आईएएस,आईपीएस,आईएफएस और आईआरएस बनने के बाद वैसे तो कुछ बनने के लिए बचता नहीं है। ऐसी आम धारणा है कि जनता की सेवा के लिए अखिल भारतीय सेवाओं से बड़ा कोई माध्यम नहीं हो सकता लेकिन इन सेवाओं के कई नौकरशाहों की महत्वाकांक्षा राजनीति में जाने के लिए उछाल मारती रहती है। अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक सफलता के बाद नौकरशाहों में नई राजनीतिक चेतना विकसित हुई है।
मध्यप्रदेश में हाल ही में आईएएस की नौकरी से इस्तीफा देकर डाक्टर वरदमूर्ति मिश्र ने राजनीतिक दल बनाने का ऐलान किया है। उनका संकल्प है कि मध्यप्रदेश में तीसरे दल की कमी को पूरा करेंगे और राज्य के सभी विधानसभा क्षेत्रों में उनकी पार्टी चुनाव लड़ेगी। अभी पार्टी का नाम और चेहरे सामने नहीं आए हैं। ऐसा माना जा सकता है कि वरदमूर्ति मिश्र का नौकरी से इस्तीफा देकर राजनीतिक दल बनाने का ऐलान एक गंभीर प्रयास होगा। उनके पीछे जरूर मजबूत ताकतें होंगी।
मध्यप्रदेश में तीसरे दल की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है। नगरीय निकाय चुनाव में तीसरे दल को मिली सफलता के भी यही राजनीतिक मायने निकाले जा रहे हैं कि अगले विधानसभा चुनाव में मजबूत तीसरा दल सत्ता की चाबी बन सकता है।
वरदमूर्ति मिश्र ने भी सोच समझकर राजनीतिक कदम बढ़ाया होगा। मिश्र अकेले आईएएस नहीं है जिनमें राजनीतिक महत्वाकांक्षा उछाल मार रही है। समय-समय पर कई अफसर सोशल मीडिया पर जिस तरह की विवादास्पद टिप्पणियां करते रहे हैं, वह सब राजनीतिक महत्वाकांक्षा ही प्रदर्शित करती हैं। सरकारी नौकरी खासकर अखिल भारतीय सेवाओं की नौकरी मिलना कठिन है लेकिन चलाना अपेक्षाकृत सहज और सुविधापूर्ण होता है। एक बार नौकरी मिल गई तो फिर गाड़ी-घोड़ा, बँगला सब सुविधाएं निर्धारित हैं। इन सेवाओं के अधिकारी बिल्कुल पाकीजा फिल्म के उस डायलॉग का आनंद और सुविधा उठाते हैं कि पैर जमीन पर मत रखो मैले हो जाएंगे।
सरकारी नौकरी जितनी सुविधा पूर्ण है जनता की राजनीति उतनी ही टेढ़ी-मेढ़ी है। नौकरी जहां पाना कठिन है चलाना आसान है. वहीं राजनीतिक दल बनाना आसान है चलाना कठिन है। ऐसा नहीं है कि नौकरशाहों को इस बात का आभास नहीं होता, फिर भी वे राजनीति की ओर क्यों भागते हैं यह शोध का विषय होना चाहिए? ब्यूरोक्रेट सिस्टम में अपनी सीआर आउटस्टैंडिंग रखने के लिए सब कुछ दांव पर लगाते हैं। राजनीति की सीआर जनता लिखती है और हर पांच साल में जनता उसका मूल्यांकन भी करती है। राजनीति जितना आसान दिखती है, उतनी होती नहीं है।
ब्यूरोक्रेट ऐसा महसूस करते हैं कि दूरस्थ अंचलों में सीधे-साधे अनपढ़ लोग कई वर्षों से जनप्रतिनिधि बने हुए हैं और जनता के लिए कुछ भी नहीं करते हैं। राजनीति को लेकर ऐसी सोच सतही होती है। आज सरकारी नौकरी और व्यापार से ज्यादा राजनीति का काम कठिन और चुनौतीपूर्ण है।
संसदीय शासन प्रणाली में जितने भी मजबूत राजनीतिक दल रहेंगे, जनता को चुनने में उतनी ही सहूलियत होगी। साथ ही जनसेवा में क्वालिटी बढ़ेगी। जब ऐसी स्थिति रहती है कि दो में से किसी एक को चुनना है, तो कई बार विकल्पहीनता का लाभ राजनीतिक दल उठाते हैं। ऐसी स्थिति लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती। मध्यप्रदेश में अभी तक तो कांग्रेस और भाजपा के बीच ही सत्ता का हस्तांतरण होता रहा है। पहले प्रदेश की राजनीति पर कांग्रेस का दबदबा था तो अब भाजपा हावी है।
इस बीच कई बड़े नेताओं द्वारा तीसरे दल के विकल्प देने की कोशिश की जा चुकी है। अर्जुन सिंह ने तिवारी कांग्रेस बनाई थी, माधवराव सिंधिया की मध्यप्रदेश विकास कांग्रेस बनी थी। उमा भारती ने भारतीय जनशक्ति के रूप में तीसरा विकल्प बनने की कोशिश की लेकिन यह सभी कोशिशें परवान नहीं चढ़ सकीं। यह सभी नेता बाद में फिर अपने मूल दलों में समाहित हो गए थे।
बहुजन समाज पार्टी भी कभी तीसरे दल के रूप में मध्यप्रदेश में पहचानी जा रही थी लेकिन धीरे-धीरे वह भी पीछे खिसक गई। नगरीय निकाय चुनाव में आम आदमी पार्टी सिंगरौली का महापौर पद जीतने में सफल हुई है। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी भी मध्यप्रदेश में कुछ पार्षद पदों पर पहली बार जीतने में सफल रही है। यह दोनों दल विधानसभा के अगले चुनाव में खास करने के सपने संजो रहे हैं।
तीसरे दल की संभावनाओं के लिए कई प्लेयर मैदान में होंगे। वरदमूर्ति मिश्र का राजनीतिक दल भी जोर आजमाइश करेगा। तीसरे दल की संभावना तभी आकार ले सकेगी, जब उनमें एकता होगी। विभाजित तीसरे दल कुछ भी कर पाएंगे, ऐसा नहीं लगता। जहां तक राजनीति में ब्यूरोक्रेट की सफलता का सवाल है तो अभी तक तो राजनेताओं ने ही अपने चहेते नौकरशाहों को राजनीति में आगे बढ़ाया है।
जैसे यह नौकरशाह सेवा में सिलेक्ट हुए थे वैसे ही राजनेताओं द्वारा उन्हें राजनीति के लिए सिलेक्ट किया गया था। इनमें सबसे पहला नाम अजीत जोगी का लिया जा सकता है, जिन्हें अर्जुन सिंह ने बढ़ाया और बाद में वह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचे। इसी प्रकार सुशील चंद्र वर्मा, भागीरथ प्रसाद जैसे ब्यूरोक्रेट हैं जो सांसद बने। सपाक्स पार्टी ने भी पिछले चुनाव में काफी शोर मचाया था। इसके पीछे कुछ पूर्व नौकरशाह थे लेकिन सपाक्स कुछ खास करने में सफल नहीं हो सके। केजरीवाल को छोड़कर कोई भी नौकरशाह अभी तक जन संघर्ष करते हुए राजनीतिक सफलता हासिल नहीं कर सका है। केजरीवाल बनने की कोशिश कितने भी लोग कर लें लेकिन हर कोई केजरीवाल नहीं बन सकता।