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सिसकता सिस्टम, हुंकारता सीएम एकात्मवाद

सार

छत्तीसगढ़ शासन के चैनल्स में चल रहे एक प्रमोशनल केम्पेन को देखकर चौंकना स्वाभाविक था। इस वीडियो में यह दिखाया जा रहा है कि राजीव गांधी की जयंती (20 अगस्त) के अवसर पर छत्तीसगढ़ की बघेल सरकार ने राजीव गांधी किसान न्याय योजना के अंतर्गत 21 लाख किसानों के खातों में 1522 करोड़ रुपए ट्रांसफर किए हैं। इस वीडियो को देखकर चौंकने का कारण यह था कि राशि का ट्रांसफर जैसे छत्तीसगढ़ शासन ने नहीं बल्कि बघेल सरकार द्वारा किया गया है।

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विस्तार

प्रश्न यह है कि छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल हैं लेकिन सरकार तो छत्तीसगढ़ शासन की है। इस सरकार का नेतृत्व मुख्यमंत्री करते हैं लेकिन नेतृत्व करने वाले के नाम से सरकार का संबोधन संविधान सम्मत कैसे हो सकता है? केवल छत्तीसगढ़ में नहीं बल्कि सभी राज्यों में मुख्यमंत्रियों के सरनेम या उपनाम का उपयोग करते हुए राज्य सरकारों का नाम ही बदल दिया जाता है। मुख्यमंत्री एक संवैधानिक व्यवस्था है। इसे सरकार नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक राज्य का संविधान सम्मत तरीके से नाम निर्धारित किया गया है। इसी नाम के आधार पर राज्यों के राज्य चिन्ह निर्धारित हैं। इसमें किसी प्रकार से फेरबदल करना कानून सम्मत नहीं कहा जा सकता है। 

इसके बावजूद देश में आज ऐसा माहौल बना दिया गया है कि सरकारों का नेतृत्व करने वाला नेता ही अपने को सरकार मानने लगता है। ब्यूरोक्रेसी भी सरकार की इस मर्यादा पर ध्यान नहीं देती और प्रचार-प्रसार में सरकारी दस्तावेजों में राज्य का नाम दरकिनार करते हुए सीएम के उपनाम या सरनेम को जोड़कर दिखाया और सुनाया जाता है। 

यह किसी एक राज्य का मामला नहीं है। बंगाल में चले जाएंगे तो सारी सरकारी प्रचार सामग्री ममता बनर्जी सरकार नाम पर केंद्रित दिखाई पड़ेगी। मोदी सरकार, योगी सरकार, शिवराज सरकार, गहलोत सरकार, स्टालिन सरकार, केसीआर सरकार के नाम से प्रमोशनल वीडियो और प्रिंट एडवरटाइजमेंट अक्सर देखने को मिल जाएंगे। अब तक तो धार्मिक संतो के नाम के आगे ही सरकार लिखा जाता रहा था। इस तर्ज़ पर पण्डोखर सरकार, रावतपुरा सरकार और बागेश्वरधाम सरकार के नाम मध्यप्रदेश में बहुत सुनाई देते हैं।  

संवैधानिक स्थिति यह है कि किसी भी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के नाम से कोई भी सरकार का कार्यपालिक आदेश-निर्देश जारी नहीं किया जा सकता। सरकार के आदेश-निर्देश राष्ट्रपति और राज्यपाल के आदेशानुसार ही प्रसारित किए जाते हैं। इसके बावजूद प्रमोशनल केम्पेन में राजनीतिक लाभ के लिए इस तरह सरकारों का राजनीतिकरण किया जाता है। कोई भी सरकार नियम-कानून और प्रक्रिया के अनुरूप चलती है। सरकारों की अपनी मर्यादा होती है। मर्यादा का पालन नहीं करने से सरकारों का इकबाल घटता है। 

अगर किसी ने सरकारी सिस्टम महसूस किया होगा तो उसे साफतौर से दिख जाएगा कि सरकारों में सामूहिक जिम्मेदारी कहीं खो सी गई है। आज राज्य सरकारों में सीएम एकात्मवाद हावी है। इस तरह के राजनीतिक विवाद लगभग हर राज्य में विद्यमान हैं। राज्यों के मंत्रियों द्वारा अक्सर ये आरोप लगाए जाते हैं कि सिस्टम पर पूरा कब्जा सीएमओ का है। मंत्रियों की तो चलती ही नहीं है। यही प्रवृत्ति सरकारों के नाम को ही बदल कर मुख्यमंत्री के साथ जोड़कर प्रचारित करने के पीछे दिखाई पड़ती है। 

जनधन से चलने वाली सरकारें चाहकर भी नियम-कानून से हट नहीं सकती हैं। सरकारी प्रचार-प्रसार के नाम पर राजनीतिक लाभ लेने की प्रवृत्ति को देखते हुए ही सर्वोच्च न्यायालय में जन-धन से सरकारी प्रचार-प्रसार के लिए दिशा निर्देश जारी किए गए हैं। लगभग 6-7 साल पहले सर्वोच्च न्यायालय में यह याचिका लगाई गई थी कि जन-धन से राज्यों के मंत्रियों के फोटो और विज्ञापन का बेतहाशा प्रचार कर सरकारी धन का दुरुपयोग किया जा रहा है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने व्यापक सुनवाई के बाद राज्य सरकारों द्वारा जन-धन का उपयोग कर मंत्रियों के प्रचार प्रसार को प्रतिबंधित कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सरकार के धन से किसी भी मंत्री का फोटो विज्ञापनों में प्रकाशित नहीं किया जाएगा। सर्वोच्च अदालत ने प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति, राज्यों के मुख्यमंत्री और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को इस प्रतिबंध से छूट दी थी।  

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मंत्रियों के सरकारी धन से प्रचार को प्रतिबंधित करने के पीछे सोच यही थी कि जनधन का दुरुपयोग रुके लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की मंशा क्या पूरी हुई? मंत्रियों के फोटो वाले सरकारी विज्ञापन तो रोक दिए गए लेकिन क्या इससे सरकारों का धन बचा है? किसी भी सरकार का प्रचार मद का पैसा क्या इन वर्षों में कम हुआ है? प्रारंभिक रूप से जो दिखाई पड़ता है, उससे तो यही लगता है कि प्रचार प्रसार के लिए सरकारी धन के खर्च में कमी आने के बजाय हर राज्य में इसमें वृद्धि हुई है। 

अगर ऐसा हुआ है तो क्या सर्वोच्च न्यायालय की मंशा पर पानी फिर गया है? क्या इसका विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए कि जन-धन का उपयोग कर सरकारी पदों पर बैठे राजनीतिक लोग राजनीतिक लाभ के लिए सिस्टम का दुरुपयोग तो नहीं कर रहे हैं? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रचार-प्रसार के संबंध में दिए गए पुराने आदेश की समीक्षा का अब समय आ गया है।ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि कई मुख्यमंत्री राज्य सरकार के बजट से अपने राजनीतिक विस्तार में लगे हुए हैं। 

दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है। इसके बावजूद दिल्ली सरकार का प्रचार बजट किसी भी बड़े राज्य से कम नहीं है। दिल्ली के मुख्यमंत्री के फोटो के साथ दिल्ली के अलावा दूसरे राज्यों में भी विज्ञापन प्रचारित-प्रसारित कराए जाते हैं। दूसरे राज्य में किसी दूसरे राज्य की उपलब्धि बताने का क्या औचित्य है? लोकतंत्र में जनहित के नाम पर सब कुछ चलता है। ऐसा मान लिया जाता है क्योंकि जनहित निर्धारित करने का काम भी सरकारों की पॉलीटिकल लीडरशिप करती है।  

आज सभी सरकारें कर्जों के जाल में डूबी हुई हैं। रेवड़ी कल्चर पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। सरकारें जिस तरह मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए रेवड़ी कल्चर की योजनाएं घोषित करती हैं, उसी तरीके से सरकारी नेताओं के चेहरे चमकाने के लिए भी रेवड़ियाँ बांटी जाती हैं। केवल जनता के रेवड़ी कल्चर पर रोक लगाने से कितना लाभ होगा, यह नहीं कहा जा सकता।  

रेवड़ी कल्चर की मानसिकता हर स्तर पर हतोत्साहित करनी पड़ेगी। सरकारों का राजनीतिक नेतृत्व जिस तरह से रेवड़ी कल्चर का उपयोग कर सरकारी धन से लाभ लेने की कोशिश करते हैं उसको भी रोकना जरूरी है। लाभ केवल सरकारी धन में हिस्साबांटी ही नहीं है बल्कि उससे छवि और चेहरे को लाभ पहुंचाने की कोशिश को भी नैतिक और नीति संगत नहीं माना जा सकता है।