प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका में जब भारत का डंका बजा रहे हैं. तब भारत में मोदी विरोधी राजनीतिक गठबंधन के लिए विपक्षी दलों का शिखर सम्मेलन हो रहा है. बिहार और पटना ऐतिहासिक घटनाओं का केंद्र रहा है. विपक्षी राजनीति के नजरिए से यह सम्मेलन भी एक बड़ी घटना ही कही जाएगी.
भारत में विपक्षी गठबंधन की शुरुआत जिस कांग्रेस के विरुद्ध हुई थी. उसी कांग्रेस के वारिस राहुल गांधी क्षेत्रीय दलों के आंगन में गठबंधन के लिए छम छम करते दिखाई पड़ेंगे. इसमें कोई शक नहीं है कि कांग्रेस देश में मुख्य विपक्षी दल है. क्षेत्रीय दलों की राजनीति कांग्रेस से ही अलग होकर देश में उभरी है. कांग्रेस की मजबूरी यह है कि वह अकेले नरेंद्र मोदी और बीजेपी का मुकाबला करने में अपने आप को अशक्त मान रही है. क्षेत्रीय दलों से सहारा लेकर मोदी के मुकाबले में खड़े होने की छटपटाहट में कांग्रेस आज इस स्थिति में पहुंच गई है कि उसे नीतीश कुमार के बुलावे पर सम्मेलन में जाना पड़ रहा है.
बड़ा सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष विपक्षी दलों की बैठक में शामिल हो रहे हैं तो राहुल गांधी किस हैसियत से इस बैठक में जा रहे हैं? क्यों जा रहे हैं? यह पहला मौका है जब गांधी परिवार का वारिस गठबंधन के लिए किसी क्षेत्रीय दल के न्योते पर उसके आंगन में जाने को मजबूर है. राजनीतिक रूप से यह कदम सही दिशा में है या नहीं, यह तो वक्त के साथ ही साबित होगा. विपक्षी एकता के लिए जो भी राजनीतिक दल एकजुट हो रहे हैं उनमें से अधिकांश ऐसे दल और नेता हैं जो कांग्रेस से निकलकर ही क्षेत्रीय राजनीति में स्थापित हुए हैं.
विपक्षी दलों की बैठक 23 जून को हो रही है और देश में आपातकाल भी 25 जून को लगा था. आपातकाल के दौर और जेपी आंदोलन से निकले हुए नेता नीतीश कुमार और लालू यादव आज विपक्षी एकता के लिए उसी कांग्रेस के वारिस के लिए पलक पावड़े बिछाते दिख रहे हैं. जिस कांग्रेस के खिलाफ संघर्ष पर ही उनकी राजनीति खड़ी हुई थी. राजनीति में विरोधाभास कब सहवास में बदल जाता है यह कहना बहुत मुश्किल होता है.
सत्ता के खिलाफ विपक्षी गठबंधन का भारतीय इतिहास इस बात का गवाह है कि सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों पर गठबंधन खड़े हुए हैं. ऐसा पहली बार दिखाई पड़ रहा है कि जिस नेता और सरकार के खिलाफ विपक्षी गठबंधन खड़ा होने की कोशिश कर रहा है. उसके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप खड़े नहीं हो सके हैं. इसके विपरीत विपक्षी राजनीतिक दलों के कई नेता भ्रष्टाचार के आरोप में न केवल घिरे हुए हैं बल्कि कई नेता तो अदालतों से जमानत पर हैं. बीजेपी इसीलिए विपक्षी गठबंधन के प्रयासों को भ्रष्टाचार और परिवारवाद की पार्टियों का महाठगबंधन निरूपित करने की कोशिश करती है. पटना में ऐसे संदेश देने वाले पोस्टर राजनीतिक चर्चा का विषय बने हुए हैं.
विपक्षी गठबंधन के लिए जो भी दल इकट्ठे हो रहे हैं उनमें से कई दल पहले से ही UPA में कांग्रेस के साथ गठबंधन में हैं. मुख्य रूप से चार दल हैं जिनकी मोदी विरोधी गठबंधन में भूमिका हो सकती है. पश्चिम बंगाल में टीएमसी, दिल्ली में आम आदमी पार्टी, तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी. इन दलों के अप्रोच और रणनीतियां विपक्षी एकता को आयाम देने में महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं.
इन राज्यों में क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस के साथ सीधा मुकाबला है. लोकसभा की 139 सीटें इन राज्यों में आती हैं. जिस तरह का फॉर्मूला अब तक सामने आ रहा है उसमे बीजेपी के खिलाफ विपक्ष का एक ही उम्मीदवार उतारे जाने की रणनीति पर विचार हो रहा है. सबसे बड़ा सवाल यही है कि अपने राज्यों में यह सभी दल कांग्रेस के लिए क्या सीटें छोड़ने को तैयार हैं? दो चार की सीमित संख्या में यह दल कांग्रेस के साथ सीटें शेयर करने को तैयार हो गए तो उससे मामला बनता दिखाई नहीं पड़ रहा है. कांग्रेस भी इस स्थिति में नहीं है कि लोकसभा की इतनी संख्या में सीटें गठबंधन के लिए छोड़ सके.
विपक्षी गठबंधन में एक बाधा मुस्लिम वोट बैंक भी है. सभी क्षेत्रीय दल और कांग्रेस मुस्लिम वोट बैंक पर अपना अधिकार मानते हैं. मुस्लिम वोट बैंक खिसक नहीं जाए इसलिए कोई स्थापित क्षेत्रीय दल कांग्रेस को अपने राज्यों में सीटें देने के लिए तैयार नहीं होगा. कर्नाटक की जीत के बाद कांग्रेस जहां एक तरफ उत्साहित है वहीं विपक्षी क्षेत्रीय दल इस बात से आशंकित हैं कि कांग्रेस की चुनावी सफलता उनके लिए फांसी का फंदा बन सकता है.
विपक्षी एकता में एक ओर बड़ी रुकावट प्रधानमंत्री पद का चेहरा है. हर दल के नेता अपने को प्रधानमंत्री के रूप में प्रचारित करने में लगे हुए हैं. आम आदमी पार्टी ने तो पटना में एक पोस्टर लगाया है जिसमें नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खासमखास बताते हुए अरविंद केजरीवाल को प्रधानमंत्री के रूप में दिखाया गया है. कांग्रेस की ओर से तो राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारी हमेशा उपलब्ध ही है. ऐसे में पीएम फेस पर भी विपक्ष के बीच एकता होना नामुमकिन सा लग रहा है. नीतीश कुमार भले ही यह कह रहे हैं कि पीएम फेस चुनाव बाद तय हो जाएगा लेकिन कोई भी दल अपने चेहरे को स्थापित किए बिना गठबंधन में जाना नहीं चाहेगा.
विपक्षी दलों की इस बैठक में अजीब सी स्थिति दिखाई पड़ रही है. अरविंद केजरीवाल दिल्ली में केंद्र सरकार द्वारा जारी अध्यादेश को विपक्षी मीटिंग का सबसे पहला मुद्दा बनाना चाह रहे हैं तो कांग्रेस इससे बचना चाहती है. इस मुद्दे पर कांग्रेस ने केजरीवाल को मुलाकात का समय तक नहीं दिया है. ममता बनर्जी बंगाल में कांग्रेस और कम्युनिस्ट के बीच सांठगांठ को गठबंधन के लिए सबसे बड़ी बाधा के रूप में सामने रख रही है.
राजनीति संभावनाओं को खेल है. पटना में विपक्षी गठबंधन के लिए विपक्षी दलों का जुटना निश्चित रूप से पहला कदम तो कहा ही जाएगा. यह गठबंधन आकार ले पाएगा या नहीं लेकिन कम से कम शुरुआत करने में तो नीतीश कुमार ने पहली सफलता हासिल कर ली है. कई दिनों के बाद विपक्षी एकता का ऐसा वातावरण दिखाई पड़ रहा है. नीतीश कुमार के सरकारी बंगले के आंगन से कई दिनों के बाद विपक्षी एकता का धुआं दिखाई पड़ रहा है.
गठबंधन राजनीति का प्रयोग भारत में कभी भी बहुत सफल नहीं रहा. जब भी गठबंधन की राजनीति परवान चढ़ी है. तब इसके केंद्र में कोई ना कोई ऐसा व्यक्तित्व रहा है, जिसको राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था. इमरजेंसी के समय जयप्रकाश नारायण और यूपीए सरकार के समय अन्ना हजारे के कारण राजनीति का नया उदय हो सका था. फिलहाल, विपक्षी दलों के साथ ऐसा कोई व्यक्तित्व दिखाई नहीं पड़ रहा है. बिना जेपी जैसे व्यक्तित्व के बीजेपी के खिलाफ विपक्षी गठबंधन की रेसिपी और जायका जमता हुआ दिखाई नहीं पड़ता है.