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आत्मघाती राजनीति में फंसे दल

सार

इलेक्टोरल बॉन्ड के चंदे को करप्शन से जोड़कर इस दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला बताने वाले राजनीतिक दल आत्मघाती राजनीति में फंस गए हैं, लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी इसे बीजेपी सरकार के भ्रष्टाचार से जोड़ रहे हैं..!!

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विस्तार

    आम आदमी पार्टी तो शराब घोटाले में सरकारी गवाह बने व्यक्ति से जुड़ी कंपनी से चंदा लेने का बीजेपी पर आरोप लगा रही है. भ्रष्टाचार और घोटालों के खिलाफ़ पीएम मोदी के चुनावी कैम्पेन को कमजोर करने के लिए राहुल गांधी लगातार इलेक्टरल बॉन्ड घोटाले की बात उठा रहे हैं. बीच-बीच में बीजेपी की ओर से सफाई आती है. 

    पीएम नरेंद्र मोदी ने एक सभा में कह दिया कि विपक्षी नेता इलेक्टोरल बॉन्ड को घोटाला बताकर भविष्य में बहुत पछताएंगे. उन्होंने कहा कि यह कानून सही नियत से लाया गया था. हर कानून में खामियां हो सकती हैं. विचार विमर्श कर उसमें सुधार किया जा सकता है.

    इलेक्टोरल बांड में लगभग 20000 करोड़ के चंदे राजनीतिक दलों को दिए गए हैं. इनमें लगभग 8000 करोड़ बीजेपी को मिले हैं. बाकी 12000 करोड़ दूसरे दलों को मिले हैं. इनमें कांग्रेस को लगभग 1800 करोड़ और टीएमसी को 1500 करोड़ रुपए मिले.

    इलेक्ट्रोरल बॉन्ड को घोटाले के रूप में देखा जाएगा तो फिर जिन भी कंपनियों ने यह बॉन्ड दिया है, उन कंपनियों द्वारा केंद्र सरकार या राज्य सरकारों के साथ, किए गए बिजनेस को जांच के दायरे में लाना पड़ेगा. सोशल मीडिया पर उपलब्ध राहुल गांधी के वीडियो में ऐसा कहा जा रहा है, कि इलेक्टरल बाॉन्ड के एक्सपोजर से बीजेपी डरी हुई है. विपक्ष के पास प्रमाण सहित घोटाले की लिस्ट उपलब्ध है. इससे बीजेपी को डर लग रहा है. अगर सरकार में बदलाव होता है, तो इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाले पर जांच की धमकी दी जा रही है. 

    राजनीतिक दलों का चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के पहले भी था और इलेक्टोरल बॉन्ड के बाद भी चंदे का धंधा बंद नहीं हुआ है. इसी लोकसभा चुनाव में क्या राजनीतिक दलों को चंदा नहीं मिल रहा है. अब तो बॉन्ड से नहीं दिया जा रहा है. बॉन्ड सही है या गलत है, लेकिन कम से कम इतना तो संभव हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर पूरी जानकारी पब्लिक डोमेन में आ सकी. 

    बॉन्ड के पहले के चंदे अगर पब्लिक डोमेन में ले आना हो, तो किसी भी प्रकार से नहीं लाए जा सकते हैं. इस नजरिए से तो इलेक्टोरल बाॉन्ड कम से कम इतनी ट्रांसपेरेंसी तो ला ही रहे हैं, कि ये पता चल पाया कि किस कंपनी ने किस राजनीतिक दल को कितना चंदा दिया है. इलेक्टोरल चंदा देने में शामिल कंपनियों पर जांच एजेंसियों की कार्रवाई से जोड़कर घोटाले के आरोप लगाए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि ऐसी कंपनियों से एक्सटोर्शन किया गया है.

    आम आदमी पार्टी तो राजनीतिक आरोपों में यहां तक कह रही है, कि शराब घोटाले का मनीट्रेल बीजेपी को दिए गए चंदे के रूप में सामने आ गया है. राजनीतिक आरोप लगाने के चक्कर में आम आदमी पार्टी कम से कम यह तो स्वीकार कर रही है, कि शराब घोटाला हुआ है.

    इलेक्टोरल बॉन्ड घोटाले के आरोपों में एक बात यह भी कही जा रही है, कि जो कंपनियां घाटे में थीं, उनके द्वारा भी करोड़ों रुपए के चंदे पॉलिटिकल पार्टियों को दिए गए हैं. यह एक सैद्धांतिक प्रश्न है, कि घाटे की कंपनियां किसी भी पार्टी को चंदा कैसे और कहां से देंगी. सबसे पहली बात कि प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां किसी एक व्यक्ति की प्रॉपर्टी नहीं होती. उसमें शेयर धारक होते हैं. किसी एक व्यक्ति का नाम लेकर दिए गए डोनेशन को घोटाले के रूप में स्थापित नहीं किया जा सकता. अब सवाल यह उत्पन्न होता है, कि घाटे में रहने वाला संस्थान क्या अपने लाभ के लिए राशि दे सकता है या नहीं. 

    कम से कम राजनीतिक लोगों को तो यह बात अच्छे से पता है, कि उनकी पार्टियों की सरकारें कर्जों में डूबी हुई हैं. सरकारों के आर्थिक हालात लगातार बिगड़ते जा रहे हैं. इसके बाद भी मुफ्तखोरी की योजनाओं के चुनावी वायदे किए जाते हैं. कई बार तो भ्रमित होकर जनादेश  भी मिल जाता है. फिर सरकारों की हालत उन वादों को पूरा करते-करते मृतप्राय स्थिति में पहुंच जाती है. 

    राहुल गांधी एक झटके में गरीबी दूर करने की बात कर रहे हैं. खटाख- खटाखट महिलाओं और युवकों के खातों में एक-एक लाख रुपए हर साल डालने की बात कर रहे हैं. अगर इलेक्टोरल बॉन्ड डोनेशन में लगाए जा रहे आरोपों के सिद्धांत का ही इन राजनीतिक वायदों में उपयोग किया जाएगा, तो क्या कोई भी सरकार इस तरीके से खटाखट-खटाखट नगद पैसे देने की स्थिति में है.

    ऐसे वायदे भी इलेक्टोरल बांड ही कहे जाएंगे. जो जनता के बीच बांटे जा रहे हैं. यह बॉन्ड ऐसी सरकारों के नाम पर बांटे रहे हैं, जो घाटे में चल रही हैं, जिन पर कर्ज लदे हुए हैं. विकास के काम पूरे करने के लिए कर्जे लेने पड़ रहे हैं. कैपिटल एक्सपेंडेचर लगातार कम होता जा रहा है. पॉलिटिकल पार्टियां जनता को जो इलेक्टोरल बॉन्ड बांट रही है, इसकी भी जांच होनी चाहिए. घाटे वाली सरकारों के नाम पर ऐसे बॉन्ड क्यों दिए जा रहे हैं.

    पॉलिटिकल पार्टियों को डोनेशन और उसमें गड़बड़ियां ऐतिहासिक रही हैं. लाइसेंस परमिट के नाम पर डोनेशन लिए जाते रहे हैं. ऐसा पहली बार संभव हुआ है, कि कम से कम इलेक्टोरल बॉन्ड की कानूनी प्रक्रिया निर्धारित हुई. इसमें गड़बड़ियों को सुधारने के निश्चित रूप से जरूरत है.

    पीएम मोदी ने जब यह कह दिया है, कि जो नेता और राजनीतिक दल इलेक्टोरल बॉन्ड को घोटाले के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, वह भविष्य में पछताएंगे. तो यह बहुत गंभीर बात है. जिस तरह से करप्शन के खिलाफ़ अभियान तेज करने का वायदा पीएम मोदी चुनाव में कर रहे हैं, उससे तो ऐसा लगता है, कि केंद्र की नई सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड में शामिल कंपनियों और विभिन्न सरकारों के साथ उनके बिजनेस की सारी प्रक्रिया को जांच के दायरे में ला सकती है.अगर ऐसी स्थितियां बनती हैं,तो फिर यही राजनीतिक दल और नेता जो आज घोटाले का आरोप लगा रहे हैं, वह विपक्षियों को फंसाने का आरोप लगाने लगेंगे.

    संसदीय प्रणाली में राजनीतिक दल की गंभीर और महत्वपूर्ण भूमिका है. इसलिए राजनीतिक दलों को हमेशा ऐसे आरोपों से बचना चाहिए, जो संसदीय व्यवस्था को ही कटघरे में खड़ा करते हैं.  जो नेता इलेक्टोरल बॉन्ड को घोटाला बता रहे हैं, सबसे पहले उन्हें देश को यह बताने की जरूरत है, कि उनके दल को जो चंदा मिला है, वह किसी घोटाले के कारण मिला है. अगर इतनी नैतिकता कोई भी नेता दिखाने का साहस रखता है, तो फिर ही उसे आरोप लगाने का नैतिक अधिकार हो सकता है. 

    कोई भी राजनीतिक दल इलेक्टोरल बॉन्ड से अछूता नहीं है. इसमें सब शामिल हैं. कम से कम उनको जनता के सामने घोटाले के रूप में इसे रखकर अपनी ही गंदगी को उजागर करने से बचना चाहिए. इलेक्टोरल बॉन्ड को घोटालों से जोड़ने की शुरुआत आम आदमी पार्टी ने की थी. कांग्रेस भी उन आरोपों में शामिल हो गई. अब तो राहुल गांधी चुनावी सभा में इसे दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला बता रहे हैं. सबसे पहले तो यह बताने की जरूरत है, कि इसमें कांग्रेस को जो चंदा मिला है, उसमें घोटाले की कितनी भूमिका है.

    घोटाला घोटाले को ही घोटालेबाज़ साबित कर रहा है. यह सीनाजोरी लोकतंत्र में ही संभव हो सकती है. संसदीय प्रणाली शंका के दायरे में ना आए इसलिए जरूरी है, कि घोटाले के आरोपों का प्रमाणिकता के साथ तथ्यात्मक जांच-पड़ताल की जाए. विपक्ष हर सवाल ऐसे उठा रहा है, जिसमें वह स्वयं कटघरे में खड़ा हो गया है. 

    EVM के मामले में भी ऐसे ही हो रहा है. EVM की विश्वसनीयता  को कटघरे में खड़ा किया जाता है और जहां विपक्षी दलों की सरकारें बन जाती हैं, वहां EVM पर चुप्पी साध ली जाती है. ऐसे ही इलेक्टोरल बॉन्ड पर भी हो रहा है. इसे घोटाला तो बताया जा रहा है, लेकिन इस घोटाले में अपनी खुद की हिस्सेदारी पर कुछ भी नहीं कहा जा रहा है. अपने घोटाले पर खामोशी और दूसरे पर बिना प्रमाण के घोटाले का शोर चनाजोर गरम का ही शोर लगता है.