पद शरीर को आनंद पहुंचाता है. अंतरात्मा का आनंद किसी पद से नहीं हो सकता. सियासी ज्ञान सियासत चमकाने के काम आ सकता है. धर्म निजी आस्था है. पूजा पद्धति धर्म नहीं हो सकती..!!
कोई नेता अपनी धार्मिक आस्था का तो ठेकेदार हो सकता है. पूरा समाज उसकी ठेकेदारी में नहीं चल सकता. भारत में रहने वाले आदिवासी हिंदू धर्म में ही आस्था रखते हैं, जो इनमें आस्था नहीं रखते वह धर्म परिवर्तन कर दूसरा धर्म स्वीकार कर लेते हैं. भारत में हिंदू, इस्लाम, सिक्ख, बौद्ध, जैन, यहूदी, पारसी, ईसाई प्रमुख धर्म हैं. भारत के लोग इन्हीं धर्मों के बीच विभाजित हैं.
आस्था के अनुसार लोग अपने धर्म का पालन करते हैं. बाकी किसी धर्म में विभाजन की गुंजाइश नहीं है. सियासत केवल हिंदू धर्म को ही विभाजित कर राजनीतिक रोटी सेंकना चाहती है. पहले जातिगत जनगणना और अब आदिवासियों के हिंदू नहीं होने की बात करके विभाजन का एजेंडा कांग्रेस चलाने की कोशिश कर रही है.
मध्य प्रदेश के नेता प्रतिपक्ष का बयान सामने आया है. जिसमें वह कह रहे हैं, कि आदिवासियों गर्व से कहो हम आदिवासी हैं, हिंदू नहीं. शबरी ने राम को बेर खिलाए थे. वह आदिवासी थीं. अभी तक जो वैधानिक व्यवस्था है उसमें कई स्थानों पर धर्म का उल्लेख करना पड़ता है. अभी तक तो देश के आदिवासी अपने धर्म के कॉलम में हिंदू ही लिखते रहे हैं, यह कोई नया विवाद नहीं है, कांग्रेस और बीजेपी के बीच यह विवाद बहुत पुराना है. आदिवासी हिंदू हैं. इसके अलावा आदिवासियों को वनवासी कहने पर भी विवाद है. जनजातीय कहने पर भी अलग-अलग राय है.
कमलनाथ ने फरवरी 2019 में जनजातीय कल्याण विभाग का नाम बदलकर आदिम जाति कल्याण विभाग कर दिया था. बीजेपी की सरकार आने के बाद फिर से विभाग का पुराना नाम ही रखा गया है. कांग्रेस और बीजेपी के बीच में विभाग का नाम बदलने की यह प्रक्रिया पहले भी हो चुकी है. यह आदिवासियों की पहचान का विवाद नहीं है, बल्कि भाजपा और कांग्रेस के बीच राजनीतिक ठेकेदारी का विवाद है.
कांग्रेस पहले आदिवासियों को अपना वोट बैंक समझती थी. अब उसमें सेंध लग गई है. फिर भी अभी आदिवासियों का कांग्रेस को पर्याप्त समर्थन मिलता दिखाई पड़ता है. आदिवासी राजनीति को ही ध्यान में रखते हुए कांग्रेस ने एक आदिवासी नेता को विपक्ष का नेता बनाया है. मध्य प्रदेश के गठन के बाद लगभग पचास सालों तक अधिकांश समय मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता रही. छत्तीसगढ़ विभाजन के पहले किसी भी आदिवासी नेता को कांग्रेस पार्टी द्वारा सीएम नहीं बनाया गया था.
कथनी और करनी को समझने में अब आदिवासी भी पीछे नहीं है. जब कांग्रेस के पास मौका था कि वह राज्य का नेतृत्व आदिवासियों को दे सकती थी, तब तो उन्हें पिछलग्गू बनाए रखा गया. अब जब आदिवासियों में जनाधार खिसकने लगा तो फिर आदिवासी की राजनीति शुरु कर दी गई. कांग्रेस आदिवासियों को हिंदू धर्म का नहीं मानती तो उसे यह भी बताना पड़ेगा कि उनका धर्म इस्लाम है या ईसाइयत है.
आदिवासियों के धर्मांतरण का मुद्दा तो बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का सबसे बड़ा एजेंडा रहा है. आदिवासी अंचलों में आरएसएस के अनेक संगठन लंबे समय से इसको रोकने के काम कर रहे हैं. सियासी नेता ऐसा ज्ञान क्यों देते हैं जो उनका विषय नहीं है.
ऐसा माना जाता है, कि सार्वजनिक जीवन में छवि के प्रति सजग रखना चाहिए. लेकिन फिर भी नकारात्मक बयान या आचरण करने वाले भी चुनाव में विजय प्राप्त करते हैं.प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या चुनावी राजनीति में छवि का कोई प्रभाव पड़ता है?
देश का राजनीतिक परिदृश्य देखकर तो ऐसा लगता है, कि नेता की छवि का चुनाव पर सबसे न्यूनतम प्रभाव पड़ता है. जाति और धर्म सबसे ज्यादा चुनावी जीत में प्रभाव डालती है. अपराधिक और भ्रष्ट छवि के लोग चुनाव जीतकर सांसद-विधायक बन जाते हैं. इससे भी यही साबित होता है कि अच्छी छवि की चुनावी जीत के लिए कोई आवश्यकता नहीं है. जाति और धर्म से जो प्रभावित नहीं होते उन्हें सियासी कालेधन से प्रभावित करना बहुत आसान होता है.
हिंदुत्व की राजनीति कांग्रेस के पतन का कारण बन गई है. इसलिए कांग्रेस हमेशा हिंदू और हिंदुत्व के अपमान के जरिए अपने वोट बैंक को मजबूत करने की कोशिश करती है. कांग्रेस को लगता है कि हिंदुत्व के समर्थक उसके मतदाता नहीं है. इसलिए उन्हें हिंदुत्व की चिंता भी नहीं होती. छोटे-मोटे नेताओं की नहीं राहुल गांधी और सोनिया गांधी हिंदुत्व के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण ही प्रकट करते हैं.
हिंदू आस्था के सबसे बड़े पर्व महाकुंभ में जब देश के प्रधानमंत्री और हर बड़े-बड़े नेताओं ने संगम पर जाकर डुबकी लगाई थी तब भी गांधी परिवार ने इसमें आस्था नहीं दिखाई. वैसे तो राहुल गांधी हिंदू और जनेऊधारी होने का वक्तव्य देते हैं. अब जाति जनगणना हो रही है तो उनकी भी वास्तविक जाति देश को पता लग जाएगी.
राजनीति में गिरावट के लिए जितने सियासी नेता जिम्मेदार हैं, उससे ज्यादा उनको चुनने वाले मतदाता जिम्मेदार हैं.