इंडिया की आन बान शान नया रूप ले रही है. इंडिया चंद्रयान की सफलता का चेहरा बन रहा है तो सूर्य मिशन की उम्मीदों का आसमान बन रहा है. इंडिया की राजनीति का जहान भी नया रूप ले रहा है. विपक्षी गठबंधन 'I.N.D.I.A' और नरेंद्र मोदी के क्विट इंडिया के बीच भारत की राजनीति के नये इंडिया के स्वरुप के लिए संघर्ष चल रहा है..!
अगले आम चुनाव के लिए एनडीए और 'I.N.D.I.A' गठबंधन के बीच राजनीतिक शंखनाद हो चुका है. एक ओर नरेंद्र मोदी का मजबूत और विश्वसनीय चेहरा सामने है तो दूसरी तरफ अनेक चेहरों में एक चेहरे को चुनने का विपक्षी गठबंधन के सामने बड़ा संकट खड़ा हुआ है. मुंबई में विपक्षी गठबंधन अपना नेता, नीति और नियत स्पष्ट करने में जितना कामयाब होगा उतना ही अगला चुनाव रोमांचक दिखेगा.
भारत के मतदाताओं की सामान्य समझ राजनेताओं को चौंकाती रही है. देश ने गठबंधन की राजनीति और कमजोर नेतृत्व के कारण राजनीतिक और प्रशासनिक संकट का भी दौर भी देखा है. सार्वजनिक रूप से विरोधाभास और सत्ता के सहवास के लिए एकता के प्रयास राजनीति में ही देखे जा सकते हैं. राज्यों में एक दूसरे के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष करने वाले लोग राजनीतिक गठबंधन के लिए फोटो पॉलिटिक्स करने का दुस्साहस राजनीति में ही कर सकते हैं.
गठबंधन की राजनीति को परिवारवाद की राजनीति के लिए सम्मोहन बनाने वाली कांग्रेस विपक्षी गठबंधन का मजबूत सूत्र तो नहीं हो सकती. मजबूरी का कोई भी गठबंधन तलाक पर ही समाप्त होता है. इस गठबंधन के सामने भी निकाह के पहले ही तलाक की संभावनाएं पोस्टरों में दिखाई पड़ रही हैं. मुंबई में लगे पोस्टरों का विश्लेषण किया जाए तो भारत के प्रधानमंत्री के चेहरे के लिए कई दावेदार दिखाई पड़ रहे हैं. यह ऐसे ही प्रतीत हो रहा है जैसे एक पद के लिए हजारों अभ्यर्थी अपनी उम्मीदवारी का आवेदन प्रस्तुत करते हैं. राजनीति में इसे बढ़ती बेरोजगारी के रूप में देखा जाना चाहिए कि विपक्षी गठबंधन के सामने पीएम चेहरे के पोस्टरों की भरमार है.
गठबंधन में शामिल कोई भी दल ऐसा नहीं है जो अपने नेता को भावी पीएम के चेहरे के रूप में पोस्टरों पर चस्पा ना कर रहा हो. भारत में राजनीति में भी आरक्षण बराबरी की मंशा से दिया गया है लेकिन राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने वाले परिवार पीएम पद पर भी परिवार का ही आरक्षण स्थापित करना चाहते हैं. वैसे भी अच्छी राजनीति वही कही जाएगी जहां चेहरों को नहीं मुद्दों को प्राथमिकता मिलती हो.
भारत में 2024 का चुनाव मुद्दों के आधार पर चेहरे तय करने का चुनाव होगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी-बीजेपी और एनडीए अपने विकासवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के साथ ही विपक्षी गठबंधन के भ्रष्टाचार परिवारवाद और तुष्टिकरण को चुनाव का मुद्दा स्थापित करने में लगे हैं. पीएम मोदी का क्विट इंडिया आह्वान भारतीयता की भावनाओं को जोड़ते हुए भारत के विकास में जहर बने भ्रष्टाचार, तुष्टिकरण, परिवारवाद को विपक्ष के साथ जोड़ने का राजनीतिक प्रयास कहा जा सकता है.
दुनिया के देशों पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि हर देश में दो विचारधाराएं राजनीति में सक्रिय हैं. वहां की जनता नेता नीति और नियत के आधार पर पार्टियों को सरकार संचालन के लिए मौका देती है. यूएसए में डेमोक्रेट और रिपब्लिकन पार्टियां लोकतंत्र को संचालित करती हैं. भारत एक ऐसा देश है जहां राजनीतिक दलों की संख्या सबसे ज्यादा है. भारत में संप्रदाय और जातियों के आधार पर राजनीतिक डिविडेंड प्राप्त करने के प्रयास अभी भी चल रहे हैं.
लोकतंत्र के रक्षक होने का दावा करने वाले राजनीतिक दलों और नेताओं पर यह जिम्मेदारी है कि वह जाति संप्रदाय और धर्म के आधार पर नफरत की राजनीति को समाप्त करने के एकमात्र लक्ष्य पर काम करें. यह दुर्भाग्यपूर्ण और निराशाजनक स्थिति है कि जो देश के लिए नुकसानदायक है वही बातें राजनीतिक दलों को लाभदायक प्रतीत होती हैं. जातिवाद का जहर बढ़ाने के प्रयास राजनीतिक दल ही करते हुए दिखाई पड़ते हैं. जातिगत जनगणना आज राजनीतिक दलों का सबसे बड़ा एजेंडा बन गया है. यह कोई नहीं बताता कि इससे भारतीय जनमानस और समाज को कैसे लाभ मिलेगा?
हिंदू-मुस्लिम की राजनीति केवल एक पक्ष से कभी नहीं चल सकती. जो लोग हिंदुत्व की राजनीति को लोकतंत्र के लिए खतरा मानते हैं अगर ध्यान से देखा जाए तो वही लोग हिंदुत्व की राजनीति को देश में स्थापित करने के लिए जिम्मेदार भी हैं. अगर तुष्टिकरण की राजनीति अतीत में नहीं की गई होती तो प्रतिक्रिया स्वरूप संतुष्टिकरण की राजनीति को फलने फूलने का मौका ही नहीं मिलता.
'I.N.D.I.A' विपक्षी गठबंधन को विपक्षी कहना भी शायद ठीक नहीं होगा क्योंकि इसमें शामिल दलों को भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या को लोकतांत्रिक शासन के जरिए शासित करने का अवसर प्राप्त है. विपक्षी गठबंधन बेरोजगारी, महंगाई और नफरत की राजनीति के विरोध को अपना एजेंडा बताता है. विपक्षी गठबंधन के राजनीतिक दलों द्वारा शासित राज्यों में इन सभी मुद्दों पर स्थितियां क्या तनिक भी अलग दिखाई पड़ती हैं? चाहे बिहार हो बंगाल हो तमिलनाडु हो राजस्थान हो छत्तीसगढ़ हो, जहां विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां बेरोजगारी और महंगाई की क्या स्थिति है? पेट्रोल-डीजल की दरें क्या इन दलों की सरकारों ने घटाई हैं? नफरत की राजनीति इन राज्यों में किसी भी दृष्टि से कम कही जा सकती है?
इतना जरूर हो सकता है कि वहां नफरत का तरीका अलग हो और बीजेपी शासित राज्यों में नफरत अलग ढंग की हो. ऐसा लगता है कि नफरत को देश के लिए बदसूरत बताने वाले राजनीतिक दलों को अस्तित्व के लिए नफरत की ही जरूरत है.
भारतीय राजनीति ने सब तरह के दौर देख लिए हैं. भ्रष्टाचार के चरम दौर और उसमें राजनेताओं की भूमिका भी देखी गई है. अब तो ऐसा लगने लगा है कि राजनीतिक लोग अदालत और भ्रष्टाचार की जांच एजेंसियों को भी गलत साबित करने की राजनीति पर उतर गए हैं. प्रसिद्ध लेखक और व्यंगकार हरिशंकर परसाई का कथन कि ‘बेइज्जती में दूसरे को भी शामिल कर लो तो अपनी आधी इज्जत बच जाती है’. राजनीति का आज यही परम लक्ष्य और परम सत्य बन गया है कि किसी की भी छवि को दागदार स्थापित कर दो तो अपनी दागदार छवि कम से कम उसके बराबर आ जाएगी.
भारतीय लोकतंत्र में गरीबी, अशिक्षा और अन्य कमजोरियां हो सकती हैं लेकिन सामान्य भारतीयों की राजनीतिक समझ ने ही देश को बचाया और मजबूत किया है. अगर राजनीतिक दलों के आरोपों-प्रत्यारोप पर सही, सटीक नजरिया और नतीजे निकालने में भारतीय जनमानस सक्षम नहीं होता तो भारतीय राजनीति का वर्तमान स्वरूप सामने ही नहीं आ पाता.
अगर विचार किया जाए कि भारतीय लोकतंत्र को भ्रष्टाचार, परिवारवाद, तुष्टिकरण, बेरोजगारी, महंगाई और वर्तमान सरकार तथा विपक्षी दलों की पूर्व सरकारों के विकास के पैमानों के मुद्दे पर फैसला करना है तो फिर हालिया राजनीतिक गठबंधन की न कोई उपयोगिता है और ना कोई आवश्यकता है.
मुंबई में नीतीश कुमार के पीएम चेहरा बनाने के पोस्टर चस्पा हैं. अरविंद केजरीवाल तो प्रधानमंत्री के स्वाभाविक उम्मीदवार आम आदमी पार्टी की ओर से बताये जाते हैं. राहुल गांधी तो प्रधानमंत्री के घर में ही पैदा हुए हैं. उनका तो प्रधानमंत्री के पद पर दावा सबसे मजबूत माना जाएगा. ममता बनर्जी कांग्रेस से निकलकर और वामपंथी दलों को मात देकर पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में जनता का भरोसा पाने में अगर कामयाब रही हैं तो पीएम जैसे पद पर उनका दावा कम कैसे आंका जा सकता है? शरद पवार के अनुभव को पीएम पद की योग्यता के रूप में देखा ही जाना चाहिए.
राजनीति की मोहब्बत-नफरत का बाजार देखिए कि विपक्षी गठबंधन में शामिल कितने दल हैं जो बीजेपी के साथ सत्ता का आनंद ले चुके हैं. तब उन्हें बीजेपी की नफरत की राजनीति मोहब्बत दिख रही थी और आज सेकुलर दलों को उनकी राजनीति बिल्कुल सूट कर रही है. राजनीतिक दल जनता को तो मजबूर मानते हैं. कांग्रेस को पानी पी पीकर गालियां देने वाले आज एक साथ बैठकर सत्ता में आने का हसीन सपना देख रहे हैं तो इसे लोकतंत्र और जनता के साथ विचारों की नफरत मानी जाएगी या सत्ता की मोहब्बत मानी जाएगी?
भारत और भारत की राजनीति नए दौर में पहुंच गई है. यह दौर एक्सीलेंस का है. यह दौर स्पष्ट विचारधारा का है. यह दौर साइंस-टेक्नोलॉजी का है. राजनीति की पुरानी टेक्नोलॉजी अब भविष्य के लिए शायद ही कारगर हो सकेगी. चेहरे पर चेहरे लगाकर भी असली चेहरे को छुपाना अब शायद संभव नहीं बचा है. देश में खड़े दोनों राजनीतिक गठबंधनों को यह समझने की जरूरत है कि वास्तविकता ही सफल होगी. जुगाड़ की राजनीति से ना भारत जुड़ेगा और ना ही भारत जीतेगा. जीत भारत के हिस्से में लिखी जा चुकी है. भारत की यह इबारत लिखने के लिए भारत अपना नेता चुनने में सक्षम है. 2024 का नतीजा यही साबित करेगा.