संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग जैसे चुनावी मुद्दा बन गई है. हालांकि संसद के मानसून सत्र की घोषणा हो गई है. श्रेय लेने की सियासी होड़ में भारत की जीत को पीएम नरेंद्र मोदी की हार के रूप में स्थापित किया जा रहा है. इस मामले में ज्यादातर राजनीतिक दल सतर्क दिखाई पड़ते हैं लेकिन सरकार को सवालों के जरिए कटघरे में खड़ा करने में कांग्रेस सबसे आगे है..!!
कांग्रेस कैरीकेचर के जरिए अपने ऑफिशियल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रधानमंत्री को अमेरिका के राष्ट्रपति के साथ बात करते हुए जी-हुज़ूर, सरेंडर जैसी पंचलाइन प्रचारित कर रही है. यही बात भोपाल में राहुल गांधी कह रहे हैं.
वह कह रहे हैं, ‘ट्रंप का फोन आया और सरेंडर कर दिया’. दावा ऐसा कि जैसे ट्रंप ने उन्हें यह घटनाक्रम फोन के द्वारा बताया हो. राहुल कहते हैं, भाजपा आरएसएस के लोगों को वह अच्छी तरह जानते हैं. इन पर थोड़ा दबाव डालो तो भाग खड़े होते हैं. बीजेपी वालों में तो आजादी के समय से ही सरेंडर करने की आदत रही है.
बीजेपी ने भी राहुल को जवाब दिया और कहा कि, सरेंडर शब्द का उपयोग करके वह सेना का अपमान कर रहे हैं. भारत किसी के सामने सरेंडर नहीं कर सकता. भाजपा नेता देश के विभाजन से लेकर अब तक पाकिस्तान से लड़े गए युद्धों में कांग्रेस की सरकारों द्वारा अपनाए रुख को सरेंडर का इतिहास बताते हैं.
ऑपरेशन सिंदूर का टारगेट और उसका अचीवमेंट सबूत के साथ पूरी दुनिया ने देखा है. राजनीतिक नेताओं की तरफ से नहीं बल्कि सेना और विदेश मंत्रालय की तरफ से अनेक बार यह बताया गया है कि, आतंक के खिलाफ शुरु ऑपरेशन सिंदूर अपना टारगेट हासिल करने में सफल रहा है.
सेना को सरकार का मेंडेड पाकिस्तान से युद्ध नहीं था. गवर्नमेंट ने उसे आतंक के खिलाफ युद्ध का मेंडेड देते हुए खुली छूट दी थी. सेना ने अपना पराक्रम दिखाया. जब पाकिस्तान ने भारत के सैन्य ठिकानों पर हमला करने की कोशिश की तब भारतीय सेना ने पाकिस्तान में घुसकर उनके सैन्य ठिकानों को तबाह किया.
भारतीय सैन्य कार्रवाई से घबराकर पाकिस्तान ने संघर्ष विराम के लिए भारत के डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशन को फोन पर अनुरोध किया. भारतीय सेना ने जिसे मंजूर कर लिया. साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि, ऑपरेशन सिंदूर जारी है, क्योंकि यह आतंक के खिलाफ है, पाकिस्तान के खिलाफ नहीं. इसलिए अगर आतंकवादी कोई भी गतिविधि होगी तो फिर वैसा ही होगा जैसा इस ऑपरेशन में अभी किया गया है.
इस ऑपरेशन में भारत को कितना नुकसान हुआ. भारत के कितने विमान गिरे. इस पर सवाल खड़े किए गए. राहुल गांधी की ओर से सवाल पूछे गए. ऑपरेशन सिंदूर ज़ारी है, इसलिए इस पर कोई सफाई नहीं दी गई. भारत ने सर्वदलीय डेलिगेशन के माध्यम से दुनिया के देशों में पाकिस्तान को एक्सपोज किया.
देश की अंदरूनी राजनीति में ऑपरेशन सिंदूर पर आरोप-प्रत्यारोप अगले लोकसभा चुनाव तक चलते रहेंगे. इसका कारण यह है कि, राष्ट्रवाद भारतीय लोगों का बहुत भावनात्मक विषय है. जब भी युद्ध जैसा माहौल बनता है. देश लड़ता है, जीतता है और उसके बाद जब भी चुनाव होते हैं, तब देश के इस पराक्रम का लाभ उस दौर की सरकार के राजनीतिक दल को होता है.
ऑपरेशन सिंदूर की जीत का लाभ चुनावी राजनीति में सरकार और पीएम नरेंद्र मोदी को ना मिल जाए, इसके लिए सभी तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं. भारत की राजनीति में मोदी के कारण जो बदलाव आया है, वह ग्यारह सालों के बाद भी बहुत बड़ी जनसंख्या पचा नहीं पा रही है. खासकर बामपंथी विचारधारा, जो इसके पहले देश के पूरे सिस्टम पर हावी हुआ करती थी. अब धीरे-धीरे उसका प्रभाव कम हो रहा है.
जैसे-जैसे बीजेपी अपना प्रभाव सिस्टम पर मजबूत कर रही है, वैसे-वैसे विरोध में बिलबिलाने की आवाजें बढ़ने लगी है..
राजनीति की हिपोक्रिसी देखिए कि, सभी राजनीतिक दल कह रहे हैं उन्हें सेना के पराक्रम पर गर्व है. लेकिन सवाल देश के प्रधानमंत्री से पूछ रहे हैं. प्रधानमंत्री को देश का प्रतीक नहीं मान रहे हैं. एक व्यक्ति के रूप में मानकर जितने भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं, वह सब जाकर सेना तक ही पहुंचते हैं. फील्ड में क्या कोई प्रधानमंत्री लड़ता है लेकिन सेना के लिए टारगेट प्रधानमंत्री ही तय करता है.
सीमाओं पर तो लड़ती सेना ही है. किसी सोते हुए को तो जगाया जा सकता है. लेकिन जो सोने का अभिनय कर रहा हो उसे जगाना नामुमकिन है. ऑपरेशन सिंदूर में लक्ष्य हासिल करने के साथ ही भारत की जीत को जानते हुए भी राजनीतिक लाभ के लिए इसे देश की हार के रूप में बताने का शर्मनाक कृत्य छिपा हुआ नहीं है.
पॉलिटिकल लीडर पब्लिक को तो नासमझ ही समझते हैं. ऑपरेशन सिंदूर की एक-एक बात पब्लिक की नजर में सबूत के साथ साफ है. जब दो देशों के बीच में युद्ध जैसे लड़ाई होती है तो उसमें सेना को हुआ नुकसान मायने नहीं रखता.
सेना बार-बार मीडिया के सामने तथ्य रख चुकी है. अब तो चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ ने भी सिंगापुर में और फिर पुणे में स्पष्ट कर दिया है. उनका कहना है कि, युद्ध में सफलता या असफलता सैन्य नुकसान से निर्धारित नहीं होती बल्कि निर्णायक कारक लक्ष्य की प्राप्ति होती है.
जब दो देशों में लड़ाई होगी तो नुकसान दोनों को होगा. इसमें नासमझने जैसी कोई बात नहीं है. अगर यह मान भी लिया जाए कि,ऑपरेशन सिंदूर में भारत की सेना को भी नुकसान पहुंचा है. तब भी क्या इस ऑपरेशन की सफलता कम हो जाती है?
पाकिस्तान के भीतर घुसकर आतंकी ठिकाने नेस्तानाबूद करने की क्षमता क्या कम आंकी जाएगी. संसद का विशेष सत्र तो शायद ही बुलाया जाएगा. संसद प्रतिनिधि सभा है. जनसंसद तो देश की जनता है. जनसंसद के बीच प्रधानमंत्री भी अपनी बात रख रहे हैं और विपक्ष के नेता भी अपने सवाल उठा रहे हैं.
सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने दुनिया के सामने भारत का पक्ष रख रहा है. निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के हाथ में पक्ष रखना ही है. जनता इसको किस रूप में लेगी? किसकी बात पर भरोसा करेंगी? इसके लिए तो पक्ष विपक्ष दोनों को इंतजार करना पड़ेगा.
ऑपरेशन सिंदूर पर राजनीति न होती तो देश को खुशी होती. राजनीतिक दल अपनी राजनीति में सेना को नहीं घसीटते तो बेहतर होता. देश और सेना के ओज़ को गिराती राजनीति पर तो जनता अपना फैसला वक्त आने पर ही देगी. अब तो राजनीति में नीति बची ही नहीं है. केवल राज के लिए ही सब कुछ दांव पर लगाने के खेल खेले जाते हैं.
कई बार नासमझी, अपरिपक्वता और स्क्रिप्ट के चक्कर में देश को भी इसमें घसीट लिया जाता है. अफेंडर और विनर को सरेंडर बताकर केवल आत्महीनता का प्रदर्शन किया जा रहा है.