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घटती कमाई-बढ़ती महंगाई और राजनीतिक बेवफाई

सार

पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों से परेशान जनता का महंगाई में आटा गीला हो रहा है। देश में पहली बार प्री पैक्ड लेबल वाले फ़ूड आइटम आटा, चावल और दाल के साथ दही, पनीर, लस्सी, शहद आदि पर 5% जीएसटी लागू कर दिया गया है। विपक्ष इसको लेकर संसद में आंदोलन कर रहा है..!

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विस्तार

केंद्र सरकार ने जब जीएसटी लागू किया गया था, तब यह कहा गया था कि आटा दाल और चावल जैसे आवश्यक खाद्य पदार्थों पर टैक्स नहीं लागू किया जाएगा। क्योंकि आटा और चावल अमीर-गरीब सबका निवाला है।

गरीब का पेट तो आटे, दाल और चावल से ही भरता है। इस पर टैक्स लगाने से सरकार के प्रति गरीबों में निराशा का भाव बढ़ेगा। आटे-दाल पर टैक्स से सरकार का राजकोषीय घाटा तो खत्म होने से रहा लेकिन यह राजनीतिक घाटे का सौदा जरूर साबित हो सकता है। 

पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतें चरम पर हैं और इनके कारण आम उपभोक्ता के लिए वस्तुओं की कीमतें पहले ही बढ़ी हुई हैं। रिटेल और थोक दोनों पर महंगाई की दरें लगातार बढ़ती जा रही हैं। पूरी दुनिया में मुद्रास्फीति बढ़ी हुई है। महंगाई लगातार बढ़ रही है। स्थिति चिंताजनक है। आम लोग तमाम कठिनाइयों के बीच जीवन यापन कर रहे हैं। 

भारत के पड़ोसी देशों में आर्थिक हालात चिंताजनक स्थिति में हैं। श्रीलंका और पाकिस्तान में महंगाई सारे रिकॉर्ड तोड़ रही है। सभी देशों में अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ाई हुई है। भारत में भी करों का स्तर कम नहीं है। जनता में क्षमता नहीं बची है कि वह अतिरिक्त करों को बर्दाश्त कर सके।

लोगों की कमाई घट रही है। लोगों के लिए बढ़ती महंगाई के इस दौर में परिवार पालना तक मुश्किल हो रहा है। इधर भारतीय शासन व्यवस्था चौतरफा राजनीति का शिकार बनी हुई है। जनता से जुड़े महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे ही राजनीति के निर्णायक मुद्दे नहीं बन पा रहे हैं।

निर्वाचन के समय कुछ अलग तरह के मुद्दे बनाए जाते हैं और बाद में सरकारों को एक जैसा ही काम करना पड़ता है। अर्थव्यवस्था के विषय जहां राजनीति से दूर होना चाहिए वहीं भारत में इस पर भी राजनीति हावी बनी हुई है। कोई भी राजनीतिक दल चुनाव में टैक्स बढ़ाने या कम करने को मुद्दा नहीं बनाता।

इसके विपरीत चुनाव में मुफ्तखोरी की घोषणाएं कर जनता को बरगलाया जाता है। सभी राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिए मुफ्तखोरी की सियासत का सहारा लेते नज़र आ रहे हैं। प्रधानमंत्री ने पिछले दिनों राजनीति में रेवड़ी संस्कृति के खिलाफ देश को आगाह किया है।

यह अलग बात है कि राजनीतिक रेवड़ी बांटने में भारतीय जनता पार्टी भी पीछे नहीं है। किसानों को सम्मान निधि के नाम पर नगद राशि देना और 80 करोड़ लोगों को निशुल्क खाद्यान्न देना भाजपा सरकार के ही निर्णय हैं। शिक्षा-स्वास्थ्य और पोषण सरकारों का दायित्व है लेकिन नगद राशि या मुफ्त में कोई चीज देना न तो सरकारों के लिए उचित है और न ही जनता के लिए सही है। 

अब जबकि सरकार के आंकड़े ही यह बता रहे हैं कि जून महीने में जीएसटी कलेक्शन 56 फीसदी बढ़कर 1.44 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया है और यह लगातार पांचवां ऐसा महीना रहा है जब सरकार को जीएसटी से एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का राजस्व प्राप्त हुआ है तो आम जन की सबसे मूल जरुरत के खाद्य पदार्थों को जीएसटी में लाना उचित नहीं कहा जा सकता। 

अगर आटा, चावल और दाल को जीएसटी के दायरे में लाना सरकार को नितांत आवश्यक लग भी रहा है तो 25 किलोग्राम से ज्यादा की पैकिंग को जीएसटी में लाया जाना चाहिए। वर्तमान में इसके विपरीत 25 किलोग्राम से कम की पैकिंग को जीएसटी के दायरे लाया गया है।

इसकी सबसे ज्यादा मार निम्न और मध्यम वर्ग पर ही पड़ना है। इसलिए सरकार को इस निर्णय पर दोबारा गंभीरता से विचार करना चाहिए। साथ ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि महंगाई जनता में आक्रोश का कारण न बन सके और देश का विकास भी प्रभावित न हो..!