भारत में भाषा और विशेषकर राजभाषा के मुद्दे पर दिमाग़ी कसरत जारी है. भारत की भाषा के सवाल का हल दो प्रकार से दिखता है, एक राजनीतिक चेतना की समझदारी और दूसरा न्याय तंत्र का प्रभावी दख़ल..!
भारत में भाषा और विशेषकर राजभाषा के मुद्दे पर दिमाग़ी कसरत जारी है। बहुत सी विभूतियाँ अपनी राय रख रही है, तो बहुत से लोग महज़ कौतूहलवश इस विषय पर ज़्यादा से ज़्यादा जानने समझने की कोशिश कर रहे हैं।ऐसे ही कुछ जागरूक पाठकों ने कुछ और जानना समझना चाहा है। कुल मिलाकर वे भारत में भाषा की पकड़ और उसके प्रावधान पर ही कुछ कहना और समझना चाहते हैं। भारत की भाषा के सवाल का हल दो प्रकार से दिखता है, एक राजनीतिक चेतना की समझदारी और दूसरा न्याय तंत्र का प्रभावी दख़ल।
राजनीति वोट बैंक को ध्यान में रखकर होती थी, होती है और होती रहेगी। न्यायतंत्र का नजरिया बदल रहा है। बदलने की भी वजह है, संविधान का अनुच्छेद 348। जिसके भाग-एक के अनुसार जब तक संसद कानून नहीं बनाती, तब तक सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट की पूरी कार्यवाही अंग्रेजी में ही होगी, की बाध्यता है। देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने इसी कार्यवाही को कुछ यूँ परिभाषित किया है। जैसे सनातन समुदाय के जन्म, मरण, मुंडन-जनेऊ, विवाह आदि सभी संस्कारों में पुरोहित का मंत्रपाठ अनिवार्य व्यवस्था है।
जिस तरह इन मंत्रों को ज्यादातर लोग नहीं समझते, वैसे ही उच्च न्यायपालिका की कार्यवाही को ज्यादातर फरियादी या वादी नहीं समझ पाते। भाषा वहां दिक्कत बन कर उठ खड़ी होती है।सबको लगभग इन्हीं अर्थों में उच्च न्यायपालिका का कर्म मंत्रोच्चार जैसा ही लगता है।उच्च न्यायपालिका की भाषा अंग्रेजी होने की वजह से यह सच है कि ज्यादातर लोग नहीं समझ पाते कि उनके मुकदमे में स्थगन आदेश मिला है या हार हुई है या वह जीत गया है। इसे समझने के लिए उसे न्यायमित्र की सेवाएँ लगती हैं ।
याद करें, जब गांधी जी ने इस पर विचार किया था, तो उन्होंने स्वाधीन भारत में अपनी भाषा में न सिर्फ शासन, बल्कि न्याय की भी बात की थी। निश्चित तौर पर, वो भाषा हिंदी थी, लेकिन हिंदी पर, विशेष कर तमिलनाडु राज्य से उठे सवालों और उसे उकसाने वाली राजनीति की वजह से, हिंदी को उसका स्थान नहीं मिल पाया। उच्च न्यायपालिका में लोक या राज्य की भाषा के व्यवहार की मांग अब तक किसी न किसी रूप में उठती ही है।
संविधान बनाने वालों को चुनौती का अनुमान था, इसी कारण संविधान के अनुच्छेद ३४८ के ही भाग-दो में विशेष प्रावधान हुआ। जिसके मुताबिक, राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की सहमति से अपने राज्य के आधिकारिक उद्देश्य के लिए इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी या अन्य भाषा के उपयोग को हाइकोर्ट की कार्यवाही के लिए अधिकृत कर सकता है।
राजभाषा अधिनियम, 1963 भी लगभग ऐसी ही बात करता है। इस अधिनियम की धारा-७ में प्रावधान है कि अंग्रेजी भाषा के अलावा किसी राज्य की हिंदी या आधिकारिक भाषा के उपयोग को राज्य के राज्यपाल द्वारा भारत के राष्ट्रपति की सहमति से अधिकृत किया जा सकता है। इसी प्रावधान के तहत राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के उच्च न्यायालयों में कार्यवाही, निर्णय और आदेश के लिए हिंदी के उपयोग को भी अधिकृत किया गया है। झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड के हाइकोर्ट के लिए भी हिंदी ही अधिकृत है।
अब बात समाज की। सशक्तीकरण की अवधारणा के चलते अब समाज के तमाम वर्गों में चेतना बढ़ी है। सोशल मीडिया ने भी लोक में चेतना और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने में योगदान दिया है। यही कारण है कि उच्चन्यायपालिका में अंग्रेजी की अनिवार्यता पर कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष सवाल उठते हैं।
इलाहाबाद हाइकोर्ट के एक कार्यक्रम में सितंबर 2021 में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा था, सभी को समय से न्याय मिले, न्याय व्यवस्था कम खर्चीली हो, सामान्य आदमी की समझ में आने वाली भाषा में निर्णय लेने की व्यवस्था हो और खास कर महिलाओं और कमजोर वर्ग के लोगों को न्याय मिले, यह हम सबकी जिम्मेदारी है।
देश के राष्ट्रपति भी सामान्य आदमी की समझ में आने वाली भाषा की बात कर रहे हैं, तो प्रधान न्यायाधीश इसे मंत्रोच्चार कह रहे हैं. प्रकारांतर से दोनों न्याय तंत्र में भारतीय भाषाओं के प्रवेश की ही वकालत कर रहे हैं। राजनीति को यह बात समझना चाहिए, देश के विकास के लिए एक राष्ट्र भाषा की ज़रूरत है, इस पर राजनीति न करें।