आज फिर पढ़ा कि सरकार विकास के रोडमैप के लिए कान्हा में चिंतन करने जा रही है, मंत्री समूह भी मनाए गए हैं, मेरा तो मानना है चिंतन मंथन नहीं ये तो सब फसाने हैं पर्यटन के बहाने हैं। समितियां तो पहले भी कई बनीं लेकिन उनका भी क्या हुआ?
आम आदमी में रोडमैप शब्द प्रचलित होता जा रहा है, सब जानते हुए भी एक मित्र पूछ रहे थे कि भाई यह रोडमैप क्या है? यह रोडमैप बनता कैसे है और बनने के बाद इसका क्या होता है।
सरकार बार-बार रोडमैप बनाने की बात करती है, न्यूज़ पेपर में भी रोडमैप-रोडमैप शब्द पढ़ने को मिलता रहता है। यह कौन सी रोड है जिसका मैप बनाया जाता है।
कभी विकास का रोडमैप बनता है, कभी आत्मनिर्भर मध्य प्रदेश का रोडमैप बनता है।
मुझे वो रोड भी देखनी है जिस पर यह मैप बनते हैं। क्या वो रोड सिर्फ मैप बनाने के काम आती हैं? या उस पर सवार होकर विकास की गाड़ी मंजिल तक भी पहुँचती भी है?
मैंने उन्हें बताया कि भाई मध्य प्रदेश सरकार भविष्य की योजनाओं को देखते हुए जो प्लानिंग करती है और उस प्लानिंग को पूरा करने के लिए जो टाइमलाइन और तरीके अपनाए जाने हैं उनके लेखे जोखे को रोडमैप कहा जाता है, वो बोले अच्छा तो ये रोडमैप कागजी घोड़े हैं।
मैंने कहा हैं- रोडमैप सिर्फ कागजी दस्तावेज़ नहीं है बल्कि उसे ठीक उसी तरह अमल में लाना होता है जैसा तय किया गया है। उन्होंने पूछा हमने तो आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश के रोडमैप के बारे में भी सुना था वो तो ज़मीन पर उतरा नहीं।
आज फिर पढ़ा कि सरकार विकास के रोडमैप के लिए कान्हा में चिंतन करने जा रही है, मंत्री समूह भी मनाए गए हैं, मेरा तो मानना है चिंतन मंथन नहीं ये तो सब फसाने हैं पर्यटन के बहाने हैं। समितियां तो पहले भी कई बनीं लेकिन उनका भी क्या हुआ?
साफ है ये रोडमैप और कुछ नहीं एक तरह का घोषणा पत्र ही है। जो दिखाने के लिए है होने के लिए नहीं। ये एक ऐसे नागरिक की समझ थी जो राजनीति के बारे में ज़्यादा रुचि नहीं रखता बस न्यूज़ से अपडेट रहता है। सरकारी मिशन विज़न मीटिंग मंथन चिंतन को लेकर अमूमन लोगों में यही धारणा है।
ये सरकारों को शायद पता भी हो। लोगों के इन दिमागी मगजमारियों से कुछ खास लेना देना नहीं। उनके लिए ये खबर मात्रा है जो सिर्फ अखबार या चैनल को स्पेस भरने का मौका देती है।
जनता में इतनी समझ यूं ही नहीं पैदा हो गयी। उन्होंने समितियों का चिंतन मंथन बैठकों का सम्मेलनों का सम्मिटों का हश्र देखा है।
जनता तो अब कहती है सम्मिट-बम्मिट, रोड-वोड मैप, चिंतन-विन्तन, छोड़ो ये बताओ कि हालात कब बदलेंगे? ऐसा कब होगा कि हमे काम कराने के लिए रिश्वत नहीं देनी पड़ेगी? हमारे यहां की रोड कब सुधरेगी? कब हमारे घरों के पास की नाली बनेगी, धूल से कब मुक्ति मिलेगी, बेईमानों को कब तक अमीर बनते और आम गरीब इंसान को कब तक चूसते देखेंगे। सब वैसा ही तो है।
विकास के नाम पर झुनझुना पकड़ पकड़ कर तक गए।
काम होते हैं लेकिन 100 दिन चले अढ़ाई कोस की तरह, अपराधी मजे में हैं। थानेदार जुआ सट्टा चलवा रहे हैं। सब कुछ तो दिख रहा है। लेकिन ये चिंतन मंथन वालों को क्यों नहीं दिखाई देता? आम आदमी बहुत समझदार है सब जानता है। विकल्प नहीं उसके पास, कहता है जिसे मौका दो वो अपना उल्लू सीधा करता है।
नेता बड़ी बड़ी बातें करते हैं, अफ़सर अपना उल्लू सीधा करते हैं। जो सत्ता में आता है वादे भूल अपना पेट भरने में जुट जाता है। दिखता नहीं क्या हमें? जनता के बीच ऐसी ऐसी बातें चलती हैं जो आंखें खोलती हैं। अंदरखाने चल रहे भ्रष्टाचार के चर्चे आम हैं। पब्लिक भी मजबूर है।
आप भले कमेटियां बना लो, मंथन बैठकें कर लो, उसकी उम्मीदें अब सो चुकी हैं। मशीन हुआ आम नागरिक बस बातों में अपना दुखड़ा रोता है, उसका खुद का कोई रोड मैप नहीं है, बस जिये जा रहा है कांग्रेस और बीजेपी के राज में नाउम्मीदी का ज़हर पिये जा रहा है।
सरकार के सामने यही चुनौती है। वो विश्वास जगाना जो टूट चुका है, हमदर्दी की बातों से जिसका मन ऊब चुका है। नेताओं और अफसरों के लिए एक ऐसा स्थाई भाव बन चुका है जो थोड़ा भी बदल जाये तो कमेटी-चिंतन का रस समझ आ जाये।