगी.
सबसे चिंताजनक स्थिति है कि, संशोधन बिल में बाकी प्रावधानों के साथ ही इस प्रावधान का भी पुरजोर विरोध किया जा रहा है कि इसमें दूसरे धर्म के किसी सदस्य को शामिल नहीं किया जा सकता. यह बात इसलिए चिंता बढ़ा रही कि देश के विभाजन की शुरुआत भी इसी सोच पर ही हुई थी. उस समय के मुसलमानों के सबसे बड़े रहनुमा रहे मोहम्मद अली जिन्ना ने यही तर्क रखा था कि, उन्हें अपने धर्म के लोगों के लिए अलग राष्ट्र चाहिए. जो भी हालात बने लेकिन भारत धर्म के आधार पर विभाजित हो गया.
यह अलग बात है आज धर्म के आधार पर बना राष्ट्र पाकिस्तान, बिखरने के मुहाने पर खड़ा है. प्रगति के मामले में भारत से मीलों पीछे है. धार्मिक कट्टरता वहां जरूर चरम पर है लेकिन उन्नति और बेहतरी धरातल पर भी नहीं बची है.
जो सोच विभाजन के लिए जिम्मेदार हैकि मुस्लिम हिंदुओं के साथ नहीं रह सकते, लगभग वैसी ही सोच अभी भी कायम प्रतीत होती है. दूसरे धर्म के सदस्य को वक्फ़ बोर्ड में शामिल करने के प्रावधानों के विरोध के पीछे भी वैसी ही विभाजनकारी मानसिकता दिखाई पड़ रही है.
जब अनेकता ही हमारी ताकत है. कानून का राज हमारा जीवन है तो अगर बोर्ड में कोई हिंदू सदस्य शामिल किया जाता तो इससे हमारी अनेकता ज्यादा मजबूत होगी. अगर एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के अनुयाई के आंचरण पर धर्म के आधार पर संदेह करेंगे तो फिर तो भारत आजादी के समय की विभाजन की विभीषिका पर जा खड़ा होगा.
देश में दूसरा विवाद औरंगज़ेब की कब्र को लेकर हो रहा है. इतिहास को तो बदला नहीं जा सकता लेकिन आक्रांता के इतिहास को सिर पर ढोया भी नहीं जा सकता. मृत्यु के बाद तो सब कुछ समाप्त हो जाता है लेकिन औरंगजेब तो कब्र में भी भारत में दंगे कराने की क्षमता रखता है. नागपुर के सांप्रदायिक दंगे हमारे सामने हैं. कोई भी नफरत या अफवाह फैला देगा और लोगों के घर जला दिए जाएंगे. दुकानें जला दी जायेंगी तो फिर कानून का राज बचेगा ही नहीं.
किसी को कोई शिकायत, समस्या या फिर कोई दिक्कत है तो कानून के राज में सारे रास्ते खुले हुए हैं हमें उस सोच से दूर होना होगा. चाहे वह हिंदुओं की तरफ से हो या फिर मुसलमानों की तरफ से, जिसमें कानून हाथ में लेकर राष्ट्रीय संपत्ति, मानव जीवन और इंसानियत को नुकसान पहुंचाया जाता है.
धर्म भीतर का विषय है. धर्म निजी है. धर्म सिखाया नहीं जा सकता. धर्म अनुभूति है. बाहर भी किसी बात के लिए भीतर के धर्म को उद्धेलित नहीं किया जा सकता. इस बात पर धर्म सम्मत अगर नहीं सोचा गया तो भारत को संकट से कोई नहीं बचा सकता.
यह तो नहीं माना जा सकता कि अगर दूसरे धर्म का व्यक्ति कोई निर्णय कर रहा है तो वह इसलिए उसके खिलाफ करेगा क्योंकि उसमें उसकी धार्मिक आस्था नहीं है. ऐसी सोच छोड़ना होगा तभी भारत का भविष्य सुरक्षित रहेगा.