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हम जुड़ेंगे ,देश जुड़ेगा - देश जुड़ा तो ही बचेगा 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Fri , 04 Oct

सार

नागरिक विकल्पहीनता के चलते आमचुनाव में उन्हें ही मजबूरी में चुनते हैं, जिनकी मंशाए गुप्त होती है, नाम मात्र को ये तथाकथित बड़े दल अपने दल के भीतर प्रजातंत्र की बात करते हैं..!

janmat

विस्तार

प्रतिदिन-राकेश दुबे 

02/09/2022

कोई संदेह नहीं कि यह बात देश के राजनीतिक दल नहीं समझते | उनके लिए देश और नागरिकों से ज्यादा महत्वपूर्ण कुर्सी और उससे होने वाले असंख्य लाभ है | और, यह सवाल सालों टलता चला आ रहा है या टाला जाता रहा है।  नागरिक विकल्पहीनता के चलते आमचुनाव  में उन्हें ही मजबूरी में चुनते हैं, जिनकी मंशाए गुप्त होती है | नाम मात्र को ये तथाकथित बड़े दल अपने दल के भीतर प्रजातंत्र की बात करते हैं | इनकी पहली प्राथमिकता  स्वकल्याण से अधिक नहीं होती |

वर्तमान परिदृश्य का सबसे चिंताजनक पहलू लोकतांत्रिक संस्थाओं का ध्वंस और दैनिक लोकाचार के न्यूनतम प्रतिमानों का सिकुड़ते जाना ही नहीं,  इसे मिल रहा खुला समर्थन है। बहुत ही सुचिंतित और संगठित तरीके से तथ्यों के साथ छेड़छाड़, एक काल्पनिक दुनिया रचते हुए जड़बुद्धि-मूर्खतापूर्ण हरकतों को बढ़ावा देते जाने का नतीजा ही है कि लोगों का दिमाग कुंद होता जा रहा है और समाज तेजी से अधःपतन की ओर जा रहा है| इस परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए “भारत जोड़ो यात्रा” हो रही है | ऐसी यात्राये देश में पहले भी हुई, नतीजा सबके सामने है | “हम”  शब्द के ‘ह’ और ‘म’ को हर बार दूर किया गया | भारत जोड़ो तब ही सार्थक है जब “हम” जुड़े | यदि हम नहीं जुड़े तो भारत जुड़ेगा ही नहीं बचेगा, इसमें संदेह है |

याद रखिये, किसी भी चेतना संपन्न देश  के नागरिक कभी भी भय में नहीं जीते, आजकल पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा है । जानकार आटा, दूध पर जी एस टी से नोट बंदी तक गिना देते हैं |  ऐसे ही कारण देश के नागरिको की आज़ादी पर प्रश्न चिन्ह है वास्तव में, भय से मुक्ति ही हर तरह की आजादी का मूल है। पंडित नेहरू अपनी आत्मकथा में १२ वीं शताब्दी के महाकाव्य ‘राजतरंगिणी’ में कल्हण का वाक्यांश‘ धर्म और अभय’ का बड़े उत्साह से याद करते हैं। नेहरू लिखते हैं ‘(यह) कानून और व्यवस्था के अर्थ में इस्तेमाल किया जाता है, कुछ ऐसा जो शासक और राज्य का कर्तव्य था और उसे यह सुनिश्चित करना था- धार्मिकता और भय से मुक्ति। कानून सिर्फ कानून नहीं, उससे बढ़कर कुछ था और व्यवस्था का मतलब लोगों का भय मुक्त होना था।  आज सवाल यह है किभयमुक्त समाज बनाने के बजाय पहले से भयभीत जनता पर ‘व्यवस्था’ थोपने के  विचार कहां तक और कितना जायज है?’

भारत दुनिया का सबसे बड़ा जनतांत्रिक देश है। पिछले पचहत्तर सालों में जनतंत्र के कई कीर्तिमान भी स्थापित हुए हैं | लेकिन हकीकत यह भी है कि स्वतंत्रता के शुरुआती दस-बीस सालों के बाद मूल्यों और आदर्शों की दृष्टि से गिरावट का एक क्रम शुरू हो गया था, जो , दुर्भाग्य से, लगातार जारी है। इस गिरावट को रोकना ज़रूरी है। इसीलिए, यह भी ज़रूरी है कि राजनीतिक दलों की गतिविधियों पर जनतंत्र के नागरिक लगातार नज़र बनाये रखें। यह नज़र बनाये रखने का एक तरीका वोट के माध्यम से राजनीतिक दलों पर अंकुश बनाये रखने का है, और दूसरा तरीका है राजनीतिक नेतृत्व की कथनी-करनी पर नज़र गड़ाए रखना। आज यदि कहीं पर लग रहा है कि सत्तारूढ़ दल अपनी ताकत पर इतराने लगा है, अथवा यह मानकर चल रहा है कि वह अपनी मनमानी करते रह सकता है तो उसे बताना ज़रूरी है कि जनतंत्र में शासक नेता नहीं, मतदाता होता है। यदि यह भी दिखता है कि विपक्ष अपनी भूमिका ढंग से नहीं निभा रहा तो उसे भी चेतावनी देने का काम मतदाता को ही करना होता है। जनतंत्र का असली चौकीदार मतदाता ही होता है, न तो उसकी आंख लगनी चाहिए और न ही उसका ध्यान बंटना चाहिए।

आज सत्तारूढ़ दल का इस  गलतफहमी में जीना और विपक्ष का कमज़ोर होते जाना जनतंत्र के औचित्य पर सवालिया निशान लगा रहा है। आज यह दोनों बातें होती दिख रही हैं। सत्तारूढ़ दल को लग रहा है कि वह अपनी ताकत बढ़ाने के लिए कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है और विपक्ष यह मानकर चलता दिख रहा है कि उसकी ताकत अपने आप बढ़ जायेगी। भाजपा और कांग्रेस दोनों ग़लतफहमी में जी रहे हैं। यह दोनों बातें जनतंत्र के लिए खतरे की घंटी हैं। देश में जिस तरह सरकारें गिरायी-बनायी जा रही हैं, उसके औचित्य पर सवाल अक्सर उठते रहते हैं। जल्दी ही कांग्रेस का देश जोड़ो अभियान शुरू होने वाला है। देश जोड़ने के लिए जनता को जोड़ने की कोशिश पहले होना चाहिए | इसके लिए पक्ष और विपक्ष नहीं नीयत साफ होना चाहिए|  देश को बचाने ,जोड़ने की पहली सीढ़ी हमारा अपना आपस इ जुड़ना है | यह बात  महत्वपूर्ण है , लेकिन इससे कहीं महत्वपूर्ण यह है कि प्रतिपक्ष [कांग्रेसऔर अन्य] अपनी कमज़ोरियों को समझने की कोशिश करे| गिरते स्तंभों से भवन जीर्ण ही होता है, प्रजातंत्र में मजबूत प्रतिपक्ष जरूरी है |