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मध्य प्रदेश में बजने लगी मोहन यादव की मुरलिया 

सार

इतने कम समय में ही मोहन यादव ने बतौर मुख्यमंत्री अपनी छाप छोड़ी है। उनके सौ दिन बुरे फैसलों के लिए कम अच्छे फैसलों के लिए ज्यादा याद किए जा सकते हैं..!!

janmat

विस्तार

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव को सूबे की कमान संभाले सौ दिन हो गए हैं। जब उन्हें साढ़े सोलह साल मुख्यमंत्री रहे शिवराज सिंह चौहान की जगह प्रदेश की कमान सौंपी गई और वह भी कैलाश विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल सरीखे दिग्गज नेताओं के सामने, तब उनका कद काफी बौना नजर आ रहा था। 

वैसे तो किसी नेता के मुख्यमंत्री के रूप में आकलन के लिए सौ दिन का वक्त कम होता है। कम से कम छह महीने का वक्त किसी मुख्यमंत्री के कद के आकलन के लिए जरूरी होता है। लेकिन इतने कम समय में ही मोहन यादव ने बतौर मुख्यमंत्री अपनी छाप छोड़ी है। उनके सौ दिन बुरे फैसलों के लिए कम अच्छे फैसलों के लिए ज्यादा याद किए जा सकते हैं।

राजनीतिक और रणनीतिक कला कौशल में तो शिवराज सिंह की कोई सानी नहीं थी। लेकिन प्रशासनिक मोर्चे पर उनका पक्ष सदा कमजोर नजर आया। लेकिन यादव ने राजनीतिक चतुराई के साथ ही प्रशासनिक दक्षता का जो प्रदर्शन किया है, उससे कहा जा सकता है कि वह सौ दिनों में बेहतर मुख्यमंत्री साबित हुए हैं। 

भाजपा के लंबे शासनकाल में प्रशासनिक धमक की कमी पूरी शिद्दत से महसूस की जाती रही है। लेकिन यादव ने सौ दिन में ही प्रशासनिक धाक कायम की है। गलत काम करने वाले अफसरों को चलता करने में उन्होंने जरा भी देरी नहीं लगाई। इससे प्रशासनिक गलियारों में उनको हल्का लेने के हिम्मत करने में अफसर हिचकते साफ देखे जा सकते हैं।

बात सिर्फ बेलगाम रहे नौकरशाहों पर लगाम कसने तक सीमित नहीं है। उन्होंने सामाजिक कल्याण की योजना से लेकर नारी सशख्तीकरण और गौ संवर्धन जैसे भाजपा के लिहाज से संवेदी पहलुओं को छुआ है। किसान कल्याण से लेकर महिला कल्याण की शिवराज सिंह चौहान के वक्त शुरू की गई योजनाओं से भी कोई छेड़छाड़ नहीं की है। 

नगरीय विकास को लेकर उनका अपना नजरिया तो है ही साथ में उन्होंने शहरों से लेकर सड़कों तक के कायाकल्प के लिए मशहूर रहे अपने वरिष्ठ सहयोगी नेता कैलाश विजयवर्गीय की मदद लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई है। इसी तरह ग्रामीण विकास के मामले में प्रहलाद पटेल सरीखे वरिष्ठ साथी के ग्रामीण विजन को अपनाने में उन्होंने कोई गुरेज नहीं किया है। निर्णय लेने और गलत फैसलों को बदलने में वह कतई देरी नहीं करते। यही बात उन्हें एक अलग मुकाम पर खड़ा करती है।

साफ तौर पर कहा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव के मुहाने पर सदभाव और सामंजस्य की राजनीतिक पटरी पर अपनी विकास की रेल को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह सरीखे पार्टी के शीर्ष दिग्गज नेताओं के मान सम्मान और उनकी भावनाओं का पूरा ध्यान रखते हुए अपने राजनीतिक सफरनामे को आगे बढ़ाने की कोशिश की है। 

सूबे में सभी 29 सीटों का सपना उनकी आंखों में हैं, इसके लिए वह पार्टी के हरेक नेता के साथ कदमताल करते हुए आगे बढ़ रहे हैं। फिर चाहे वह प्रदेश भाजपा के युवा तुर्क वीडी शर्मा हों या फिर वरिष्ठ सहयोगी नरेंद्र सिंह तोमर, राजेंद्र शुक्ला हों या सियासी फलक पर चमकता ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसा चेहरा क्यों न हो, सभी का वह सहयोग ले रहे हैं। मोहन यादव को इस बात का भी पूरा अंदाजा है कि भाजपा हाईकमान ने उन्हें लोकसभा चुनाव के ऐन पहले मुख्यमंत्री क्यों बनाया है? उन्हें पता है कि मोदी-शाह ने यादव को मुख्यमंत्री बनाकर उत्तर प्रदेश, बिहार और हरियाणा के यादव समाज के बंधुओं में यह संदेश देने की कोशिश की है कि पिछड़ा वर्ग को आगे बढ़ाने वाली भाजपा को यादव समाज से कोई गुरेज नहीं है। 

विधानसभा चुनावों में यूपी में अखिलेश यादव और बिहार में लालू यादव और उनके बेटे तेजस्वी यादव को यादव समाज के वोट भले ही बल्क में मिलते हों। लेकिन जब लोकसभा चुनावों की बारी आती है तो तकरीबन साठ फीसदी यादव समाज के वोट भाजपा और नरेंद्र मोदी के पाले में गिरते हैं। मोदी-शाह ने मोहन यादव को मप्र का मुख्यमंत्री बनाकर लोकसभा चुनाव में यादव समाज के सत्तर से नब्बे फीसदी वोट भाजपा के पक्ष में जुटाने का दांव खेला है।

मोहन यादव इसी के चलते पहले सौ दिन में जहां प्रदेश के विकास के लिए जरूरी योजनाओं को अंजाम देने के काम में लगे रहे और अब उनकी असली परीक्षा की बारी लोकसभा चुनावों में है। भाजपा यूपी और बिहार के साथ हरियाणा में यादव बाहुल्य सीटों पर उनका जमकर इस्तेमाल करने वाली है। मोहन यादव भी मध्यप्रदेश में अपनी सौ दिनों की पारी को आगे बढ़ाने के साथ ही इस मोर्चे पर रणनीति बना चुके हैं। हां यादव को सौ दिन की अपनी मुख्यमंत्री के बतौर यात्रा को आगे बढ़ाने के लिए उन राजनीतिक, गैर राजनीतिक और कुछ प्रशासनिक क्षेत्र के लोगों से सावधान रहने की जरूरत जरूर है जो उनके अब तक के मुख्यमंत्री के बेदाग सफरनामे को दाग लगाने की कोशिश कर रहे हैं। 

यादव को यह तय करना है कि मोहन की मुरलिया सूबे के विकास और उनके अपने राजनीतिक ग्राफ को ऊंचा करने के लिए बजेगी या उनकी छवि खराब करने वालों के संरक्षण में। कर्म की महत्ता को तवज्जो देने वाले मोहन को उन्हें गढना या अकर्म को आगे बढाकर कर्म के रास्ते को छोड़ने की राह अपनाना है।