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सर्वे पर सवार MP का सियासी वार

सार

चुनाव के पहले आये सावन में सियासत सर्वे के झूले पर झूल रही है. कोई कह रहा है कमलनाथ का सर्वे ही सर्वेसर्वा है तो कोई कह रहा है काहे का सर्वे, शिवराज ही सबसे बड़ा सर्वे है. सर्वे के बहाने सियासी दांव साधे जा रहे हैं. सियासी खिलाड़ी सर्वे के नाम पर चुनावी भविष्य के लिए ज्योतिषियों के चक्कर लगा रहे हैं. सर्वे की निष्पक्षता सवालों के घेरे में है. दलीय राजनीति सर्वे के बहाने पसंद और नापसंद की लीडरशिप को आगे पीछे करने के खेल में व्यस्त है..!

janmat

विस्तार

जमीनी सियासत सर्वे पर आकर टिक गई है तो इसका मतलब यही है कि पब्लिक कनेक्ट लगातार कम होता जा रहा है. सर्वे का रहस्य, सर्वे कराने वाला नेता ही जानता है. उसकी सच्चाई का रहस्य चुनाव में प्रत्याशी निर्धारित करने के लिए नेता पर सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में ही उपयोग होता दिखाई पड़ता है.

लीडरशिप की पहचान के लिए सर्वे का सहारा सभी दल ले रहे हैं. कमलनाथ तो सर्वे के ही नाथ कहे जा सकते हैं. जब से मध्यप्रदेश में आए हैं तब से प्रत्याशियों के चयन के लिए सर्वे को ही आधार मानने का दावा कर रहे हैं. सामान्यतः पॉलीटिकल सर्वे में लीडरशिप के बारे में ओपिनियन कलेक्ट की जाती है. इसमें प्रमुख रूप से ऑनेस्टी, एफिशिएंसी पापुलैरिटी, पब्लिक इमेज और परसेप्शन की खोज की जाती होगी. जब सभी दल इन्हीं मानकों पर प्रदेश में अपने भावी नेताओं का चुनाव करते हैं तो फिर चुने जाने के बाद नेताओं में इन मानकों का कोई प्रमाणित स्वरूप दिखाई क्यों नहीं पड़ता?

सियासत में जिस ढंग से दलबदल हो रहे हैं उससे तो यह सबसे जरूरी हो गया है कि पार्टियों को सबसे पहला सर्वे यह कराना चाहिए कि कौन जीतने के बाद पार्टी के साथ रहेगा और कौन पार्टी के साथ नहीं रहेगा? मध्यप्रदेश में कमलनाथ ने 2018 के चुनाव में भी सर्वे के आधार पर ही टिकट बांटे थे और जो लोग जीते थे वह सब उनके सर्वे में अच्छे नेता के रूप में रहे होंगे तभी उन्हें टिकट दिए गए थे. फिर कैसे ऐसे हालात बन गए कि घर के चिरागों ने ही उनकी सरकार में आग लगा दी.

सर्वे के नाम पर राजनीतिक दलों में सियासत साफ़तौर पर देखी जा रही है. सियासत आज गुटों और निजी पसंद पर केंद्रित हो गई है. पब्लिक में लोकप्रियता को कई बार सर्वे के नाम पर कमजोर साबित कर दिया जाता है. ऐसे अनेक सर्वे को राजनेता झूठा और सियासी हथियार साबित करते हैं जिन्हें चुनावी राजनीति में मौका नहीं मिलता. सियासत में सर्वे के कारण लगातार बदलाव होता जा रहा है. अब पार्टियों के निचले स्तर की इकाई की भूमिका केवल कागजी रह गई है. गाइडेड नामों को कागज पर रिक्मेंट करने के लिए इन सर्वे इकाइयों का उपयोग किया जाता है. चुनावी राजनीति के दौर में नेताओं का विद्रोह आम बात है. इन विद्रोह में सियासी सर्वे भी एक कारण माने जाते हैं.

सियासी सावन में चुनावी सर्वे की झूम है. ना मालूम कितनी कंपनियां और सोशल मीडिया प्लेटफोर्म सर्वे के काम में जुटे हैं. हर सर्वे में अलग-अलग नेता प्रभावी बताए जा रहे हैं. दलों में सर्वे के नाम पर जोड़-तोड़ शुरू है. सर्वे किसी को सनाथ तो किसी को अनाथ बनाते दिखाई पड़ रहे हैं. जिसको भी राजनीतिक रूप से अस्वीकार करना है उसको यह कहना पर्याप्त है कि तुम्हारा नाम सर्वे में नहीं है.  

इन सर्वे का आधार क्या है? सर्वे के प्रश्न क्या थे? उन प्रश्नों के उत्तर क्या हैं? यह सब रहस्य ही बना रहता है. 'दुल्हन वही जो पिया मन भाए' की तर्ज़ पर लीडर वही जो शक्तिशाली नेता के मन को भाए. सर्वे में नाम शामिल कराने के पीछे यह गणित भी काम करता है कि भविष्य में सरकारी समीकरण बैठाने में कौन नेता कितना उपयोगी रहेगा? एमपी कांग्रेस जहां सर्वे की सियासत पर टिकी हुई है वही मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो स्वयं को सबसे बड़ा राजनीतिक सर्वेयर बता रहे हैं.

यह बात स्वीकार की जा सकती है क्योंकि पब्लिक कनेक्ट के मामले में शिवराज सिंह मध्यप्रदेश के सभी नेताओं से आगे हैं. शिवराज सिंह चौहान राज्य में जनता के बीच जितना लगातार पहुंचते हैं उतना दूसरे नेता नहीं कर सके हैं. कांग्रेस में दिग्विजय सिंह जरूर ऐसे नेता हैं जो पब्लिक के बीच जाकर जमीनी सियासत को दिशा देने का सामर्थ्य रखते हुए दिखाई पड़ते हैं. सर्वे की सियासत चुनाव में प्रत्याशी चयन तक के लिए तो हथियार हो सकती है लेकिन जनता के मन का सर्वे तो अनुभव और सक्रियता से ही भांपा जा सकता है.

मध्यप्रदेश में दोनों प्रतिद्वंदी दलों के राष्ट्रीय हाईकमान भी जमीनी  सर्वे कराने का दावा कर रहे हैं. अब तो ऐसे हालात बन रहे हैं कि सर्वे से सर्वे टकरा रहे हैं. नेताओं की लोकप्रियता और परफॉर्मेंस को भी सर्वे के आधार पर ही आंका जा रहा है. सियासत में कई सारे बदलाव भी सर्वे के सहारे ही करने का दावा किया जाता है. सारे सर्वे अब अंतिम निर्णय के लिए निर्णायक ताकतों के पास पहुंचते जा रहे हैं. सियासी बदलाव और प्रत्याशियों के चयन में सर्वे की हकीकत की सियासत का सच सामने आ ही जाएगा. 

राजनीतिक दलों में जो भी बदलाव दिखेगा उसकी प्रतिक्रिया भी निश्चित होगी. प्रत्याशियों के चयन में निष्पक्षता चाहे जमीनी अनुभव से आए चाहे सर्वे से आए, यही निष्पक्षता पार्टियों को जनादेश में लाभदायक साबित होगी. सियासी घात-प्रतिघात और अराजकता का दौर और प्रत्याशियों के चयन में घमासान के हालात ही चुनावी भविष्य की ज्योतिषीय गणना बताने में सक्षम हो सकेंगे.