भाजपा और मोदी विरोध की राजनीति में विपक्षी पार्टियों के बेमेल गठबंधन की रणनीति को बड़ा झटका लगा है। महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के तीर से विपक्षी महागठबंधन का सपना चकनाचूर हो गया है। आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भाजपा को विचारधारा की राजनीति का फायदा मिल सकता है। महाराष्ट्र के उलटफेर से हिंदुत्व की राजनीति को जहां बल मिला है वहीं महाअघाड़ी सरकार में शामिल दलों को हिंदुत्व विरोधी छवि का नुकसान हुआ है।
महाराष्ट्र की केंद्र सरकार से राज्य की चुनावी गणित में भाजपा का पलड़ा भारी होता दिखाई पड़ रहा है। असली शिवसेना की अदालती लड़ाई का फैसला आने में समय लगेगा लेकिन जिस तरह से विधायकों ने उद्धव ठाकरे के खिलाफ विद्रोह किया है, उससे लगता है कि उद्धव को पार्टी पर अपना नियंत्रण बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होगी।
महाराष्ट्र मोदी विरोधी राजनीतिक दलों की एकता के प्रयासों का केंद्र बन रहा था। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी विपक्षी दलों के गठबंधन के लिए शरद पवार और उद्धव ठाकरे की सहभागिता हासिल करने में सफल हो गईं थीं। राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष का साझा उम्मीदवार उतारने की रणनीति विपक्षी गठबंधन के शुरुआत के रूप में देखी जा सकती है।
यद्यपि राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाजपा ने विपक्ष को आदिवासी और महिला प्रत्याशी उतारकर पटकनी दे दी है। उड़ीसा में बीजू जनता दल और झारखंड में हेमंत सोरेन ने एनडीए के प्रत्याशी का समर्थन कर ही दिया है। ममता बनर्जी मोदी विरोध का झंडा उठाए हुए हैं।
वे दक्षिण भारत के राज्यों में टीआरएस और डीएमके के साथ तृणमूल कांग्रेस के धुर विरोधी वामदलों को भी विपक्ष के महागठबंधन में शामिल करना चाहती हैं लेकिन अब एकनाथ शिंदे के विद्रोही होने से विपक्षी गठबंधन का भविष्य को धूमिल हो गया है।
महाराष्ट्र के घटनाक्रम के बाद कई राज्यों के क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने विपक्षी गठबंधन की राजनीति से अपने पांव पीछे खींच लिए हैं। इसका बड़ा कारण यह माना जा रहा है कि पार्टियों को विचारधारा की राजनीति से हटकर तालमेल करने में भय लग रहा है। उद्धव ठाकरे ने हिंदुत्व की विचारधारा छोड़कर कांग्रेस और एनसीपी के साथ जिस तरीके से समझौता किया और उसके बाद उनकी जो दुर्गति हुई है, उसको देखते हुए परिवारवादी ठिठक से गए हैं।
तेलंगाना में विधान सभा चुनाव को देखते हुए सारी गतिविधियां राज्य की राजनीति तक सिमट गई हैं। तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति पर करुणानिधि परिवार के कब्जे के विरुद्ध भी सुगबुगाहट शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परिवारवाद की राजनीति को लोकतंत्र और देश के लिए घातक बताते हुए इसे एक मुद्दे के रूप में जनता के सामने उठाने में सफलता प्राप्त की है।
परिवारवाद की राजनीति पर आम लोगों में चिंतन मनन प्रारंभ हो गया है। परिवारवादी राजनीतिक दलों की सरकारों में भ्रष्टाचार और अराजकता के माहौल की स्मृतियां मतदाताओं के मन मस्तिष्क पर प्रभाव डालने लगी हैं। परिवारवाद की राजनीति उफान से ढलान की ओर चल पड़ी है।
परिवारवाद के खिलाफ भाजपा का अभियान अपना रंग दिखा सकता है। एकनाथ शिंदे का विद्रोह भी परिवारवाद की राजनीति पर एक बड़ा हमला है। उद्धव ठाकरे अब तक बाल ठाकरे की विरासत संभाल रहे थे लेकिन सत्ता के लिए उनके द्वारा हिंदुत्व की विचारधारा को छोड़कर कांग्रेस और एनसीपी जैसे दलों से बेमेल गठबंधन किया गया था, जिसने शिवसेना को इतने बड़े विद्रोह में झोंक दिया।
विपक्षी गठबंधन की राजनीति देश में पहले भी होती रही है लेकिन हर बार इसे असफलता ही मिली है। ममता बनर्जी विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस पार्टी को इस शर्त पर शामिल करना चाहती हैं कि जिस पार्टी की लोकसभा सीटें ज्यादा होंगी, उस दल का नेता ही गठबंधन का नेतृत्व करेगा।
ममता बनर्जी को लगता है कि शायद तृणमूल कांग्रेस की सीटें कांग्रेस से ज्यादा होंगी। वैसे भी कांग्रेस पार्टी विपक्षी गठबंधन में शामिल होने से भयाक्रांत दिखाई पड़ती है। अभी तक जब भी कांग्रेस ने गठबंधन में शामिल होकर जिन भी राज्य में चुनाव लड़ा है वहां उसका अस्तित्व दांव पर लग गया है।
उत्तर प्रदेश इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जिस प्रदेश में लंबे समय तक कांग्रेस सरकार चलाती थी उस प्रदेश में आज उसके पास केवल दो विधायक हैं। कांग्रेस की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति देखिए उत्तर प्रदेश विधान परिषद में आज उनका एक भी सदस्य नहीं है।
विपक्षी गठबंधन में विचारधारा भी एक बड़ा फैक्टर होती है। अलग-अलग दलों की विचारधारा भी अलग-अलग होती है। राज्यों में विपक्षी दल एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर चुनाव के लिए उन दलों के बीच एकता बेमेल गठबंधन के रूप में दिखाई पड़ती है। विचारधारा को सत्ता के लिए भुला दिया जाता है। महाराष्ट्र में विचारधारा छोड़ने के कारण शिवसेना में हुए विद्रोह का मनोवैज्ञानिक असर सभी विपक्षी दलों पर होना स्वाभाविक है।
अब ऐसी परिस्थितियां निर्मित हो रही हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव में बिखरा हुआ विपक्ष, भाजपा के सामने होगा। नरेंद्र मोदी की छवि और भाजपा संगठन की ताकत के साथ ही विचारधारा के लिए काम करने वाले दल के रूप में केवल भाजपा ही दिखाई पड़ रही है। भाजपा राष्ट्रवाद हिंदुत्व और विकास के एजेंडे पर जन समर्थन हासिल करने में लगातार सफल होती रही है।
महाराष्ट्र में महाअघाड़ी सरकार का प्रयोग कांग्रेस और एनसीपी ने बड़ी जद्दोजहद के बाद भाजपा को अलग-थलग कर गठबंधन से उसके मुकाबले के लिए किया था। अगर यह गठबंधन 5 साल तक चल जाता तो भाजपा को इसके खराब नतीजे भुगतने पड़ते। इस गठबंधन से उत्साहित विपक्षी दल राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के विरोध में महागठबंधन की रणनीति पर आगे बढ़ रहे थे लेकिन शिंदे का तीर इस पूरी रणनीति को भेद कर आगे निकल गया है।
राजनीतिक दलों को अब विचारधारा पर अधिक सजग होना पड़ेगा। ऐसा नहीं हो सकता कि चुनाव के समय विचारधारा के आधार पर जन समर्थन हासिल किया जाए और बाद में सत्ता के लिए उसको छोड़ दिया जाए। सभी दलों को अब राजनीतिक विचारधारा को प्राथमिकता देने का समय आ गया है।
राजनीति के प्रति आम लोगों में बढ़ती जागरुकता के कारण अब यह समय नहीं रहा कि लोगों को धोखे और भुलावे में बहुत लंबे समय तक रखा जा सके। जिस भी राजनीतिक दल द्वारा अपनी विचारधारा और कमिटमेंट को पूरा नहीं किया जाएगा उसका भविष्य हमेशा उज्जवल रह सकेगा इसमें संशय है।