प्रधानमंत्री ने लाल किले के प्राचीर से फिर नये सपने दिखा दिए
और फिर प्रधानमंत्री ने लाल किले के प्राचीर से नये सपने दिखा दिए हैं | इन सपनों की जद में आनेवाले राज्यों और देश के आम चुनाव है | संसद में आया अविश्वास प्रस्ताव अभी अतीत का मुद्दा नहीं हुआ है। मणिपुर और नकारात्मक राजनीति अब भी जल रही हैं। उनकी लपटों के शांत होने के आसार अभी तो स्पष्ट नहीं हैं। वैसे प्रधानमंत्री मोदी ने अविश्वास प्रस्ताव पर जो जवाब दिए थे वे भी संजीदा नहीं थे बल्कि उसमें प्रतिशोधी राजनीति के भाव ज्यादा थे। प्रधानमंत्री ने कुछ ऐसे पुराने, गढ़े मुर्दे उखाड़े, जो फिलहाल देश के संदर्भ में प्रासंगिक नहीं हैं। वे 50-60 साल से भी ज्यादा पुरानी घटनाएं जरूर हैं। तब से लेकर आज तक भारत का चेहरा, सम्मान, स्थान, विकास सब कुछ बदल चुका है।
देश की जनता समझती है और उसके इस अधिकार का सम्मान भी किया जाना चाहिए कि वह किस दल, गठबंधन और नेता के प्रति अपना लोकतांत्रिक विश्वास व्यक्त करे अथवा अविश्वास जताते हुए चुनाव में किसे खारिज कर दे। वैसे इनमे से बहुत से तथ्य समूचा देश जानता है। इनकी तुलना का मौजूदा अविश्वास प्रस्ताव और नए सपनों से नहीं की जा सकती।
देश के प्रधानमंत्री ऐसे वायदे करते रहे हैं, क्योंकि उन्हें तत्समय जनादेश प्राप्त होता है । प्रधानमंत्री चाहें, तो पिछले उन फैसलों को बदल भी सकते हैं, पर ऐसा कम ही देखने में आता है, पता नहीं देश कब इस प्रतिशोधी राजनीति के भाव से मुक्त होगा । जैसे प्रधानमंत्री मोदी ने सवाल किया है कि वह तोहफा श्रीलंका को क्यों दिया गया? मौजूदा द्रमुक मुख्यमंत्री स्टालिन बार-बार पत्र लिख कर आग्रह कर रहे हैं कि भारत सरकार श्रीलंका से अपने द्वीप को वापस ले। तब 1974 में भी द्रमुक मुख्यमंत्री करुणानिधि थे। दरअसल इस द्वीप को मछुआरों के लिए ‘वरदान’ माना जाता है, लिहाजा यह तमिल राजनीति का आज भी महत्वपूर्ण मुद्दा है।
5 मार्च मिजोरम में आज भी इसे ‘काला दिन’ के तौर पर याद किया जाता है और लोग प्रतीकात्मक विरोध-प्रदर्शन भी करते हैं। अविश्वास प्रस्ताव पर जवाब देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने अमृतसर के ‘पवित्र स्वर्ण मंदिर’ में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ का भी जिक्र किया था। तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं। मौजूदा प्रधानमंत्री इन पुरानी घटनाओं का उल्लेख कर कांग्रेस की राजनीति पर प्रहार करना चाहते थे कि उन सरकारों की सोच क्या थी, क्या यह सब उचित था ? दरअसल अविश्वास प्रस्ताव मणिपुर पर केंद्रित रहना चाहिए था। वैसा न तो विपक्ष ने किया और न ही प्रधानमंत्री ने निभाया। लोकसभा में चुनावी माहौल बना रहा। प्रस्ताव का गिरना तय था। यही उसकी नियति थी। राजनीतिक पक्षों को क्या हासिल हुआ, यह तो वे ही बता सकते हैं।
राजनीतिक दलों को यह नहीं भूलना चाहिए कि पूर्वोत्तर राज्य उग्रवादी संगठनों की देश-विरोधी गतिविधियों के कारण शेष भारत की मुख्य धारा से कितना कटे रहे हैं! अपहरण, फिरौती, वसूली और हत्याएं उनके रोजगार रहे हैं। ‘मां भारती’ का यह भू-भाग वाकई विभाजित और रक्तरंजित लगता है। यदि अब भी मणिपुर को संगठित, शांतिपूर्ण राज्य बनाने के संकल्प की शुरुआत नहीं हो सकी, तो आजादी अधूरी और फीकी है तथा लाल किले की प्राचीर से की गई घोषणा स्वप्न सदृश ही रहेगी। संकल्प का यह रास्ता तो प्रधानमंत्री को ही दिखाना पड़ेगा| फ़िलहाल सरकार को अपना ध्यान बेरोजगारी, गरीबी और महंगाई की समस्याएं हल करने पर केंद्रित करना चाहिए।