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बंद कीजिये, नदियों के नाम पर होते मजाक 

राकेश दुबे राकेश दुबे
Updated Mon , 26 Oct

सार

केंद्र सरकार द्वारा 13 नदियों के संरक्षण की घोषणा की गई है, इसके लिए 20 हजार करोड़ की राशि प्रस्तावित है. इस घोषणा से पिछला कुछ याद आता है..!

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विस्तार

केंद्र सरकार द्वारा वानिकी के जरिये 24 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में होकर बहने वाली यमुना, नर्मदा, झेलम, सतलज, चिनाव, रावी, व्यास, ब्रह्मपुत्र, लूणी, गोदावरी, महानदी, कृष्णा और कावेरी आदि 13 नदियों के संरक्षण की घोषणा की गई है, इसके लिए 20 हजार करोड़ की राशि प्रस्तावित है| इस घोषणा से पिछला कुछ याद आता है|

याद, कीजिये 1986 में गंगा एक्शन प्लान से लेकर 2014 की नमामि गंगे परियोजना, जिसमें केंद्र सरकार के सात मंत्रालयों की प्रतिष्ठा दांव पर थी, हजारों करोड़ स्वाहा हो गये, उसके बाद भी देश की राष्ट्रीय नदी, पुण्यदायिनी, पतितपावनी गंगा जस की तस है| इस बार की घोषणा में मध्यप्रदेश और उसकी नर्मदा नदी भी शामिल है, जिसके किनारे वृक्षारोपण का विश्व कीर्तिमान बनाने जा दावा मध्यप्रदेश सरकारथा, अब यह अलग बात है नर्मदा के किनारे हुआ वृक्षारोपण पर उठे सवाल और उसकी जाँच हेतु बनी समिति की कोई खबर नहीं है |

अब केंद्र सरकार का दावा है कि इस नई संरक्षण नीति से 10 वर्षों में इससे 7417 वर्ग किमी वन क्षेत्र में वृद्धि होगी, वहीं 50.21 मिलियन कार्बन डाइऑक्साइड सोखने में भी मदद मिलेगी| इससे जहां हर वर्ष 1.887 घन मीटर भूजल रिचार्ज होगा, वहीं 964 वर्ग घन मीटर मिट्टी के क्षरण में कमी आयेगी| इस अभियान की शुरुआत नर्मदा से होगी| वास्तव में यह कॉप-26 में जतायी प्रतिबद्धता की दिशा में एक कोशिश है, जिससे 2030 तक कॉर्बन उत्सर्जन में कमी लाने का लक्ष्य है|

चूँकि नर्मदा नदी केंद्र में हैं, इसलिए बात यही से |नर्मदा का औसतन प्रवाह क्षेत्र चौड़ाई में करीब 20 से 25 किमी है| उसके दक्षिण में सतपुड़ा और उत्तर में विंध्याचल है| कुछ बरस पहले शिवराज सिंह ने मध्य प्रदेश में वृक्षारोपण के मामले में विश्व में कीर्तिमान स्थापित किया था| उसके बाद अब नर्मदा किनारे क्या जमीन भी बची है? तो कितनी , जहां फिर से वृक्षारोपण हो सकेगा? एक और स्थापित तथ्य विचार का विषय है, “मिट्टी का क्षरण उन जगहों पर ज्यादा होता है, जहां पानी का प्रवाह ज्यादा होता है. फिर नदी के पास आते-आते पानी के प्रवाह की गति कम हो जाती है|

जल भराव होने पर पेड़ों की जड़ें सड़ जाती हैं और पेड़ मर सकते हैं| पेड़ों की जड़ें पानी के भराव का काम नहीं कर पाती हैं| पेड़ों के जरिये पानी के भराव की धारणा ही बेमानी है. नदी के किनारे राइपेरियन जोन होता है| उस जोन में वही वनस्पति पैदा होती है जो नदी के लिए हितकारी होती है, इसलिए वहां उसी किस्म के पेड़ लगाये जाने चाहिए| वहां पर दूसरी किस्मों के पेड़ लगाने का कोई औचित्य ही नहीं है|” यह गलती प्रदेश और केंद्र सरकार दोबारा नहीं करेगी, इस पर विश्वास करने के अलावा अब कोई विकल्प शेष नहीं है |

जब नदी किनारे की जमीन पर वृक्षारोपण होगा तो किसान खेती करेगा या वृक्ष लगायेगा| जब वृक्ष लगायेगा, उस दशा में उसके लिए खेती करना मुश्किल हो जायेगा| तब वह भूमिहीन हो जायेगा या वहां से पलायन कर शहरी श्रमिकों की श्रेणी में शामिल हो जायेगा| वह मुफ्त राशन पाने वाले 80 करोड़ लोगों की तादाद में वृद्धि ही करेगा| नदी केवल वन क्षेत्रों से ही नहीं निकलती, वह दूसरे इलाकों से भी होकर जाती है| वन क्षेत्र में किसी अन्य को जाने की पाबंदी है, ऐसी दशा में वन क्षेत्र के बाहर रेवेन्यू क्षेत्र में उसका माई-बाप कौन होगा, यह एक बड़ा सवाल है ?

अब बात गंगा की |गंगा आज भी उतनी ही मैली है जितनी 1986 में थी| आज भी फर्रुखाबाद के बाद वाराणसी और उसके आगे का जल इतना प्रदूषित है कि उसमें स्नान करने से ही लोगों को त्वचा, श्वांस, आंत्रशोध, पीलिया जैसी बीमारियां हो सकती हैं| सैकड़ों एसटीपी खराब पड़े हैं और कुछ में तो बिजली की आपूर्ति ही नहीं है|

1986 में गंगा एक्शन प्लान से लेकर 2014 में शुरू नमामि गंगे परियोजना, जिसमें केंद्र सरकार के सात मंत्रालयों की प्रतिष्ठा दांव पर थी, हजारों करोड़ खर्च के बाद गंगा जस की तस है| रिवर फ्रंट और उसके पास सड़कें बना देने से किसी नदी की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आने वाला| हकीकत में वन क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है. सीएसई की रिपोर्ट कहती है कि देश से 36 प्रतिशत वन क्षेत्र गायब हैं| जरूरत इस बात की है कि घोषणा और क्रियान्वयन से पहले इस विषय पर जनमानस में विचार-विमर्श की प्रक्रिया के माध्यम से इसके गुण-लाभ और हानि का जायजा लिया जाये|