जातिगत जनगणना को जातिवादी राजनीति का हथियार मानने वाले दलों ने अब आरक्षण का तराना शुरू कर दिया है. पहले जातिगत जनगणना एजेंडा था. अब उसे सरकार ने अपने हाथ में ले लिया तो फिर आरक्षण का गाना शुरू हो गया..!!
राहुल गांधी पचास प्रतिशत आरक्षण की सीमा को बढ़ाने का सुर दे रहे हैं तो राष्ट्रीय जनता दल संसद और विधानसभा में ओबीसी आरक्षण की बात कर रहे हैं. जातिगत जनगणना का क्रेडिट लेने का वार तो चल ही रहा है. सामाजिक न्याय को ऐसे परोसा जा रहा है, जैसे सारे राजनेता न्यायमूर्ति की भूमिका में है. जबकि राजनेताओं का न्याय केवल वोट बैंक और सत्ता है.
उनकी दृष्टि केवल सत्ता की दृष्टि है. इसमें जिस का भी उपयोग हो सकता है वह कर लिया जाएगा. चाहे वह सामाजिक न्याय ही क्यों ना हो.
देश में आरक्षण की व्यवस्था नए-नए रूप ले रही है. आरक्षण कोटे के भीतर आरक्षण का विचार लागू हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर हरियाणा और तेलंगाना में अनुसूचित वर्गों के लिए निर्धारित आरक्षण के भीतर अति गरीब जातियों को आरक्षण देने की व्यवस्था लागू कर दी गई है. सामान्य निर्धन वर्गों को आरक्षण की ऐतिहासिक व्यवस्था पहले से लागू हो गई है. अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षण व्यवस्था में क्रीमी लेयर का प्रावधान लागू है.
क्रीमी लेयर का मतलब है कि, एक निश्चित आय सीमा के पिछड़े वर्ग के लोगों को ही आरक्षण का लाभ दिया जा रहा है. निश्चित आय सीमा के ऊपर ओबीसी समुदाय के लोगों को जनरल कैटेगरी के अंतर्गत ही कम्पटीट करना पड़ता है. ओबीसी में तो क्रीमी लेयर लागू है, लेकिन एससी और एसटी में यह व्यवस्था नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा इन वर्गों में आरक्षण कोटे के भीतर गरीब उपजातियां को आरक्षण का प्रावधान करने के पीछे भी यही सोच है कि इसका लाभ समाज के सभी जातियों को मिले. आरक्षण निर्धारित कोटा जब समाज के गरीब लोगों को मिलेगा तो फिर इसके पीछे यह सोच भी छुपी है कि, आरक्षित वर्गों के विकसित लोगों को आरक्षण के दायरे से बाहर किया जाए.
यह दोनों सिक्के के दो पहलू हैं. आरक्षण के कोटे में उपजातियां को कोटा देने का प्रावधान इसकी शुरुआत कहीं जा सकती है. इसका भविष्य सिक्के के दूसरे पहलू पर ही जाकर रुकेगा, जब आरक्षित वर्गों में विकसित लोगों को इससे बाहर किया जाएगा. राजनीतिक दल तो शायद यह फैसला नहीं कर पाएंगे लेकिन आरक्षण को लेकर जो पहले नहीं सोचा गया था. वह सब, जब अब धीरे-धीरे हो रहा है, तो यह काम भी या तो आरक्षित वर्गों की भीतर से ही आवाज उठने के बाद होगा या सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद इस पर अमल होगा.
सामान्य निर्धन वर्ग और ओबीसी में क्रीमी लेयर तथा एससी, एसटी कोटे के भीतर उपजातियां में कोटे की अवधारणा यही बता रही है कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए. अब प्रश्न आरक्षण के निर्धारित पचास प्रतिशत की सीमा को बढ़ाने का जहां तक है, यह सीमा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित की गई है.
इस सीमा के निर्धारण के पीछे यही वैधानिक विचार है कि, जनरल कैटेगरी को भी समानता पूर्वक समुचित अवसर मिलना चाहिए. इस सीमा को अगर बढ़ाया जाता है, तो फिर क्या सारी सुविधा आरक्षित वर्गों को ही मिलने लगेगी. अनारक्षित वर्ग के समानता के अधिकार का क्या होगा? इसमें और एक कानूनी परिस्थितियां हैं.
ओबीसी में क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू है. वर्तमान में आठ लाख की वार्षिक आय तय की गई है. इसका मतलब है कि, ओबीसी समुदाय के जिन परिवारों की आर्थिक आय आठ लाख की सीमा में है, उन्हें ही ओबीसी आरक्षण का लाभ मिलेगा.
वर्तमान में ओबीसी के लिए सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है. वर्ष 1931 में हुई जनगणना के आधार पर देश में लगभग बावन प्रतिशत ओबीसी आबादी है. क्रीमी लेयर के हिसाब से अगर इस आबादी की गणना की जाएगी तो वह प्रतिशत सत्ताईस या तीस के आसपास ही निकलेगा.
ओबीसी समुदाय में शामिल बहुत सारी जातियां हैं, जो समाज की विकसित जातियां कही जाती हैं. बहुत सारी ओबीसी जाति देश में खेती किसानी के सिरमौर मानी जाती हैं. चाहे पाटीदार हों या यादव हों यह सब विकसित बिरादरियां मानी जाती हैं. क्रीमी लेयर के ऊपर ओबीसी समुदाय में जो भी जनसंख्या है, उसे जनरल कैटेगरी में ही कंप्टीट करना पड़ता है.
यह पचास प्रतिशत की सीमा अगर बढ़ाई जाती है तो यह न केवल सामान्य वर्गों को नुकसान करेगा बल्कि ओबीसी समुदाय के उन लोगों को भी नुकसान पहुंचाएगा जो क्रीमी लेयर के सीमा से बाहर है.
आरक्षण की सीमा हटाने की मांग करने वाले इस बात को समझते हैं. लेकिन उनका लक्ष्य सामाजिक न्याय नहीं है. उनका लक्ष्य तो जातिवाद की राजनीति है. दलित राजनीति का बहुजन समाज पार्टी सक्सेस मॉडल कही जा सकती है. जातिवाद कि यह राजनीति उभरी और खत्म भी हो गई. जो भी जातिवादी राजनीति करना चाहता है उसको बीएसपी से सबक जरूर लेना चाहिए.
संविधान-संविधान दोहराने वाले जातिवाद की राजनीति से समानता के संविधान के मौलिक अधिकारों का हनन करते हैं. पचास प्रतिशत की सीमा वैधानिक रूप से बनाई गई है, इसको राजनीतिक रूप से हटाना संभव नहीं है.
कोई भी देश एक सीमा से ऊपर मेरिट को नजरअंदाज नहीं कर सकता. एजुकेशन में लेवल प्लेयिंग फील्ड की जरूरत है. उस तरफ किसी सरकार का या राजनीतिक दल का ध्यान नहीं रहता. शिक्षा के हालात आज भी ऐसे बने हुए हैं कि, गरीब, अमीर की शिक्षा व्यवस्था अलग-अलग है.
जब शिक्षा का लेवल अलग-अलग है, तो फिर सरकारी नौकरियों में लेवल फील्ड कैसे हो सकता है? जहां तक सरकारी नौकरियों में आरक्षण का सवाल है, वह तो दिनों दिन कम ही हो रहा है. आरक्षित वर्गों का बेकलॉक ही नहीं भरा जाता. सरकारी विभाग कॉन्ट्रैक्ट और टेंडर पर लेबर लेकर काम कराते हैं.
कांग्रेस की गलत नीतियों के कारण प्रमोशन में आरक्षण आज न्यायिक समीक्षा में फंसा हुआ है. हजारों कर्मचारी अधिकारी बिना प्रमोशन लिए ही रिटायर हो रहे हैं. आरक्षण अगर संतुलित ढंग से अमल में लाया जाता है तब तक तो यह सामाजिक न्याय का आधार बन सकता है. लेकिन अगर इसे असंतुलित ढंग से उपयोग करने की कोशिश की जाएगी तो यह सामाजिक न्याय के बदले राजनीतिक अन्याय साबित होगा.
वैसे भी सरकारी नौकरियों का मोह सिर्फ पेंशन के कारण था, अब तो पेंशन की व्यवस्था वैसी ही सरकारों में भी है जैसा प्राइवेट संस्थानों में लागू है. आज के हालातों में पेंशन का भी अब मोह नहीं बचा है.
जातिगत जनगणना हो रही है. इसे प्रोफेशनल ढंग से लिया जाना चाहिए. इस पर कम से कम अब तो राजनीति बंद होना चाहिए. सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीतिक अन्याय ना राजनीतिक दल के लिए फायदेमंद होगा और ना ही यह देश स्वीकार करेगा.