एमपी में कांग्रेस अजब है यहां के नेता तो और भी गजब हैं। पार्टी अपने विधायकों को संभाल नहीं पा रही है और उनकी खरीद-फरोख्त का आरोप भाजपा पर लगा रही है। यह कोई पहली बार नहीं है जब कांग्रेस ने विधायकों की खरीदी का आरोप लगाया है..!
जब कमलनाथ की सरकार के खिलाफ उनके विधायकों में बगावत हुई थी, तब भी खरीद-फरोख्त का आरोप लगाया गया था। अब राष्ट्रपति पद के चुनाव में भी विधायकों की बोली के आरोप को कांग्रेस का बचकाना व्यवहार ही माना जा सकता है।
राजनीति नहीं समझने वाला कोई अनजान व्यक्ति भी यह बात समझ सकता है कि राष्ट्रपति पद के लिए एनडीए की आदिवासी महिला उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू की जीत के लिए भाजपा के पास ही पर्याप्त मत हैं। एनडीए के अलावा कई अन्य दलों ने भी बिना शर्त द्रौपदी मुर्मू का समर्थन किया है।
उड़ीसा में नवीन पटनायक, झारखंड में हेमंत सोरेन, आंध्र प्रदेश में जगन रेड्डी, महाराष्ट्र में शिवसेना ने एनडीए उम्मीदवार के समर्थन का ऐलान किया है। जब एनडीए उम्मीदवार की जीत शत-प्रतिशत सुनिश्चित है तो फिर मध्यप्रदेश में कांग्रेस विधायकों की खरीद-फरोख्त का प्रश्न कहां से उठता है?
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और कांग्रेस के आदिवासी विधायकों के बयान हैं कि विधायकों को खरीदने के लिए भाजपा ने करोड़ों का ऑफर दिया है। बिना जरूरत इस दुनिया में कोई कुछ नहीं खरीदता विधायक तो फिर बहुत बड़ी बात है। अब प्रश्न यह है कि कांग्रेस मध्यप्रदेश में यह राजनीति क्यों कर रही है कि राष्ट्रपति निर्वाचन में उनके विधायकों को खरीदने की कोशिश की जा रही है?
इसका एक मतलब यह भी हो सकता है कि कांग्रेस के आदिवासी विधायक ही महिला प्रत्याशी के पक्ष में मतदान के लिए पार्टी पर दबाव बना रहे हों। इसलिए उनके इस अभियान को रोकने के लिए भाजपा पर खरीदी के आरोप लगाए जा रहे हों। कांग्रेस की शब्दावली में शायद खरीदी-बिक्री पहला और अंतिम शब्द हो गया है।
आज जो कांग्रेस के हालात हैं वह हमेशा ऐसे नहीं थे। इस पार्टी में ऐसे-ऐसे नेता रह चुके हैं जो सच्चाई के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाने के लिए तैयार रहते थे। हर चीज और हर समय राजनीति कांग्रेस नहीं करती थी। इंदिरा गांधी द्वारा अंतरात्मा की आवाज पर मतदान की अपील के बाद अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति का चुनाव हरा दिया गया था और वीवी गिरी भारत के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे।
आज राष्ट्रपति निर्वाचन में कांग्रेस राजनीतिक भूल कर रही है। एनडीए की ओर से पहली बार देश में आदिवासी महिला उम्मीदवार को राष्ट्रपति पद के लिए घोषित किया गया है। वहीं कांग्रेस विपक्षी दलों के प्रत्याशी का नेतृत्व तक नहीं कर पाई और उसे यशवंत सिन्हा का समर्थन करना पड़ रहा है, जबकि देश में अनुसूचित जनजाति वर्गों में कांग्रेस का हमेशा से व्यापक समर्थन रहा है।
कांग्रेस ने अगर आज तक देश के शासन में भागीदारी की है तो उसका श्रेय अनुसूचित जाति एवं जनजाति को देना चाहिए लेकिन अब धीरे-धीरे यह दोनों वर्ग कांग्रेस से छिटक रहे हैं। एनडीए ने रणनीति के आधार पर आदिवासी महिला उम्मीदवार उतारा है। इस उम्मीदवार के खिलाफ मतदान कर कांग्रेस आदिवासियों के बीच अपने बचे खुचे जनाधार को भी खो सकती है।
विपक्षी दल के कुनबे में शामिल कई दल जब आदिवासी और महिला राष्ट्रपति के नाम पर द्रौपदी मुर्मू का समर्थन कर रहे हैं तो फिर कांग्रेस की क्या मजबूरी है कि वह आदिवासी महिला उम्मीदवार के खिलाफ मतदान करने जा रही है? जो कांग्रेस हमेशा से आदिवासियों की राजनीति करती रही है तो फिर क्यों आदिवासी महिला उम्मीदवार के विरुद्ध मतदान का निर्णय लिया गया है?
कांग्रेस को आदिवासी विरोधी इस अभियान से क्या राजनीतिक लाभ होगा? वैसे ही आदिवासियों के बीच कांग्रेस का जनाधार लगातार कम होता जा रहा है। जब कांग्रेस को भी यह पता है कि एनडीए के उम्मीदवार की जीत पक्की है तो फिर आदिवासी विरोधी छवि बनाने का आत्मघाती कदम क्यों उठाया जा रहा है? अगर इसे विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस की कुर्बानी भी मानी जाए तब भी उन्हें इसका कोई बड़ा लाभ नहीं हो सकता है।
ममता बनर्जी ने यशवंत सिन्हा को विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस नेतृत्व से ज्यादा ममता बनर्जी राजनीतिक रूप से परिपक्व और चालाक साबित हो रही हैं। दोनों दलों के राष्ट्रपति उम्मीदवार अपने प्रचार अभियान के तहत हर राज्य में समर्थन मांगने के लिए जा रहे हैं। एनडीए उम्मीदवार पश्चिम बंगाल गई थीं।
इसके विपरीत ममता बनर्जी ने विपक्षी उम्मीदवार को पश्चिम बंगाल में प्रचार अभियान के अंतर्गत पहुंचने से ही मना कर दिया था। इस तरह के संदेश राजनीतिक हलकों में दिए गए कि ममता बनर्जी को ऐसा लग रहा है कि कहीं आदिवासी महिला उम्मीदवार के खिलाफ मतदान करने से आदिवासियों के बीच उनकी जड़ें कमजोर न हो जाएँ। यह बात टीएमसी को समझ आ रही है लेकिन कांग्रेस को समझ नहीं आ रही है?
मध्यप्रदेश के कांग्रेस नेताओं की राजनीतिक समझ पर तो कोई सवाल नहीं किया जा सकता। यह संभवतः पहला अवसर है जब राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त का आरोप किसी राष्ट्रीय पार्टी के विधायक द्वारा लगाये जा रहे हैं। राष्ट्रपति पद के निर्वाचन पर इस तरह की राजनीति वह भी कांग्रेस जैसी पार्टी की ओर से केवल राजनीतिक अपरिपक्वता के अलावा और क्या हो सकता है? विधायकों को बिना जरूरत के कोई क्यों खरीदेगा? जब बिना किसी खरीदी के ही एनडीए उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित है तब ऐसा करने के बारे में कोई सोचेगा भी क्यों?
विधायकों की खरीदी बिक्री का आरोप लगाकर राष्ट्रपति के निर्वाचन को गंदी राजनीति में घसीटा जा रहा है। क्या विधायक खरीदी के अपने रेट स्वयं बता रहे हैं? खरीदार की ओर से तो कुछ भी नहीं कहा गया लेकिन जिनको खरीदने की बात हो रही है, वही अपना रेट सार्वजनिक कर रहे हैं।
मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने 2018 में निर्दलीयों के समर्थन से सरकार बनाई थी। तब से ही गाहे-बगाहे यह आरोप सामने आते रहे कि भाजपा उनके विधायकों को खरीदने की कोशिश कर रही है। अंततः विधायकों की खरीदी बिक्री तो प्रमाणित नहीं हुई लेकिन पार्टी जरूर विभाजित हो गई। कांग्रेस की सरकार भी चली गई। खरीदी बिक्री का वही रोना आज तक रोया जा रहा है। अब राष्ट्रपति निर्वाचन में भी ऐसा ही रोना कांग्रेस रो रही है।
राष्ट्रपति चुनाव में किसी भी दल द्वारा पार्टी व्हिप जारी नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की राजनीतिक स्वतंत्रता है। यह ऐतिहासिक है कि देश में पहली बार आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने जा रही है।
इस इतिहास में जो लोग अपना नाम लिखेंगे उनको भारत का जनजातीय इतिहास हमेशा याद रखेगा। जो लोग राजनीतिक भूल करेंगे उनको भविष्य की जनजातीय राजनीति में नुकसान उठाना निश्चित है। आदिवासी भोले-भाले जरूर होते हैं लेकिन अब उनमें अपने समाज के प्रति जागरुकता बढ़ गई है। देश के सर्वोच्च पद पर आदिवासी समाज के प्रतिनिधित्व में सहयोग और विरोध करने वालों का वे भविष्य में हिसाब किताब अवश्य करेंगे।