• India
  • Thu , Jan , 23 , 2025
  • Last Update 05:37:PM
  • 29℃ Bhopal, India

प्रियंका गांधी की इंदिरा फाइल्स

सार

इंदिरा गांधी की मैचिंग साड़ी और हाथ में संविधान ना कोई रहस्य है, ना कोई राज. कांग्रेस तो प्रियंका गांधी को इंदिरा गांधी की छाया स्थापित करने की कोशिश उनके बचपन से ही कर रही है. किसी में किसी की छवि शरीर, बेशभूषा  में तो देखी जा सकती है, लेकिन आत्मा तो अलग होती है..!!

janmat

विस्तार

    हर आत्मा, अपनी निजता में जीती है. नुमाइश एक रूप हो सकती है लेकिन कर्तव्य निर्वहन एक जैसा नहीं हो सकता. प्रियंका गांधी के रूप में कांग्रेस की इंदिरा फाइल्स फिल्म, राजनीति में कितनी चलेगी यह तो भविष्य के गर्भ में है? इससे प्रियंका गांधी को और कांग्रेस को कितना लाभ होगा? यह तो नहीं मालूम लेकिन इससे इंदिरा गांधी की पहचान को जरूर ठेस लग सकती है.

   किसी दूसरे के जैसा बनना, दिखना सत्य नहीं हो सकता, यह तो पाखंड ही होगा. सत्य, खुद की तलाश है. खुद को दूसरे की पहचान से जोड़ना, सत्ता की तलाश के लिए जरूरी हो सकता है. 

    प्रियंका गांधी ने लोकसभा में सांसद की शपथ लेने के लिए बाकायदा, योजनावद्ध तरीके से इस तरह की साड़ी पहनी जो, पार्लियामेंट में लगी इंदिरा गांधी की फोटो से मेल खाती है. यह गांधी परिवार का परंपरागत प्रयोग है. हाथ में संविधान, हृदय का ईमान नहीं है बल्कि मस्तिष्क के पाखंड की पहचान ही हो सकती है.

    प्रियंका गांधी सांसद के रूप में भले ही पहली बार लोकसभा पहुंची हों लेकिन सियासी जीवन में वर्षों पहले वह सक्रिय हो गई थी. गांधी परिवार की सियासी विरासत में उनकी हिस्सेदारी लंबे समय से रही है. अपने पिता, मां और भाई के लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान का वह नेतृत्व कर चुकी हैं. उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस के अभियान की इंचार्ज रहीं. ‘लड़की हूं,लड़ सकती हूं’ का नारा, उन्हीं का ब्रेन चाइल्ड था, जो चुनाव में बुरी तरह से पराजित हो चुका है. 

    सोनिया गांधी ने अपने दोनों हाथ बेटे राहुल गांधी और बेटी प्रियंका गांधी को सार्वजनिक जीवन में सत्ता  की तलाश में उतार दिया है. राहुल गांधी तो बीते बीस साल से पार्लियामेंट में भूमिका निभा रहे हैं. प्रियंका गांधी जरूर पहली बार पहुंची है. अब एक बदलाव जरूर देखने को मिल सकता है कि, गांधी परिवार के विरासत का असली हकदार अपने आप को राहुल साबित कर पाते हैं या प्रियंका गांधी. राहुल गांधी तो सत्ता की तलाश में कांग्रेस को किसी किनारे पहुंचाने की बजाए भटकाने के ज्यादा जिम्मेदार माने जाएंगे.

    पॉलिटिक्स में सक्सेस के लिए बीस साल का समय बहुत लंबा पीरियड होता है. उम्मीद तो आदमी अंतिम समय तक पाले रहता है. भारतीय संस्कृति में जीवन के जितने आयाम होते हैं उसमें राहुल गांधी अब ऐसे पड़ाव पर पहुंच गए हैं, जो ढलान की ओर जाता है. राहुल गांधी की अपील परफॉर्मेंस और सक्सेस का रिकॉर्ड सामने है. अब संभावनाओं पर बात करने से ज्यादा, इस रिकॉर्ड पर ही चर्चा की जा सकती है. सियासत ऐसे दौर में है, जब कोई रिटायर नहीं होना चाहता. राहुल गांधी अब इसी दौर की ओर बढ़ रहे हैं.

    प्रियंका गांधी संसदीय राजनीति में पहली बार पहुंची हैं. यह तो निश्चित रूप से दिखाई पड़ता है कि, राहुल से ज्यादा प्रियंका गांधी की अपील है. जवाहरलाल नेहरू की विरासत इंदिरा गांधी ने संभाली थी. गांधी परिवार ने अपनी राजनीतिक विरासत पहले राहुल गांधी को दी थी, अब जब राहुल सफल नहीं हुए तो फिर प्रियंका गांधी को सियासी मैदान में उतारा गया है.  उनका व्यक्तित्व लोगों को आकर्षित करता है. पब्लिक कनेक्ट भी उनमें राहुल से ज्यादा दिखता है.

    सबसे पहले कांग्रेस और गांधी परिवार को यह तय करना होगा कि, पार्टी के नेतृत्व की विरासत अब राहुल के पास रहे या उसका पूरा दारोमदार प्रियंका गांधी को दे दिया जाए. नेतृत्व के स्तर पर कन्फ्यूजन पार्टी को काफी नुकसान पहुंचाती है. क्योंकि, राहुल गांधी अपनी सारी संभावनाओं का उपयोग कर चुके हैं, इसलिए नवीन संभावना के रूप में प्रियंका गांधी को संपूर्ण नेतृत्व सौंपा जाए, तो कम से कम प्रयोग की सफलता या असफलता का मौका तो हो ही सकता है.

    प्रियंका जब तक पीछे से कांग्रेस चला रहीं थी, तब तक उनका राजनीतिक विरोध भी दबे छुपे ही हो रहा था. अब जब संसद में सामने होगी तो फिर आरोप प्रत्यारोप का भी मुकाबला करना होगा. प्रियंका गांधी को तो उनके विरोधी, गांधी नहीं मानते वह तो उन्हें वाड्रा के रूप में संबोधित करते हैं. कांग्रेस उन्हें इंदिरा रिटर्न के रूप में स्थापित करना चाहती है, तो उनके विरोधी पप्पू रिटर्न स्थापित करना चाहते हैं. सोशल मीडिया पर ऐसे विचार प्रारंभ भी हो गए हैं.

    प्रियंका गांधी के लिए वाड्रा परिवार भी सार्वजनिक जीवन में कष्टकारी साबित हो सकता है. उनके पति के साथ जुड़े विवाद भी उनकी राजनीति को प्रभावित करेंगे. प्रियंका गांधी से बहुत ज्यादा उम्मीद पालने की तब तक आवश्यकता नहीं है, जब तक किसी भी आम चुनाव में उनकी भूमिका, पार्टी के लिए लाभकारी साबित नहीं हो जाती. 

    सियासत का ढंग बदल गया है. नायक-नायिका की राजनीति ज]मीनी हकीकत से मेल नहीं खाती है.  सियासत झूठ और पाखंड पर जरूर खड़ी होती है लेकिन सफलता इसमें सत्य की बहुल्यता को ही मिलती है.

    सियासत प्रगतिवादी हो ना कि, प्रतिक्रियावादी. कुछ लोग हैं जो गलत को ही तोड़ने में समय लगा देते हैं. तोड़ने से तो कोई नया मकान नहीं बन जाएगा, अच्छा यही होगा कि पहले नया बना कर दिखाएं. प्रियंका गांधी जब कांग्रेस में या कांग्रेस की सरकारों में कुछ नया कर, बनाकर दिखाने में सक्षम होंगी तभी उनकी इंदिरा फाइल्स की छवि चल पाएगी. 

    प्रियंका, इंदिरा गांधी की छवि पर अपनी पहचान नहीं बना पाएंगी, उन्हें अपने काम से अपनी छवि बनाना होगी. पाखंड और झूठ पर बनी छवि इसी पर ही समाप्त हो जाती है. प्रियंका गांधी के पास बेहतर करने की क्षमता भी है और संभावनाएं भी. बस उन्हें न इंदिरा गांधी, ना सोनिया गांधी और ना ही राहुल गांधी बनना है, उन्हें तो प्रियंका गांधी रहना है. किसी की लंका, किसी का डंका या किसी के ढंग का नहीं बल्कि सियासत में उन्हें प्रियंका का रंग बिखेरना है.