पर्यावरण दिवस पर वृक्षारोपण की बातें होती हैं. अभियान चलते हैं, वृक्षारोपण किये जाते हैं. फिर पेड़ों की बात अगले पर्यावरण दिवस पर ही होती है. जिस डाली पर बैठे हैं, उसी को काटने की कहानी हर व्यक्ति दोहरा रहा है..!!
नेता, अभिनेता,अमीर हो या फिर गरीब, कोई भी प्रकृति के कोप से नहीं बचता. फिर भी हम अंधेरे में चले जा रहे हैं. जंगल के इलाके हैं. उन इलाकों में कितने जंगल हैं. यह कागज पर कुछ होते हैं और जमीन पर उससे उलट होता है.
शहरी इलाके तो जैसे कांक्रीट के जंगल बनते जा रहे हैं. हर साल वन्य क्षेत्र का सरकारी सर्वेक्षण होता है. आकंडे भी आते हैं. कागज में तो अक्सर जंगल बढे हुए ही दिखाई जाते हैं. लेकिन जमीन पर तो हम जंगल काट रहे हैं. जंगल में तो पेड़ नहीं गिने जा सकते लेकिन शहरी इलाकों में पेड़ों का गिना जाना इतना कठिन भी नहीं है.
पेड़ों का ऑडिट होगा. उनकी गणना होगी तो हमें पता चलेगा कि,आबादी के हिसाब से कितने पेड़ों की आवश्यकता है और वर्तमान में कितने पेड़ उपस्थित है.
शहरों में हरियाली घट रही है. कंक्रीट के जंगल बढ़ रहे हैं. शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए पेड़ों की बलि दी जाती है. राजधानी भोपाल की जलवायु बदल गई है तो उसका कारण पेड़ों की कटाई ही है. चालीस साल पहले भोपाल में न इतनी ज्यादा सर्दी पड़ती थी और ना ही गर्मी. यहां का मौसम ऐसा होता था कि,गर्मी से बचने के लिए हिल स्टेशन पर नहीं जाकर भी यहां खुशनुमा जीवन गुजारा जा सकता था.
भोपाल ऐसा शहर है. जिसकी सीमा पर अभ्यारण हैं. किसी भी तरफ दस किलोमीटर निकलेंगें तो जंगल में पहुँच जाएंगे. शहरीकरण ने इस आबोहवा को खराब करने में कोई कमी नहीं छोड़ी है.
मनुष्य और पर्यावरण विराट अस्तित्व में संयुक्त हैं. पर्यावरण की किसी भी श्रृंखला को नष्ट कर हम अपना ही नुकसान करते हैं. जमीन, मकान के लिए जंगल काटेंगे तो केवल जंगल का ही नुकसान नहीं होगा, वर्षा भी बंद हो जाएगी. यह वृक्ष ही बादलों को निमंत्रण देते हैं. पहले हम जंगल काटते हैं फिर वृक्षारोपण का अभियान चलाते हैं.
बुद्धि से हमने जितनी भी प्रगति की है, उसने पर्यावरण की श्रृंखला को नुकसान पहुंचाया है. आज हम मृत्यु दर को कम करने में सफल हो गए हैं लेकिन अब हमें जन्म दर को कम करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. हमने दवाई ईजाद कर आदमी की उम्र बढ़ा दी है और दूसरी तरफ यह भी चिंता करते हैं कि, बच्चे कम पैदा हों.
प्रकृति और पर्यावरण ही परमात्मा है. यह सब कुछ एक दूसरे से जुड़ा है. पेड़ और मां संयुक्त हैं. वृक्ष, बादल से जुड़े हैं. मां बच्चे से जुड़ी है. जो स्त्री मां नहीं बनती, उसमें कुछ मर जाता है. बुद्धि से प्रगति और सुख की परिभाषा समझ से परे है. जंगल में जो आदिवासी रहते हैं, वह सबसे ज्यादा सुखी प्रतीत होते हैं, जबकि उनके पास भौतिक वस्तुओं का अभाव हैं. फिर भी प्रकृति के बीच उनकी खुशी, उनके पास जाकर ही महसूस की जा सकती है.
पर्यावरण और प्रकृति सह जीवन है. इसे हम भूल चुके हैं. आदमी कुछ अलग नहीं है. जैसे पशु ,पक्षी, पौधे और चांद तारे हैं, ऐसा ही आदमी है. वह भी इस विराट अस्तित्व का अंग है. लेकिन आदमी अपने को अंग नहीं मानता. वह अपनी बुद्धि से प्रकृति और पर्यावरण को ही जीतने की कोशिश करता है. इसको ही प्रगति मानता है. उसकी यही प्रगति उसे संकट में डाल देती है.
शहरी क्षेत्र में आज जो पर्यावरण नष्ट हो रहा है. जलवायु संतुलन बिगड़ रहा है. बीमारियां बढ़ रही हैं. पेयजल का संकट खड़ा हो गया है, वह इंसानी कालिदास ने अपने हाथों से निर्मित किया है.
यह कितना चिंताजनक है कि, जो राजनीति जातिगत जनगणना कराने लिए तत्पर हो गई है, उनके पास इसकी कोई गणना नहीं है कि, शहरी क्षेत्र में आबादी के हिसाब से वर्तमान में कितने पेड़ हैं और कितनों की आवश्यकता है.
जब हमको पता ही नहीं है तो फिर हम सुधार के सार्थक कदम कैसे उठा सकते हैं. वृक्षारोपण तो हर साल होते हैं लेकिन सारे पेड़ बड़े होने के पहले मर जाते हैं. वृक्षारोपण भी सरकार का अभियान होता है. और हर अभियान की तरह इसको चलाने वाले पर्यावरण से ज्यादा अपने आवरण को सशक्त करने में लगे होते हैं.
मध्य प्रदेश सरकार ने एक राष्ट्र, एक अभियान के रूप में एक पेड़ मां के नाम लगाने की भावनात्मक अपील की है. मां से ज्यादा करीब कोई नहीं होता. इसीलिए पेड़ लगाने के अभियान को मां के साथ जोड़ा गया है. जीवन का अभियान यह होना चाहिए कि, एक पेड़ खुद के लिए.
वृक्षारोपण अभियान सरकारों के भरोसे शायद ही सफल हो सकेगा. सरकारों को तो केवल फैसिलिटेटर के रूप में कानून, कायदे और परिस्थितियों का निर्माण करना चाहिए. यह अभियान तो तभी सफल होगा जब आदमी यह महसूस करेगा कि बिना पेड़ लगाए उसका जीवन समाप्त हो जाएगा. भले ही अभी ऐसा वक्त नहीं आया है लेकिन जिस तरह से जंगलों को काटा जा रहा है, यह वक्त आने में बहुत लंबा समय भी नहीं लगेगा.
हम अपने परिवार की चिंता करते हैं लेकिन पर्यावरण को नजर अंदाज करते हैं. पर्यावरण बचेगा तभी परिवार बचेगा. जब आदमी ही नहीं बचेगा तो फिर धन, दौलत, पद, प्रतिष्ठा का क्या मतलब रहेगा.
व्यक्तिगत स्तर पर लोगों में वृक्षारोपण के प्रति बढ़ती जागरूकता निश्चित ही सुखद लगती है लेकिन सरकारी स्तर पर तो यह सारे अभियान एक दिन और एक कार्यक्रम के रूप में लिए जाते हैं. अब तो पर्यावरण में बदलाव साफ-साफ दिखने लगा है. नदियाँ सूख रही हैं. भूजल स्तर गिरता जा रहा है. आदमी के जीवन में जो भी संकट खड़े हो रहे हैं, वह सब प्रकृति की श्रृंखला से जुड़े हुए हैं. कोई भी टेक्नोलॉजी या बुद्धि से की गई प्रगति तात्कालिक रूप से भले कोई बीमारी दूर कर दे लेकिन इससे दीर्घकाल में नई बीमारी खड़ी होगी.
अगर हमें जीना है और अपनी संतानों को जीता हुआ देखना है तो प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाना ही एक रास्ता है. जंगल उसकी बुनियादी जरूरत है. पेड़ होंगे तो वर्षा होगी, वर्षा होगी तो खेती होगी, जीवन होगा, इसलिए पेड़ लगाना आदमी के जन्म जैसा ही जरूरी है.
प्रवचन से इसमें सुधार अब तक तो नहीं हो पाया है. आशा ही भविष्य है और इसके लिए पेड़ लगाना, सुरक्षा करना, उनकी गणना करना सबसे बड़ा दायित्व बनाना होगा.