एमपी में कांग्रेस के दो पूर्व विधायकों द्वारा पैसे लेकर विधानसभा चुनाव के टिकट दिए जाने के सनसनीखेज आरोप साबित होने पर राजनीतिक भूचाल ला सकते हैं. प्रत्याशियों की पहली सूची के बाद कांग्रेस में मचे घमासान के बीच ऐसे आरोप तथ्यों और तर्कों से भले ही प्रमाणित नहीं हो सकते हों लेकिन जो नेता आरोप लगा रहे हैं वह विधायक रह चुके हैं. उनकी बात को राजनीतिक मानकर खारिज कर देना तो आसान है लेकिन दिए गए टिकटों के हर सीट पर अलग-अलग मापदंड टिकट प्रक्रिया की पारदर्शिता पर तो सवाल खड़े कर ही रहे हैं.
लोकतंत्र के इतिहास में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा रिश्वत लेकर संसद और विधानसभा में मतदान का कलंकित अध्याय भी रहा है. बाजारवाद में पैसे से बड़ी कोई ताकत नहीं होती है. सियासत में भी सगाई और लड़ाई पैसे से ही शुरू और पैसे पर ही खत्म होने लगी है.
सतना जिले के नागौद से कांग्रेस के पूर्व विधायक यादवेंद्र सिंह वायरल वीडियो में साफ-साफ यह कह रहे हैं कि पैसे लेकर टिकट दिए जा रहे हैं. उन्होंने तो कुछ नेताओं का नाम भी लिया है. कांग्रेस के ही पूर्व विधायक फुंदरलाल चौधरी ने भी इसी तरीके की बात कही है. टिकट नहीं मिलने के कारण इन नेताओं द्वारा इस तरीके के आरोप यदि कुंठा में लगाए जा रहे हैं तो लोकतंत्र के साथ इसे मजाक ही कहा जाएगा.
यादवेंद्र सिंह जरूर तर्क रख रहे हैं कि पिछला चुनाव कम वोटों से हारे हैं. रिकॉर्ड यही बताता है कि पिछले चुनाव में उनकी हार लगभग 1250 वोटों से हुई थी. उनका यह सवाल तो जायज लगता है कि जब कांग्रेस ने कई ऐसे प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारा है जो कई हजार मतों से पराजित हुए हैं तो फिर उनके साथ सर्वे के नाम पर बिना किसी मापदंड के अन्याय क्यों किया गया?
राजनीतिक दलों में पैसे लेकर कुछ टिकट देने की प्रक्रिया हमेशा से ही होती रही है. क्षेत्रीय दलों में तो राज्यसभा की सीट भी अघोषित रूप से पैसे लेकर दिए जाने के अनेक प्रकरण सामने आए हैं. पार्टियों की ओर से कई बार ऐसी सफाई भी आई है कि चुनावी प्रबंधन के लिए कुछ धनपति प्रत्याशी बनाए जाते हैं, जिससे प्राप्त धन पार्टी के लिए उपयोग किया जाता है. कांग्रेस प्रत्याशियों की सूची में कई ऐसे धनपति हैं जिनका पूर्व में कोई राजनीतिक योगदान नहीं कहा जा सकता. उनको लेकर भी ऐसी ही राजनीतिक धारणा बनी है कि लेनदेन के आधार पर ही उन्हें टिकट मिल पाया है.
कांग्रेस मध्यप्रदेश में व्यापम को चयन का बड़ा घोटाला बताती रही है. अब प्रत्याशियों के चयन में घोटाले के आरोप कांग्रेस के ही पूर्व विधायक लगा रहे हैं तो इसको गंभीरता से ही लिया जाएगा. संसदीय लोकतंत्र में निर्वाचित जनप्रतिनिधि संसदीय थानेदार के रूप में लोकतंत्र की रक्षा का काम करते हैं. संसदीय थानेदार की परीक्षा के प्रत्याशी के चयन के लिए ही यदि लेनदेन के कारण मापदंडों को अलग-अलग सीटों पर अलग-अलग रखा जाएगा तो सवाल तो उठाए ही जायेंगे और इसका जवाब भी जवाबदार लोगों को ही देना पड़ेगा.
इतिहास में तो कांग्रेस की पीवी नरसिंह राव सरकार को अविश्वास प्रस्ताव से बचाने के लिए कई पार्टियों के सांसदों को रिश्वत भी दी गई थी. संसद और विधानसभा में पैसा लेकर सवाल पूछने के आरोप भी कई बार सामने आए हैं. जब संसदीय थानेदार बनने के लिए प्रत्याशी के चयन में ही लेनदेन से शुरुआत होगी तो फिर उसकी भरपाई के लिए तो भ्रष्टाचार का सहारा ही रहेगा.
हाल ही में तृणमूल कांग्रेस की सांसद के खिलाफ भाजपा सांसद ने पत्र लिखकर ऐसे आरोप लगाए हैं कि उद्योगपति से रिश्वत और गिफ्ट लेकर संसद में सवाल पूछे गए हैं. इन आरोपों की जांच के लिए संसद की एथिक्स कमेटी विचार कर रही है. संसद में तो एथिक्स कमेटी है लेकिन राजनीतिक दलों में एथिक्स का जैसे कोई महत्व ही नहीं है.
कांग्रेस एमपी में कमलनाथ सरकार के पतन के लिए विधायकों के खरीद फरोख्त और लेनदेन का आरोप लगाती रही है. इसमें क्या सच्चाई है यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन टिकट वितरण में पूर्व विधायकों के आरोपों के आधार पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि जब प्रत्याशी बनने के लिए ही पैसा देना पड़ता है तो जो स्वयं पैसे से खरीदकर जनप्रतिनिधि बना है उसे बिकने में कोई अनैतिकता शायद दिखाई नहीं पड़ेगी.
कांग्रेस को इन आरोपों को गंभीरता से लेना चाहिए. जनता के बीच तो ऐसी आम धारणा है कि जब भी कोई किसी के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई आरोप लगाता है तो उसे बिना किसी तर्क और प्रमाण के मान लिया जाता है. शायद विपक्षी दल के रूप में सरकारों के खिलाफ बिना किसी प्रमाण के जारी किए जाने वाले आरोपपत्रों के पीछे भी इसी आम धारणा को भुनाने की मानसिकता रहती होगी.
कांग्रेस में विद्रोह और घमासान पिछले चुनाव की तुलना में कुछ ज्यादा दिखाई पड़ रहा है. इसका कारण यह लगता है कि कांग्रेस का नेतृत्व जिन हाथों में है वह उम्र के इस पड़ाव पर हैं कि यही चुनाव उनका अंतिम चुनाव माना जा रहा है. कांग्रेस कार्यकर्ता और नेता उन नेताओं में अपना भविष्य नहीं देख रहे हैं. इस कारण वर्तमान में उनके साथ हुए आहत करने वाले व्यवहार पर वे प्रतिक्रिया तुरंत और तेजी से कर रहे हैं.
जब भी राजनीति में ऐसा परसेप्शन बन जाता है कि नेता का भविष्य मार्गदर्शक की भूमिका में जाने वाला है तब ऐसे नेता की आवाज़-अपील का असर कम होने लगता है. टिकट वितरण के लिए मापदंड में पारदर्शिता से ही ऐसे सवालों का तार्किक जवाब दिया जा सकता है. जब संगठन मापदंडों को अलग-अलग ढंग और उद्देश्य से बदलता है तब ही ऐसी परिस्थितियां निर्मित होती हैं.
राजनीति में भ्रष्टाचार आम हो गया है. भ्रष्टाचार से लड़ने की प्रतिबद्धता वाले राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ गठबंधन की राजनीति की गर्भनाल भ्रष्टाचार से जुड़ी हुई निकलती है. संसदीय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनादेश को चुनावी मुद्दा बनाए जाने का समय आ गया है. दलीय व्यवस्था में पैसे से टिकट देने की प्रक्रिया की संभावनाओं को रोकना बेहद जरूरी है. जब तक एंट्री के लेवल पर राजनीतिक करप्शन को रोका नहीं जाएगा तब तक संसदीय लोकतंत्र का एलाइनमेंट सही नहीं हो पाएगा.