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पंचायतें विकास या विकार की पहली इकाई?

सार

मध्यप्रदेश में जनपद और जिला पंचायत के अध्यक्षों के चुनाव पूरे हो गए। गैरदलीय आधार पर हुए इन चुनावों में कांग्रेस और भाजपा दोनों की ओर से ज्यादा सीटें जीतने का दावा किया जा रहा है। सामान्य रूप से एक और एक का जोड़ दो होता है लेकिन राजनीति के गणित में शायद एक और एक का जोड़ ग्यारह हो सकता है। जनपद और जिला पंचायत अध्यक्षों के मामले में ऐसा ही हो रहा है। 313 जनपद पंचायतों में 226 सीट जीतने का दावा भाजपा कर रही है तो 167 पर जीत का दावा कांग्रेस का है। प्रदेश के लोग भ्रमित हैं कि वास्तव में किस पार्टी के खाते में कितनी सीटें आई हैं?

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विस्तार

आश्चर्य की बात यह भी है कि यह चुनाव दलीय आधार पर नहीं लड़े गए थे। जो भी प्रत्याशी चुनाव में उतरे थे वह किसी दल के सिम्बल पर नहीं थे। उस व्यक्ति की राजनीतिक प्रतिबद्धता को देखकर दोनों दल अपनी अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। ऐसे में पंचायतों के परिणामों का सच शायद ही जनता के सामने आ पाएगा। 
 
पंचायत राज संशोधन कानून जब लाया गया था तब इसके पीछे उद्देश्य यही था कि स्थानीय स्तर पर राजनीति से उठकर पंचायतों के प्रतिनिधियों का चुनाव हों। सभी लोग आपसी सहमति और सहयोग से अपने गांव और क्षेत्र का विकास करने में सहभागी बनें। कालांतर में यह उद्देश्य भटकता गया और त्रिस्तरीय पंचायत राज अब राजनीति की पहली इकाई के रूप में काम करने की बजाय राजनीतिक विकार की पहली ईकाई बन चुकी है। पंचायतों के चुनाव से शुरू हुए विवाद कई बार गांव की बुनियाद को ही हिला देते हैं। गांव में आपसी सौहार्द और सौजन्य में जो कमी देखी जा रही है उसका कारण गांव स्तर पर चुनाव की प्रक्रिया को ही माना जाता है। 

जनपद सदस्य-जिला पंचायत सदस्यों के निर्वाचन से ही अध्यक्ष पद को कब्जाने का खेल शुरू हो गया था। सदस्यों को येन-केन प्रकारेण अपने साथ जोड़ने की कोशिशों में जहां नगद लेनदेन के आरोप लगे वहीं कई सदस्यों को तीर्थाटन तो होटलों में रखने के मामले भी सामने आए। प्रदेश के एक जिले में जनपद अध्यक्ष के चुनाव के दिन छिपाकर रखे गए सदस्य जब सामने आए तब लोग यह देखकर भौंचक रह गए कि यह सभी सदस्य बाउंसरों के संरक्षण में मतदान के लिए लाए गए। 

सोशल मीडिया के इस युग में जनपद-जिला अध्यक्षों के चुनाव में सदस्यों को छिपाने और घुमाने के तमाम वीडियो देखने में आए। अब यह दौर नहीं बचा है कि ज्यादा कुछ छुपा लिया जाए, कहीं ना कहीं से तथ्य सामने आ ही जाते हैं। जनपद-जिला अध्यक्ष के चुनाव में जितनी जोड़-तोड़ दिखी है, शायद उतनी जोड़-तोड़ तो बड़े स्तर पर होने वाले चुनाव में भी नहीं होती। 

जहां कहीं भी कांग्रेस और भाजपा के बीच टक्कर थी, वहां विवाद की स्थितियां निर्मित हुई हैं। भोपाल में तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने एतराज भी जताया। इन चुनावों में टेंडर वोट डालने की व्यवस्था है। इसके अंतर्गत निर्वाचित प्रतिनिधि का करीबी व्यक्ति वोट डाल सकता है। टेंडर वोटों को भी अनैतिक रूप से उपयोग करने की शिकायतें सामने आ रही हैं। 

सामान्य रूप से हर उस चुनाव में ऐसी स्थितियां बनती है जहां दलीय आधार पर चुनाव नहीं होते। नगरीय निकाय में दलीय आधार पर चुनाव हुए थे इसलिए जनादेश को दोनों दलों द्वारा स्वीकार किया गया। जनपद पंचायत के चुनाव में दोनों दल अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं। दोनों के दावों पर भरोसा किया जाए तो जनपद पंचायतों की संख्या 313 से ज्यादा बढ़ानी पड़ेगी। 

इस तरह के चुनाव में अक्सर सत्ता पक्ष का पलड़ा ही भारी होता है। चुनाव के बाद भी निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को प्रशासन और शासन के साथ मिलकर ही विकास कार्यों को अंजाम देना होता है। सरकार के विरोध में काम करने की मंशा वाले जनप्रतिनिधि कैसे बेहतर काम कर सकेंगे, इसलिए जनपद जिला पंचायत के चुनाव में हर बार इसी तरह का माहौल बनता है। 

पंचायत चुनाव के दृश्य लोकतंत्र की पहली इकाई पर कब्जे के लिए साम, दाम, दंड, भेद की लड़ाई को जाहिर कर रहें हैं। जिन संस्थाओं का जन्म ही विवाद के साथ हुआ है, उनका परफारमेंस भी हमेशा विवादों में ही रहेगा। पंचायतों में दलीय सोच का इतना विकृत स्वरूप इन संस्थाओं को मूल उदेश्यों से भटका रहा है। अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों में पंचायत उपबंध अधिनियम का विस्तार लागू किया जाना अभी तक प्रतीक्षित है। 

मध्यप्रदेश में 'पेसा एक्ट' के अंतर्गत नियम कानून अभी तक नहीं बनाए गए हैं। आदिवासी क्षेत्रों में पंचायतों को जितनी स्वायत्तता मिलनी चाहिए वह अभी तक नहीं मिल सकी है। इस मामले में दोनों राजनीतिक दलों के विचार एक जैसे ही लगते हैं। राज्य में दोनों दलों की सरकारें रह चुकी हैं लेकिन जनजाति क्षेत्रों में पेसा एक्ट लागू नहीं हो सका है। 

पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक एक ही दल का बहुमत हो यह सोच भी डेमोक्रेटिक नहीं कही जा सकती है। जो चुनाव दलगत आधार पर नहीं हो रहे हैं, उन चुनावों को दलीय उपलब्धि के रूप में बताने को भी बहुत जायज नहीं ठहराया जा सकता। 

इन चुनावों में लगी प्रशासनिक मशीनरी को भी विवादों में घसीटा जाता है। कांग्रेस ने कई बार आरोप लगाया कि प्रशासन सरकार के इशारे पर काम कर रहा है। जबकि प्रशासन आमतौर पर निष्पक्षता से ही अपने दायित्व को अंजाम देता है। पंचायत चुनाव के जो संदेश आए हैं वह राजनीतिक रूप से किसी भी दल के पक्ष में हो सकते हैं लेकिन इनका वास्तविक मकसद तभी पूरा होगा जब चुनाव का संदेश डेमोक्रेसी के पक्ष में हो।