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दल अलग जनाधार का दिल एक, अपना दिल देकर कौन दल जिएगा?

सार

आम चुनाव के पहले हमेशा विपक्षी एकता का राग शुरू हो जाता है. कभी कांग्रेस विपक्षी एकता का कारण हुआ करती थी, आज वही कांग्रेस विपक्षी एकता का कारक मानी जा रही है. भारत में एकजुट विपक्ष की सफलता का इतिहास जरूर है लेकिन यह सफलता देश में अस्थिर राजनीति का ही सूत्रपात कर सकी है. इंदिरा गांधी के खिलाफ जयप्रकाश की क्रांति से बदलाव तो हो गया था, विपक्ष एकजुट होकर सरकार को बदलने में भी सफल हुआ था लेकिन विपक्ष की बनी सरकारें बहुत ज्यादा समय तक चल नहीं सकी थी.

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विस्तार

सत्ता के लिए विपक्षी दलों के बीच गठजोड़ के हर राज्य में किस्से भरे पड़े हैं. किसी भी राज्य में उनकी सफलता स्थाई नहीं हो सकी है. कांग्रेस राष्ट्रीय परिदृश्य में जब से कमजोर हुई है तब से क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय राजनीति में भी मजबूत भूमिका निभाने लगे हैं. राज्यों के स्तर पर तो अधिकांश राज्यों में क्षेत्रीय दलों का मुकाबला कांग्रेस के साथ ही है. 

उत्तर भारत में बीजेपी ने राज्यों में और राष्ट्रीय स्तर पर अपना परचम लहरा रखा है. 2024 में लोकसभा चुनाव के दृष्टिगत विपक्षी एकता का राग परवान चढ़ता दिखाई नहीं पड़ रहा है.जिस कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता संभव नहीं हो सकती शायद उसी कांग्रेस के कारण विपक्षी एकता का होना दिवास्वप्न ही बना रहेगा. कांग्रेस ही कारक और बाधक दोनों बनी हुई है.

कारक इसलिए कहा जाएगा कि जो भी जनाधार पूरे देश में किसी विपक्षी दल का है तो वह कांग्रेस का ही है. बाकी क्षेत्रीय दल राज्य स्तर पर सक्रिय हैं. राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता बिना कांग्रेस के संभव नहीं हो सकती. यही कांग्रेस विपक्षी एकता में बाधक इसलिए बन जाएगी क्योंकि राज्यों में विभिन्न दलों का विकास कांग्रेस के जनाधार पर ही खड़ा हुआ है. 

अधिकांश राज्यों में क्षेत्रीय दलों का मुकाबला भी अन्य दलों के साथ कांग्रेस के साथ है. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के मजबूत होने का मतलब है कि राज्य स्तर पर क्षेत्रीय दलों को भविष्य में नुकसान उठाना पड़ सकता है. कोई भी क्षेत्रीय दल ऐसा नहीं चाहेगा. बातें जरूर होती रहेंगी. क्षेत्रीय दल विपक्षी एकता के लिए मुखर ही दिखेंगे और एकता नहीं होने के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार भी ठहरायेंगे लेकिन दिल से विपक्षी एकता के लिए पहल नहीं करेंगे.

राज्यों में दल अलग-अलग हैं लेकिन बीजेपी के अलावा सभी दलों के जनाधार का दिल एक ही है. कोई भी राजनीतिक दल अपने जनाधार के दिल को क्यों कमजोर करना चाहेगा और अगर दिल कमजोर हो गया तो फिर कोई भी दल कितने दिन जिंदा रह पाएगा? 

जहां तक भाजपा का सवाल है भाजपा हिंदुत्व की राजनीति की अकेली मुखर पार्टी है जबकि बीजेपी के अलावा सारे दल सेकुलर राजनीति का ही दावा करते हैं. सेकुलर राजनीति का मतलब मुस्लिम समर्थन ही माना जाता है. आज तो लगभग सभी क्षेत्रीय दल राज्यों में मुस्लिम वोट बैंक को अपना जनाधार मानते हैं. इस वोट बैंक को कोई भी कमजोर नहीं करना चाहता.

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने विपक्षी एकता की मशाल उठाई और पटना पहुंच गए और फिर बीजेपी से अलग होने के बाद नीतीश कुमार तो बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता को अपना मिशन बना बैठे हैं. जहां तक नीतीश कुमार का सवाल है वह दिल से विपक्षी एकता की कोशिश करते दिखाई पड़ रहे हैं लेकिन उनका राजनीतिक दिल बूढ़ा हो गया है वह कितने दिन तक चलेगा इस पर किसी को भरोसा नहीं बचा है. 

नीतीश कुमार के बदलते राजनीतिक दिल को भी लोगों ने देखा है. ऐसा बताया जाता है कि वे न जाने कितनी बार अपनी दलीय प्रतिबद्धता बदलकर राजनीतिक दलों के साथ तालमेल कर मुख्यमंत्री का पद संभाल चुके हैं. उसी तरीके का प्रयोग फिर वह करना चाहते हैं. कांग्रेस के नेताओं को पहले उनके द्वारा कई बार धोखे दिए गए अब फिर कांग्रेस उनकी बात पर कितना भरोसा करेगी, यह तो वक्त ही बताएगा.

ममता बनर्जी विपक्षी एकता की सबसे बड़ी पक्षकार कही जा सकती हैं. बिना उनके कोई भी विपक्षी एकता राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी नहीं हो सकती. कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच जिस तरह के तालमेल हो रहे हैं उससे ममता बनर्जी और कांग्रेस के बीच कोई भी समझौता नामुमकिन सा दिखाई पड़ता है. त्रिपुरा के चुनाव में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच गठबंधन हुआ है, वहां ममता बनर्जी की टीएमसी भी चुनाव लड़ रही है. बंगाल के स्थानीय चुनाव में भी कांग्रेस और  कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच तालमेल देखा गया था. ऐसी स्थिति में ममता बनर्जी कांग्रेस के साथ किसी भी चुनाव में जाने के लिए शायद ही तैयार हों .
 
कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में भी कुआँ और खाई की स्थिति है. आम आदमी पार्टी ने जिन भी राज्यों में राजनीतिक सफलता पाई है वहां उसने कांग्रेस की सरकारों को ही अपदस्थ किया है. इसका सीधा मतलब है कि कांग्रेस के जनाधार में आम आदमी पार्टी ने सेंध लगाई है. दिल्ली में भी कांग्रेस की सरकार हटाकर अरविंद केजरीवाल ने सत्ता संभाली थी और पंजाब में भी कांग्रेस को ही अपदस्थ कर आप ने सरकार बनाई है. ऐसी स्थिति में आम आदमी पार्टी किसी भी कीमत पर कांग्रेस के साथ चुनावी समझौता करने का आत्मघाती कदम कैसे उठा सकती है?

उड़ीसा में नवीन पटनायक विपक्षी एकता के महत्वपूर्ण सूत्र हो सकते हैं लेकिन उनकी पिछले सालों की भूमिका यह बताती है कि वे राज्य स्तर को और अपने राज्य के हितों की राजनीति को ही प्राथमिकता देते रहे हैं. किसी भी राष्ट्रीय दल के साथ गठबंधन उनकी रणनीतियों में शामिल नहीं है. बीजेपी और कांग्रेस दोनों उड़ीसा में बीजू जनता दल के खिलाफ सक्रियता से काम कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में जो भी सरकार केंद्र में बनेगी नवीन पटनायक उसके साथ उड़ीसा के हितों को देखते हुए जाने में ही अपना भविष्य मानते हैं. दक्षिण भारत में भी कमोबेश यही हालात बने हुए हैं.

कांग्रेस और विपक्षी दलों को पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मिले मतों और विपक्षी पार्टियों के बीच विभाजित मतों को देखते हुए ऐसा लगता है कि अगर विपक्षी दल एकजुट हो जाएंगे तो बीजेपी को हराना आसान होगा. जब कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर निरंतर सत्ता चला रही थी तब भी मतों के विभाजन की स्थिति कमोबेश इसी प्रकार थी. विपक्षी दलों में मत विभाजित हो जाते थे और कांग्रेस एक तिहाई वोटों के साथ ही सरकारों में बनी रहती थी. अब यही लाभ बीजेपी को मिलने लगा है. इसे लोकतंत्र की खूबी कहें या बुराई लेकिन मतों के विभाजन से ही तुलनात्मक रूप से आगे राजनीतिक दल सत्ता में बना रहता है.
 
कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन रायपुर में शुरू हो गया है. इस अधिवेशन में विपक्षी एकता पर भी चर्चा की जाएगी और इसके सूत्र भी निर्धारित किए जाएंगे लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी मोदी विरोधी राजनीतिक दलों का मोर्चा या गठबंधन बनता हुआ दिखाई नहीं पड़ रहा है. हर राजनीतिक दल इसके लिए एक दूसरे दल को जिम्मेदार ठहराएंगे लेकिन कोई भी सार्थक पहल करने का प्रयास नहीं करेगा.

विपक्षी एकता में कांग्रेस के अलावा दूसरी बाधा नेतृत्व की है. मोदी आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया में लोकप्रिय नेता के रूप में स्थापित हो गए हैं. भारत के लोगों में मोदी के प्रति विश्वास का ऐसा माहौल है कि उसको खंडित करने की क्षमता कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक दलों के किसी नेता में दिखाई नहीं पड़ रही हैं. मोदी के विकल्प के रूप में देश में आज कोई भी नेता दिखाई नहीं पड़ रहा है. मोदी के विरुद्ध कांग्रेस के नेताओं द्वारा जिस तरह की अभद्र और सतही बातें की जाती हैं, वह मीडिया में आने के लिए तो ठीक हो सकती हैं लेकिन इसका राजनीतिक नुकसान कांग्रेस को पहले भी होता रहा है और आगे भी होने की पूरी संभावना दिखाई पड़ रही है.

भारत में नई तरह की राजनीति हो रही है. उद्धव ठाकरे बड़े राजनीतिक परिवार के वारिस थे लेकिन आज उन्हीं के कृत्यों के कारण शिवसेना ही उनसे दूर चली गई. राजनीति में जो भी नेता वारिस होने के कारण राजनीति को समझने और करने का दंभ पालते हैं उनका भविष्य बहुत उज्जवल होता अभी तक तो नहीं दिखाई पड़ा है. विपक्षी एकता की खिचड़ी पक पाएगी और मोदी का मजबूत विकल्प बन पायेगी इसमें पूरा संदेह बना हुआ है.